"श्रीमद्भगवद्गीता": अवतरणों में अंतर

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सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है। यद्यपि अलग-अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है। (सन्दर्भ - बसंतेश्वरी भगवदगीता से)
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==श्रीगीताजीकी महिमा ==
 
वास्तवमे श्रीमद्भगवद्गीता का माहात्म्य वाणी द्वारा वर्णन करनेके लिये किसिकी भी सामर्थ्य नहीं है ; क्योंकि यह एक परम रहस्यमय ग्रंथ है |इसमे सम्पूर्ण वेदोंका सार संग्रह किया गया है | इसकी संस्कृत इतनी सुन्दर और सरल है की थोड़ा अभ्यास करनेसे मनुष्य उसको सहज ही समाज सकता है ; परन्तु इसका आशय इतना गम्भीर है कि आजीवन निरंतर अभ्यास करते रहने पर भी उसका अन्त नहीं आता | प्रतिदिन नये नये भाव उत्पन्न होते रहते है , इससे यह सदैव नवीन बना रहता है एवं एकाग्रचित्त होकर श्रद्धाभक्तिसहित विचार करने से इसके पद पदमे परम रहस्य भरा हुआ प्रत्यक्ष प्रतीत होता है | भगवान् के गुण, प्रभाव और मर्मका वर्णन जिस प्रकार इस गीताशास्त्र मे किया गया है, वैस अन्य ग्रन्थों मे मिलना कठिन है; क्योंकि प्राय: ग्रन्थो मे कुछ न कुछ सांसारिक विषय मिला रहता है | भगवानने 'श्रीमद्भगवद्गीता ' रूप एक ऐसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमे एक भी शब्द सदुपदेशसे खाली नहीं है | श्री वेदव्यासजीने महाभारतमे गीताजीका वर्णन करने के उपरांत कहा है ------
 
== गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै: | या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि: सृता || ==
 
'गीता सुगीत करने योग्य है अर्थात् श्री गीताजी को बहाली प्रकार पढ़कर अर्थ और भावसहित अन्त: कारण मे धारण कर केन मुख्य कर्तव्य है, जो कि स्वयं पद्मनाभ भगवान् श्रीहरी पुरुषोत्तम श्रीविष्णुजी के मुखारविन्दसे निकली हुई है ; तत: अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ? '
स्वयं श्रीभगवान् ने भी इसके माहात्म्य का वर्णन किया है (अ ० १८ श्लोक ६८ से ७१ ) |
 
इस गीता शास्त्र मे मनुष्य मात्र का अधीकारी है, चाहे वह किसी भी वर्ण, आश्रममे स्थित हो, परन्तु भगवानमे परम श्रद्धालू और भक्तियुक्त अवस्य होना चाहिये; क्योंकि भगवान् ने अपने भक्तों मे  ही इसका प्रचार करनेके लिये आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है कि स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापमे लिप्त पापयोनि भी मेरे परायण होकर परमगति को प्राप्त होते है (अ ० ९ श्लोक २७ से ३२ ) ; अपने अपने स्वभाविक कर्मों द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होते है (अ ० १८ श्लोक ४६ )
 
== यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदम् ततम् | स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विदन्ति मानव : || ==
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जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है ; उस परमेश्वरकी अपने स्वभाविक कर्मों द्वारा पूजा अर्चना करके मनुष्य परमगति परमसिद्धि को प्राप्त हो जाता है |
 
 
 
 
 
 
== सन्दर्भ ==