"वाल्मीकि": अवतरणों में अंतर

No edit summary
No edit summary
पंक्ति 18:
 
== आदि कवि वाल्मीकि का जीवन परिचय ==
वाल्मीकि रामायण महाकाव्य की रचना करने के पश्चात आदिकवि कहलाए। आदिकवि भगवान् वाल्मीकि आदिकाव्य श्रीमद्वाल्मीकिरामायण में स्वयं का परिचय देते हैं, वे किसी दस्यु कुलोत्पन्न नहीं थे, अपितु ब्रह्मर्षि भृगु के वंश में उत्पन्न ब्राह्मण थे । रामायण में भार्गव वाल्मीकि ने २४००० श्लोकों में श्रीराम उपाख्यान ‘रामायण’ लिखी ऐसा वर्णन है
 
'''“संनिबद्धं हि श्लोकानां चतुर्विंशत्सहस्र कम् ! उपाख्यानशतं चैव भार्गवेण तपस्विना !!" ( वाल्मीकिरामायण ७/९४/२५)'''
 
महाभारतमें भी आदिकवि वाल्मीकि को भार्गव (भृगुकुलोद्भव) कहा है, और यही भार्गव रामायण के रचनाकार हैं –
 
'''“श्लोकश्चापं पुरा गीतो भार्गवेण महात्मना ! आख्याते रामचरिते नृपति प्रति भारत !!" (महाभारत १२/५७/४०)'''
 
शिवपुराण में यद्यपि उनको जन्मान्तर का चौर्य वृत्ति वाला बताया है तथापि वे भार्गव कुलोत्पन्न थे। भार्गव वंश में लोहजङ्घ नामक ब्राह्मण थे, उन्ही का दूसरा नाम ऋक्ष था । ब्राह्मण होकर भी चौर्य आदि कर्म करते थे और श्रीनारदजी की सद् प्रेरणा से पुनः तप द्वारा महर्षि हो गये ।
'''“भार्गवान्वयसम्भवः !! लोहजङ्घो द्विजो ह्यासीद् ऋक्षनामोन्तरो हि स: ! ब्राह्मीं वृत्तिं परित्यज्य चोर कर्म समाचरेत् ! नारदेनोपदिष्टस्तु तपोनिष्ठां समाश्रितः !!"'''
इत्यादि वचनों से भृंगु वंश में उत्पन्न लोहजगङ्घ ब्राह्मण जिसे ऋक्ष भी कहते थे, ब्राह्मण वृत्ति त्यागकर चोरी करने लगा था, फिर नारदजी की प्रेरणा से तप करके पुनः ब्रह्मर्षि हो गये । २४वें त्रेतायुग में भगवान् श्रीराम हुए तब रामायण की रचना कर आदिकवि के रूप में प्रसिद्ध हुए। विष्णुपुराण में इन्हीं भृगुकुलोद्भव ऋभु वाल्मीकि को २४वें द्वापरयुग में वेदों का विस्तार करने वाले २४वें व्यासजी कहा है –
'''“ऋक्षोऽभूद्भार्गववस्तस्माद्वाल्मीकिर्योऽभिधीयते (विष्णु०३/३/१८) ।"''' यही भार्गव ऋभु २४वें व्यासजी पुनः ब्रह्माजी के पुत्र प्राचेतस वाल्मीकि हुए । श्रीमद्वाल्मीकिरामायण में वाल्मीकि भगवान् श्रीरामचन्द्र को अपना परिचय देते हैं –
'''“प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघवनन्दन !" (वाल्मीकिरामायण ७/९६/१८)'''
स्वयं को प्रचेता का दसवाँ पुत्र वाल्मीकि कहा है । ब्रह्मवैवर्तपुराण में कहा है –
'''"कति कल्पान्तरेऽतीते स्रष्टु: सृष्टिविधौ पुनः ! य: पुत्रश्चेतसो धातु: बभूव मुनिपुङ्गव: !! तेन प्रचेता इति च नाम चक्रे पितामह: !"'''
– अर्थात् कल्पान्तरों के बीतने पर सृष्टा के नवीन सृष्टि विधान में ब्रह्मा के चेतस से जो पुत्र उत्पन्न हुआ, उसे ही ब्रह्मा के प्रकृष्ट चित्त से आविर्भूत होने के कारण प्रचेता कहा गया है ।
 
