"विद्युत जनित्र": अवतरणों में अंतर
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संयुक्त जनित्र में शंट एवं श्रेणी जनित्रों के बीच के लक्षण होते हैं। क्षेत्र कुंडली के शंट और श्रेणी वर्तों का व्यवस्थापन कर उनके बीच का कोई भी लक्षण प्राप्त किया जा सकता है। व्यवहार में संयुक्त जनित्रों का ही अधिक प्रयोग होता है।
चुंबकीय क्षेत्र में एकसमान वेग से घूमनेवाले चालक में जनित वोल्टता, चालक के चुंबकीय अभिवाह को काटने की गति पर निर्भर करती है। यह गति, वस्तुत:, किसी क्षण भी चालक के चुंबकीय अभिवाह के सापेक्ष स्थित पर निर्भर करती है। जब चालक एकसमान वेग से घूम रहा हो, तो वह एक चक्कर में दो बार अभिवाह के लंबवत् होगा और इस स्थिति में वह अधिकतम अभिवाह काटेगा, तथा जब वह कोई भी अभिवाह नहीं काटेगा, दो बार उसके समांतर होगा। इस प्रकार एक चक्कर में दो बार उसमें जनित वोल्टता शून्य और अधिकतम के बीच विचरण करेगी, जैसी चित्र ३. में दिखाया गया है। इस प्रकार के विचरण को प्रत्यावर्ती विचरण कहते हैं। आर्मेचर चालकों में भी इसी प्रकार की प्रत्यावर्ती वोल्टता जनित होती है और उसे दिष्ट रूप देने के लिए दिक्परिवर्तक (commutator) का प्रयोग किया जाता
दिक्परिवर्तक आर्मेचर के शाफ्ट पर ही आरोपित होता है। उसमें बहुत से ताम्रखंड (copper segments) होते हैं, जो एक दूसरे से विद्युतरुद्ध (insulated) होते हैं। आर्मेचर के वर्तन के अंत्यसंयोजन (end connection) इन खंडों से संयोजित होते हैं। दिक्परिवर्तक से संस्पर्श करनेवाले दो बुरुश होते हैं, जो आर्मेचर में जनित वोल्टता द्वारा प्रवाहित होनेवाली धारा को बाहरी परिपथ से संयोजित करते हैं। आर्मेचर चालकों का दिक्परिवर्तक से संयोजन इस प्रकार किया जाता है कि दोनों बुरुशों द्वारा इकट्ठी की जानेवाली धारा एक ही दिशा की होती है। इस प्रकार एक बुरुश धनात्मक धारा इकट्ठी करता है और दूसरा ऋणात्मक। इस आधार पर बुरुशों को भी धनात्मक एवं ऋणात्मक कहा जाता है। वस्तुत:, बुरुश विद्युत्धारा के टर्मिनल हैं, जो भार को जनित्र से संबद्ध करते हैं। ये बुरुशधारक (brush holder) पर आरोपित होते हैं और दिक्पविर्तक पर इनकी स्थिति बुरुश धारक द्वारा व्यवस्थापित की जा सकती है।
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