"अपराध शास्त्र": अवतरणों में अंतर

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== अपराध के सिद्धान्त ==
=== आधुनिक मनोविश्लेषण ===
मनोविज्ञान अपराध को मनुष्य की मानसिक उलझनों का परिणाम मानता है। जिस व्यक्ति का बाल्यकाल प्रेम ओर प्रोत्साहन के वातावरण में नहीं बीतता उसके मन में उनेक प्रकार की हीनता की मानसिक ग्रंथियाँ बन जाती हैं। इन ग्रंथियों में उसकी मन में उसकी बहुत सी मानसिक शक्ति संचित रहती है। डॉ॰ अलफ्रेड एडलर का कथन है कि जिस व्यक्ति के मन में हीनता की मानसिक ग्रंथियाँ रहती हैं वह अनिवार्य रूप से अनेक प्रकार के अपराध करता है। यह अपराध वह इसलिए करता है कि स्वयं को वह दूसरे लोगों से अधिक बलवान सिद्ध कर सके। हीनता की ग्रंथि तिस व्यक्ति में मन में रहती हे वह सदा भीतरी मानसिक असंतोष की स्थिति में रहता है। वह सब समय ऐसे तय म कामों में अपने को लगाए रहता है जिससे सभी लोग उसकी ओर देखें और उसकी प्रशंसा करे। हीनता की मानसिक ग्रंथि मनुष्य को ऐसे कामों में लगाती है जिनके करने से मनुष्य को अनेक प्रकार की निंदा सूननी पड़ती है। ऐस व्यक्ति स्वयं को सदा चर्चा का विषय बनाए रखना चाहता है। यदि उसके भले कामों के लिए चर्चा नहीं हुई तो बुरे कामों के लिए ही हो। उसकी मानसिक ग्रंथि उसे शांत मन नहीं रहने देती। वह उसे सदा विशेष काम करने के लिए प्रेरणा देती रहती है। यदि ऐसे व्यक्ति को दंड किया जाए तो इससे उसका सुधार नहीं होता, अपितु इससे उसकी मानसिक ग्रंथि और भी जटिल हो जाती है। ऐसे अपराधी के उपचार के लिए मानसिक चिकित्सक की आवश्यकता होती है।
 
आधुनिक मनोविज्ञान ने हमें बताया है कि समाज में अपराध को कम करने के लिए दंडविधान को कड़ा करना पर्याप्त नहीं है। इसके लिए समाज में सुशिक्षा की आवश्यकता होती है। जब मनुष्य की कोई प्रवृति बचपन से ही प्रबल हो जाती है तो आगे चलकार वह विशेष प्रकार के कार्यो में प्रकाशित होती है। ये कार्य समाज के लिए हितकर होते हें अथवा समाजविरोधी होते है। समाजविरोधी कार्य ही हमें व्यक्ति के प्रति उचित दृष्टिकोण रखना होगा। जिस बालक को बड़े लाड़ प्यार से रखा जाता है और उसे सभी प्रकार के कामों को करने के लिए छूट दे दी जाती है, उसमें दूसरों के सुख के लिए अपने सुख को त्यागने की क्षमता की नहीं आती। ऐस व्यक्ति की सामाजिक भावनाएँ अविकसित रह जाती है। जीवन सुस्वत्व का निर्माण नहीं होता। इसके कारण वह न तो समाजिक दृष्टि से भले बुरे का विचार कर सकता है ओर न बुरे कामों से स्वयं को रोकने की क्षमता प्राप्त कर पाता है। बालक के माता-पिता और आसपास का वातावारण तथा पाठशालाएँ इसमें महत्व का काम करती हैं। उचित शिक्षा का एक उद्देश्य यही है कि बालक अपने ऊपर संयम की क्षमता आ जाए। जिस व्यक्ति में आत्मनियंत्रण की स्थिति जितनी अधिक रहती है वह अपराध उतना ही कम करता है।