"श्रीमद्भगवद्गीता": अवतरणों में अंतर

टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन
पंक्ति 32:
गीता के १८ अध्यायों में वर्णित विषयों की भी क्रमप्राप्त संगति है।
 
'''प्रथम अध्याय''' का नाम [[अर्जुनविषादयोग]] है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण नाटकीय रंगमंच प्रस्तुत करता है जिसमें श्रोता और वक्ता दोनों ही कुतूहल [[शांति]] के लिए नहीं वरन् [[जीवन]] की प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त होते हैं। शौर्य और [[धैर्य]], [[साहस]] और बल इन चारों गुणों की प्रभूत मात्रा से [[अर्जुन]] का व्यक्तित्व बना था और इन चारों के ऊपर दो गुण और थे एक [[क्षमा]], दूसरी प्रज्ञा। बलप्रधान क्षात्रधर्म से प्राप्त होनेवाली स्थिति में पहुँचकर सहसा [[अर्जुन]] के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका [[क्षत्रिय|क्षात्र स्वभाव]] लुप्त हो गया। जिस [[कर्तव्य]] के लिए वह कटिबद्ध हुआ था उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यह माना है कि [[मन]] की इस कातरता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गया था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करे, क्या न करे, कुछ समझ में नहीं आता था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।
 
[[कृष्ण]] ने [[अर्जुन]] की वह स्थिति देखकर जान लिया कि अर्जुन का [[शरीर]] ठीक है किंतु युद्ध आरंभ होने से पहले ही उस अद्भुत [[क्षत्रिय]] का मनोबल टूट चुका है। बिना [[मन]] के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अतएव कृष्ण के सामने एक गुरु [[कर्तव्य]] आ गया। अत: तर्क से, बुद्धि से, [[ज्ञान]] से, कर्म की चर्चा से, [[विश्व]] के स्वभाव से, उसमें [[जीवन]] की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान [[ब्रह्म]] के साक्षात [[दर्शन]] से [[अर्जुन]] के [[मन]] का उद्धार करना, यही उनका लक्ष्य हुआ। इसी तत्वचर्चा का विषय गीता है। पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।
 
'''दूसरे अध्याय''' का नाम [[सांख्ययोग]] है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं[[परंपरा]]ओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उसका [[ध्यान]] दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं।
 
कृष्ण ने अर्जुन की अब तक दी हुई सब युक्तियों को प्रज्ञावाद का झूठा रूप कहा। उनकी युक्ति यह है कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं, इसी को प्राचीन आचार्य पर्यायवाद का नाम भी देते थे। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। यही भगवान का व्यंग्य है कि प्रज्ञा के दृष्टिकोण को मानते हुए भी अर्जुन इस प्रकार के मोह में क्यों पड़ गया है।