"भारत के घोटालों की सूची (वर्ष के अनुसार)": अवतरणों में अंतर

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* [[हर्षद मेहता]] सुरक्षा घोटाला
 
== 19571958. ==
* [[हरिदास मुंदड़ा]] घोटालाघोटा
 
 
उस साल की बात हैदेश का पहला वित्तीय घोटाला जिसने जवाहरलाल नेहरू और फ़ीरोज़ गांधी के रिश्ते ख़राब कर दिए थे
1958 में हुए मूंदड़ा घोटाले की सुनवाई जनता के सामने हुई थी और महज़ 24 दिन में इसका फ़ैसला भी हो गया था
'''''अनुराग भारद्वाज'''''
12 दिसंबर 2017
 
आज़ाद हिंदुस्तान का पहला वित्तीय घोटाला 1958 में हुआ था. इसे मूंदड़ा घोटाला भी कहा जाता है क्योंकि इसे अंजाम देने वाले का नाम हरिदास मूंदड़ा था. यह पहला घोटाला था जिसमें व्यापारी, अफ़सर और नेता की तिकड़ी शामिल थी. इससे देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की बड़ी किरकिरी हुई थी क्यूंकि इसे उजागर करने वाला और कोई नहीं उनके दामाद फीरोज़ गांधी थे. इसकी वजह से तत्कालीन वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी को इस्तीफ़ा देना पड़ा. हालंकि, नेहरू का इस घोटाले से कोई संबंध नहीं था पर इसकी वजह से नेहरू और फ़ीरोज़ गांधी के रिश्ते सामान्य नहीं रह पाए.
 
 
घोटाला सिर्फ इतना था कि हरिदास मूंदड़ा ने सरकारी तंत्र का इस्तेमाल करके एलआईसी को अपनी संदेहास्पद कंपनियों के शेयर्स ऊंचे दाम पर ख़रीदने पर मजबूर किया था और इसकी वजह से एलआईसी को करोड़ों का नुकसान झेलना पड़ा.
 
 
 
 
* ''''' कौन था हरिदास मूंदड़ा'''''
 
हरिदास मूंदड़ा एक मारवाड़ी था-कलकत्ता का एक व्यापारी और सटोरिया. हरिदास पहले पहले बल्ब बेचने का काम करता था. कंपनियों के शेयर्स में उसकी दिलचस्पी थी. मंदड़ियों और तेजड़ियों के खेल में हरिदास एक शातिर खिलाड़ी बनकर उभरा. 1956 तक आते-आते कई बड़ी कंपनियों में उसकी अच्छी-ख़ासी हिस्सेदारी हो गई थी. जेस्सोप्स एंड कंपनी, रिचर्डसन एंड क्रूड्डस, स्मिथ स्टेनीस्ट्रीट, ओस्लो लैंपस, अंजेलो ब्रदर्स और ब्रिटिश इंडिया कॉरपोरेशन में मालिकाना हक़ था.
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* एलआईसी और घोटाले की साठगांठ''''
 
आजादी के आसपास कुल मिलाकर 245 छोटी बड़ी कंपनियां बीमा के क्षेत्र में कार्यरत थीं. इनमें से कुछ कंपनियां अक्सर छोटी-मोटी वित्तीय गड़बड़ियां करती रहती थीं. इसके मद्देनज़र और देश के नागरिकों के लिए बीमा की गारंटी देने के विचार से 1956 में भारतीय संसद ने बीमा विधेयक पारित किया. इसके साथ उन सभी 245 कंपनियों का विलय करके एक सरकारी संस्था का गठन हुआ जिसका नाम था भारतीय जीवन बीमा निगम यानी एलआईसी. शुरुआत में सरकार ने पांच करोड़ रुपये की पूंजी इसमें लगायी. इसके ज़रिये भारत सरकार कंपनियों में निवेश करती. ये एक तरीक़े से समाजवादी व्यवस्था का व्यापारिक दृष्टिकोण था.
एलआईसी अपनी नीतियों के तहत उन कंपनियों में भी निवेश करती जिनका प्रबंधन नामी-गिरामी होता या जिनकी काफ़ी प्रतिष्ठा होती. दूसरे शब्दों में कहें तो उसका पैसा ‘ब्लू चिप कंपनियों’ में लगता. 1957 में उसने उन छहों कंपनियों के शेयर्स ऊंचे दाम या बाज़ार भाव से अधिक भाव पर ख़रीदे थे जिनमें मूंदड़ा ने भी पैसा लगाया था और जिनका जिक्र ऊपर हुआ है. ये कंपनियां न तो ‘ब्लू चिप कंपनियों’ की श्रेणी में आती थीं और न ही इनका कोई अच्छा वित्तीय रिकॉर्ड था. बावजूद इसके एलआईसी ने इन कंपनियों में उस वक़्त सबसे बड़ा निवेश कर दिया.
 
