"कर्म": अवतरणों में अंतर

सत्यस्वरुपा समष्टि हेतु अर्पित कर्तव्य कर्म ही धर्म है।
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कर्म के एक अलग पहलु को समझाया
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{{जैन धर्म}}
साधारण बोलचाल की भाषा में '''कर्म''' का अर्थ होता है 'क्रिया'। [[व्याकरण]] में क्रिया से निष्पाद्यमान फल के आश्रय को कर्म कहते हैं। "राम घर जाता है' इस उदाहरण में "घर" गमन क्रिया के फल का आश्रय होने के नाते "जाना क्रिया' का कर्म है।सत्यस्वरुपा समष्टि हेतु अर्पित कर्तव्य कर्म ही धर्म है।
     नियन्ता ने जिस तरह इस जटिल सृष्टि को रचा एंव जितनी जटिल इस ब्रह्माण्ड की संरचना है उतनी ही जटिल इस मानव शरीर एवं हमारे मस्तिष्क की संरचना है। सृष्टि की इस जटिल संरचना को संचालित करने की प्रणाली भी कम जटिल नही है। करोड़ो अरबो मनुष्य एवं जीव-जन्तुओ के कर्म एवं उनकी प्रणाली हमे जटिल लगना कोई आश्चर्य की बात नही है , इस प्रणाली को समझना हमारे लिए जटिल है किन्तु उस सृष्टिकर्ता के लिए यह जटिल नही है। लाखो करोड़ो प्रकाश वर्ष मे फैला ये ब्रहमाण्ड और उसमे एक सुक्ष्म बिन्दु समान हमारी एक आकाशगंगा तथा उसमे एक कण के समान हमारी पृथ्वी और उस कण के भी सौवे हिस्से पर रहने वाले हम प्राणी I बह्माण्ड के रचियता के लिए हम कण मात्र है एवं हमारे नियमन हेतु किसी प्रणाली को स्थापित करना उस रचियता के लिए कदापि जटिल नही हो सकता। हम नादान ही इसे समझने में अक्षम है इसलिए इसे जटिल की संज्ञा दे डाली I
           
                     
   कर्म की अवधारणा
 
           कर्म की प्रणाली से पूर्व हमे कर्म को जानना अत्यन्त आवश्यक है , बिना कर्म को जाने हम इसकी प्रणाली को पूर्णतया समझने में असमर्थ होगे। वर्तमान धारणा के अनुसार हमने भ्रम को सत्य मान लिया है , कि आजीवीका चलाने के लिए हमारे द्वारा किया गया कार्य ही कर्म है। कर्म की यह धारणा बहुत ही संकुचित एवं भ्रम मे डालने वाली है।
                       वास्तव मे कर्म हमारे द्वारा किया गया हर कार्य एवं लोप ( कुछ कार्य छोड़ देना ) कर्म की परिधि में आता है। गहन रूप मे यदि समझे तो हमारे दैनिक नित्यकर्म ( नहाना , खाना , पीना ) सभी कर्म की श्रेणी मे आते है। यदि हमारा शरीर मृत प्राय हो जाए किन्तु यदि हमारी श्वास चल रही है तो वह भी कर्म की श्रेणी में आता है। सरल भाषा मे हमारे भौतीक स्वरूप में रहने तक हम किसी ना किसी कर्म मे लिप्त रहते है।
 
 
कर्म प्रणाली
 
कर्म की प्रणाली तीन तत्वो के अनुरुप संचालित होती है।
प्रथम - किसी प्राणी का कार्य या लोप
द्वितीय - उस कार्य या लोप पर अन्य प्राणी का आचरण ,
चिन्तन अथवा कार्य या लोप
तृतीय - इनके कार्य / लोप से होने वाला प्रभाव या घटना
यह प्रणाली एक त्रिभुज की तरह कार्य करती है , जिसकी दो भुजाए दो प्राणियों के कार्य है एवं तीसरी भुजा वह प्रभाव अथवा घटना है I
इसी तरह से अनेकों त्रिभुजों के सम्मेलन से एक मुख्य घटना निर्मित होती है। घटना का मुख्य या तुच्छ होना केवल उस प्राणी के लिए होती है जिसके लिए वह वास्तव मे वह आवश्यक होती है। इसे एक सरल उदाहरण से समझते है- जब एक पुत्र का पिता बीमार होता है , उसकी प्राण रक्षा हेतु विशेष चिकीत्सा की आवश्यकता होती है। वह पिता को चिकीत्सालय ले जाता है। चिकीत्सक उसका इलाज करता है , पिता की प्राण रक्षा हो जाती है । यह एक ही घटना उस पुत्र के लिए मुख्य है एवं वही घटना चिकीत्सक के लिए तुच्छ है।
इसी कारण कोई घटना ना तो सार्वभौमीक रूप से ना तो तुच्छ होती है ना ही मुख्य होती है वह केवल और केवल एकमात्र उन तीन तत्वों का सम्मिश्रण है , जो कर्म प्रणाली पर आधारित है। यह केवल करने वाले कर्ता का दृष्टिकोण है जो उसे तुच्छ या मुख्य की संज्ञा दे देता है।
 
 
मानव जीवन में कर्मप्रणाली का स्थान
 
मानव जीवन में कर्म प्रणाली अत्यन्त सुचारू रूप से कार्य करती है। कई त्रिभुज ( ऊपर इसको विशीष्ठ रुप से स्पष्ट किया गया है ) मिलकर एक घटना का निर्माण करते है। और इन्ही घटनाओं से मिलकर प्राणी का जीवन बनता है। हमारे छोटे - बड़े कर्म की श्रृंखला ही जुड़कर घटना का निर्माण करती है। एक , दो या उससे अधिक प्राणीयों के त्रिभुज द्वारा ही आगे चलकर एक नये त्रिभुज का निर्माण होता हैं। इसे इस सुत्र द्वारा समझे
"आपके वर्तमान में ही आपके भविष्य का बीज होता है "
 
== दर्शन ==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/कर्म" से प्राप्त