"अर्थशास्त्र": अवतरणों में अंतर

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===सैद्धान्तिक महत्व===
 
* विधि ज्ञान हेतु
 
* ज्ञान में वृद्धि
 
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== इतिहास ==
=== भारत में अर्थशास्त्र ===
अर्थशास्त्र बहुत प्राचीन विद्या है। चार [[उपवेद]] अति प्राचीन काल में बनाए गए थे। इन चारों उपवेदों में '''अर्थवेद''' भी एक उपवेद माना जाता है, परन्तु अब यह उपलब्ध नहीं है। [[विष्णुपुराण]] में भारत की प्राचीन तथा प्रधान 18 विद्याओं में अर्थशास्त्र भी परिगणित है। इस समय [[बृहस्पति|बार्हस्पत्य]] तथा [[अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)|कौटिलीय अर्थशास्त्र]] उपलब्ध हैं। अर्थशास्त्र के सर्वप्रथम आचार्य बृहस्पति थे। उनका अर्थशास्त्र सूत्रों के रूप में प्राप्त है, परन्तु उसमें अर्थशास्त्र सम्बन्धी सब बातों का समावेश नहीं है। कौटिल्य का अर्थशास्त्र ही एक ऐसा ग्रंथ है जो अर्थशास्त्र के विषय पर उपलब्ध क्रमबद्ध ग्रंथ है, इसलिए इसका महत्व सबसे अधिक है। आचार्य कौटिल्य, चाणक्य के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। ये [[चंद्रगुप्त मौर्य]] (321-297 ई.पू.) के महामंत्री थे। इनका ग्रंथ 'अर्थशास्त्र' पंडितों की राय में प्राय: 2,300 वर्ष पुराना है। आचार्य कौटिल्य के मतानुसार अर्थशास्त्र का क्षेत्र पृथ्वी को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करने के उपायों का विचार करना है। उन्होंने अपने अर्थशास्त्र में [[ब्रह्मचर्य]] की दीक्षा से लेकर देशों की विजय करने की अनेक बातों का समावेश किया है। शहरोंप्रो.अशोक काकुमार बसाना,ने [[गुप्तचर|गुप्तचरों]]घटमपुर का प्रबन्ध, [[सेना]]प्त की रचना, न्यायालयों की स्थापना, [[विवाह]] संबंधी नियम, [[दायभाग]], शत्रुओं पर चढ़ाई के तरीके, [[किलाबंदी]], [[संधि|संधियों]] के भेद, व्यूहरचना इत्यादि बातों का विस्ताररूप से विचार आचार्य कौटिल्य अपने ग्रंथ में करते हैं। प्रमाणत: इस ग्रंथ की कितनी ही बातें अर्थशास्त्र के आधुनिक काल में निर्दिष्ट क्षेत्र से बाहर की हैं। उसमें [[राजनीति]], [[दंडनीति]], [[समाजशास्त्र]], [[नीतिशास्त्र]] इत्यादि विषयों पर भी विचार हुआ है।
 
भारतीय संस्कृति में चार [[पुरुषार्थ|पुरुषार्थों]] में '''[[अर्थ]]''' (धन-सम्पदा) भी सम्मिलित है। </nowiki>[[जैन धर्म]] में '''अपरिग्रह''' (बहुत अधिक धन संग्रह '''न''' करना) का उपदेश किया गया है। अनेक प्राचीन [[संस्कृत]] ग्रन्थों में धन की प्रशंशा या निन्दा की गयी है। [[भर्तृहरि]] ने कहा है, 'सर्वे गुणा कांचनम् आश्रयन्ते' (सभी गुणों का आधार स्वर्ण ही है।)। [[चाणक्यसूत्र]] में कहा है-