इसके पीछे हरिदास मूंदड़ा की चाल थी कि जब निवेशकों को मालूम होगा कि उसकी कंपनियों में सरकार ने निवेश किया है तो मुनाफ़े को निश्चित मनाकर अन्य लोग भी उन कंपनियों के शेयर्स ख़रीदेंगे. इससे शेयर्स के बाज़ार भाव ऊंचे होंगे और वह उन शेयर्स को ऊंचे दाम पर बेचकर मुनाफ़ा कमा लेगा.
 
बताते हैं कि अंदरखाने एलआईसी के अफ़सरों को इस बात का पता चल गया था. तो भी एलआईसी की निवेश कमेटी ने इस ख़रीद पर कोई आपत्ति नहीं जताई. कमेटी के सदस्यों का मानना था कि सरकार की रज़ामंदी के बिना निगम के चेयरमैन और मैनेजिंग डायरेक्टर इतनी बड़ी डील नहीं कर सकते लिहाज़ा किसी ने भी न तो हरिदास मूंदड़ा की कंपनियों के शेयर्स ख़रीदने पर हामी भारी और न ही किसी ने आपत्ति जताई. सब कुछ एक तरह से ‘सेट’ हो गया था कि तभी भांडा फूट गया.
 
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* फ़ीरोज़ गांधी की एंट्री'''
 
इंदिरा गांधी के पति फ़ीरोज़ गांधी को जब यह मालूम हुआ तो उन्होंने इसके ख़िलाफ़ संसद में हल्ला बोल दिया. उन्होंने कहा कि एलआईसी ने हरिदास मूंदड़ा की कंपनियों के शेयर्स उसे फ़ायदा पहुंचाने के लिहाज़ से खरीदे हैं. उन्होंने इस बात पर भी ताज्जुब जताया कि न सरकार और न ही एलआईसी ने इसका कोई विरोध किया है. जब संसद में वित्त मंत्री टीटी कृष्णामाचारी से इस बाबत पूछा गया तो उन्होंने गोलमोल जवाब दिया.
 
बस फिर क्या था. विपक्ष के हाथ एक मुद्दा लग गया था. संसद में इस पर बहस तेज़ हो गयी और प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तक को इसमें घसीट लिया गया. दिसम्बर, 1957 के शीतकालीन सत्र में फ़ीरोज़ गांधी ने धारदार हमला बोलते हुए कहा कि एलआईसी सरकार के हाथों बनाया गया सबसे बड़ा संस्थान है और सरकार को इसके निवेश पर निगरानी रखनी चाहिए. सरकार ने मामला कुछ समय तक टालने के बाद बम्बई उच्च न्यायालय के रिटायर्ड जज एमसी छागला की अध्यक्षता में जांच आयोग बिठा दिया. नेहरू नहीं चाहते थे कि फ़ीरोज़ उनपर या उनकी सरकार पर इस तरह से हमला बोलें.
 
 
* '''खुले में सुनवाई'''
 
जज एमसी छागला ने तुरंत प्रभाव से अपना काम शुरू कर दिया. भारत के इतिहास में यह पहला अवसर था जब किसी घोटाले की सुनवाई जनता के सामने हुई. कोर्ट रूम के बाहर बड़े-बड़े लाउडस्पीकर लगाये गए ताकि जो लोग अंदर बैठकर कार्यवाही देख न पाएं वे कम-से-कम इसे सुन सकें. बताते हैं कि बड़ी तादाद में लोग यह सुनवाई देखने और सुनने जुटते थे. जज साहब सबको लाइन हाज़िर कर दिया था. जब लाउडस्पीकर स्पीकर में अधिकारियों, मंत्रियों और अन्य लोगों को जज साहब की फ़टकार सुनायी देती तो लोग तालियां पीटते.
 