इसीलिए ब्रह्मा के चेतस से उत्पन्न दशपुत्रों में वाल्मीकि प्राचेतस प्रसिद्ध हुए ।
मनु स्मृति में वर्णन है ब्रह्माजी ने प्रचेता आदि दश पुत्र उत्पन्न किये –
'''“अहं प्रजाः सिसृक्षुस्तु तपस्तप्त्वा सुदुश्चरम् ! पतीत् प्रजानामसृजं महर्षीनादितो दश !! मरीचिमत्र्यङ्गिरसौ पुलसत्यं पुलहं क्रतुम् ! प्रचेतसं वसिष्ठं च भृगुं नारदमेव च !!" (मनु०१/३४-३५)''' भगवान् वाल्मीकि जन्मान्तर में भी ब्राह्मण (भार्गव) थे और आदिकवि वाल्मीकि के जन्म में भी (प्राचेतस) ब्राह्मण थे !
शिवपुराण में कहा है प्राचेतस वाल्मीकि ब्रह्मा के पुत्र ने श्रीमद्रामायण की रचना की ।
'''”पुरा स्वायम्भुवो ह्यासीत् प्राचेतस महाद्युतिः ! ब्रह्मात्मजस्तु ब्रह्मर्षि तेन रामायणं कृतम् !!”'''
 
एक बार वाल्मीकि एक [[क्रौंच|क्रौंच]] पक्षी के जोड़े को निहार रहे थे। वह जोड़ा प्रेमालाप में लीन था, तभी उन्होंने देखा कि बहेलिये ने प्रेम-मग्न क्रौंच (सारस) पक्षी के जोड़े में से नर पक्षी का वध कर दिया और मादा पक्षी विलाप करने लगी। उसके इस विलाप को सुन कर वाल्मीकि की करुणा जाग उठी और द्रवित अवस्था में उनके मुख से स्वतः ही यह श्लोक फूट पड़ा।
Line 58 ⟶ 37:
महर्षि वाल्मीकि को "श्रीराम" के जीवन में घटित प्रत्येक घटना का पूर्णरूपेण ज्ञान था।
 
== सतयुग, त्रेता और द्वापर तीनों कालों में वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है वो भी वाल्मीकि नाम से ही। रामचरितमानस के अनुसार जब राम वाल्मीकि आश्रम आए थे तो वो आदिकवि वाल्मीकि के चरणों में दण्डवत प्रणाम करने के लिए जमीन पर डंडे की भांति लेट गए थे और उनके मुख से निकला था "तुम त्रिकालदर्शी मुनिनाथा, विस्व बदर जिमि तुमरे हाथा।" अर्थात आप तीनों लोकों को जानने वाले स्वयं प्रभु हो। ये संसार आपके हाथ में एक बेर के समान प्रतीत होता है।<ref>{{cite book |title=सहरिया |date=2009 |publisher=वन्या [for] आदिम जाति कल्याण विभाग |url=https://books.google.co.in/books?id=M1xQAQAAMAAJ&q=%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF+%E0%A4%AD%E0%A5%80%E0%A4%B2+%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF+%E0%A4%95%E0%A5%87&dq=%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%8D%E0%A4%AE%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A4%BF+%E0%A4%AD%E0%A5%80%E0%A4%B2+%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A4%BF+%E0%A4%95%E0%A5%87&hl=en&sa=X&ved=0ahUKEwiQtqrjwbfcAhXMK48KHby6D3EQ6AEIOzAD |accessdate=24 जुलाई 2018 |language=hi}}</ref>
 
महाभारत काल में भी वाल्मीकि का वर्णन मिलता है। जब पांडव कौरवों से युद्ध जीत जाते हैं तो [[द्रौपदी]] यज्ञ रखती है, जिसके सफल होने के लिये शंख का बजना जरूरी था परन्तु कृष्ण सहित सभी द्वारा प्रयास करने पर भी पर यज्ञ सफल नहीं होता तो [[कृष्ण]] के कहने पर सभी वाल्मीकि से प्रार्थना करते हैं। जब वाल्मीकि वहां प्रकट होते हैं तो शंख खुद बज उठता है और द्रौपदी का यज्ञ सम्पूर्ण हो जाता है। इस घटना को [[कबीर]] ने भी स्पष्ट किया है "सुपच रूप धार सतगुरु आए। पांडों के यज्ञ में शंख बजाए।"{{cn}}