"भारतीय स्वतंत्रता का क्रांतिकारी आन्दोलन": अवतरणों में अंतर
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भारत की स्वतंत्रता के बाद आधुनिक नेताओं ने भारत के सशस्त्र क्रान्तिकारी आन्दोलन को प्रायः दबाते हुए उसे इतिहास में कम महत्व दिया गया और कई स्थानों पर उसे विकृत भी किया गया। स्वराज्य उपरान्त यह सिद्ध करने की चेष्टा की गई कि हमें स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन के माध्यम से मिली है। इस नये विकृत इतिहास में स्वाधीनता के लिए प्राणोत्सर्ग करने वाले, सर्वस्व समर्पित करने वाले असंख्य क्रांतिकारियों, अमर हुतात्माओं की पूर्ण रूप से उपेक्षा की गई।
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भारत को मुक्त कराने के लिए सशस्त्र विद्रोह की एक अखण्ड परम्परा रही है। भारत में अंग्रेज़ी राज्य की स्थापना के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का आरम्भ हो गया था। [[बंगाल]] में सैनिक-विद्रोह, [[चूआड़ विद्रोह]], [[सन्यासी विद्रोह]], [[संथाल विद्रोह]] अनेक सशस्त्र विद्रोहों की परिणति [[भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संग्राम|सत्तावन के विद्रोह]] के रूप में हुई। प्रथम स्वातन्त्र्य–संघर्ष के असफल हो जाने पर भी विद्रोह की अग्नि ठण्डी नहीं हुई। शीघ्र ही दस-पन्द्रह वर्षों के बाद पंजाब में [[कूका विद्रोह]] व महाराष्ट्र में [[वासुदेव बलवन्त फड़के]] के छापामार युद्ध शुरू हो गए। [[संयुक्त प्रान्त]] में पं॰ [[गेंदालाल दीक्षित]] ने शिवाजी समिति और मातृदेवी नामक संस्था की स्थापना की। बंगाल में क्रान्ति की अग्नि सतत जलती रही। [[सरदार अजीतसिंह]] ने सत्तावन के स्वतंत्रता–आन्दोलन की पुनरावृत्ति के प्रयत्न शुरू कर दिए। [[रासबिहारी बोस]] और [[शचीन्द्रनाथ सान्याल]] ने बंगाल, बिहार, दिल्ली, राजपूताना, संयुक्त प्रान्त व पंजाब से लेकर पेशावर तक की सभी छावनियों में प्रवेश कर 1915 में पुनः विद्रोह की सारी तैयारी कर ली थी। दुर्दैव से यह प्रयत्न भी असफल हो गया। इसके भी नए-नए क्रान्तिकारी उभरते रहे। [[राजा महेन्द्र प्रताप]] और उनके साथियों ने तो अफगान प्रदेश में अस्थायी व समान्तर सरकार स्थापित कर ली। सैन्य संगठन कर ब्रिटिश भारत से युद्ध भी किया। रासबिहारी बोस ने जापान में आज़ाद हिन्द फौज के लिए अनुकूल भूमिका बनाई।
[[चित्र:Bhagat Singh Sukh Dev Raj Guru.jpg|center|500px|thumb|महान क्रांतिकारी '''भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु''']]
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