एचडीएफसी बैंक के संस्थापक हंसमुख ठाकोरदास पारेख ने आयोग के सामने अपनी बात रखते हुए मूंदडा कंपनियों की कारगुज़ारी सामने रख दी. उन्होंने बताया कि हरिदास ने इन कंपनियों के शेयर्स को ऊंचे दाम पर बाज़ार में बेचकर मुनाफ़ा कमाया है और एलआईसी द्वारा इन कंपनियों के ख़रीदे गए शेयर्स से 50 लाख रु से भी ज़्यादा का नुकसान हुआ है.
 
एक और वित्तीय मसलों के जानकार एडी श्रॉफ ने बड़ा ख़ुलासा किया. उन्होंने बताया कि हरिदास मूंदड़ा को टाटा समूह से जुड़े एक बैंक ने कर्ज़ देने की पेशकश की थी जिसे टाटा समूह ने उनकी राय के बाद मना कर दिया. श्रॉफ़ ने बताया कि हरिदास ने उन्हें अपनी कंपनियों के साथ व्यापार करने के लिए भी कहा था लेकिन उन्होंने मना कर दिया. अपनी गवाही में एडी श्रॉफ़ ने अंततः कहा कि हरिदास मूंदड़ा झूठ बोलने वाला व्यापारी है और उन्हें ताज्जुब है कि उसके साम्राज्य को ढहने में इतना समय क्यों लगा.
 
उधर, हरिदास मूंदड़ा ने अपनी सफ़ाई में उल्टे एडी श्रॉफ़ द्वारा उसकी कंपनियों के शेयर्स ख़रीदने की बात कही. हालांकि श्रॉफ़ के पास इसे गलत साबित करने के लिए तथ्य थे जिनके चलते कोर्ट ने उनको दोषी नहीं माना. हरिदास मूंदड़ा बेहद शातिर दिमाग़ वाला इंसान था. पूरी सुनवाई के दौरान वह बड़ी शालीनता से पेश आता. जब कोर्ट ने उस पर सख्ती दिखाई तो उसने आखिरकार अपना अपराध क़बूल कर लिया.
 
उसने जो ख़ुलासे किये वे बेहद चौंकाने वाले थे. उसने बताया कि कलकत्ता स्टॉक मार्केट में उसकी कंपनी के काफ़ी शेयर्स थे. इस वजह से वहां का स्टॉक मार्केट दबाव में था. उसके इशारे पर कलकत्ता स्टॉक मार्केट के चेयरमैन ने वित्त सचिव को उसकी कंपनियों के शेयर्स ख़रीदने के लिए राज़ी किया था जिससे कलकत्ता स्टॉक मार्केट का भार कम हो सके. 24 जून, 1957 को जिस दिन यह ख़बर फैली कि एलआईसी मूंदड़ा कंपनियों के शेयर्स कलकत्ता स्टॉक मार्केट में ख़रीदने वाली है तो उनके दाम कई गुना बढ़ गए. इन्हीं बढ़े हुए दामों पर एलआईसी ने डील की थी. अपने बचाव पक्ष में टीटी कृष्णामचारी ने इस घटना से खुद को अलग दिखाने की कोशिश की जो नाकामयाब हुई.
 
जस्टिस छागला ने महज़ 24 दिनों में सुनवाई पूरी कर दी. अपनी रिपोर्ट ने उन्होंने हरिदास मूंदड़ा को जालसाज़ी के लिए ज़िम्मेदार माना. उसे दो साल की जेल की सज़ा सुनायी गयी. जस्टिस छागला ने वित्त मंत्री टीटी कृष्णामचारी, वित्त सचिव एचएम पटेल और एलआईसी के कुछ अफ़सरों पर भी मुकदमा चलाने की बात कही. नेहरू ने तत्काल ही कृष्णामचारी से इस्तीफ़ा मांग लिया. इस तरह इस घोटाले में न्याय की प्रक्रिया अपने अंजाम तक पहुंची.
 
== सन्दर्भ ==