"पृथ्वीराज चौहान": अवतरणों में अंतर
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पृथ्वीराज विजय महाकाव्य में तिलोत्तमा नाम से, पृथ्वीराज रासो काव्य में संयोगिता नाम से, सुरजन चरित महाकाव्य में 'कान्तिमति' नाम से संयोगिता का उल्लेख मिलता है। संयोगिता का उल्लेख रम्भामञ्जरी महाकाव्य में और हम्मीर महाकाव्य में प्राप्त नहीं होता। संयोगिता का हरण इतिहास की महत्त्वपूर्ण घटना थी।
उस समय पृथ्वीराज की वीरता की प्रशंसा चारो दिशाओं में हो रही थी। एक बार संयोगिता ने पृथ्वीराज की वीरता का और सौन्दर्य का वर्णन सुना। उसके पश्चात् वो उन्हें प्रेम करने लगी। दूसरी ओर संयोगिता के पिता जयचन्द ने संयोगिता का विवाह स्वयंवर माध्यम से करने की घोषणा कर दी। जयचन्द ने [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेधयज्ञ]] का आयोजन किया था। उस यज्ञ की परिसमाप्ति पर संयोगिता के स्वयंवर का मुहूर्त था। जयचन्द अश्वमेधयज्ञ करके भारत पर स्वप्रतिष्ठा का इच्छा रखता था। परन्तु पृथ्वीराज ने उसका विरोध किया था। अतः जयचन्द ने पृथ्वीराज को स्वयंवर में आमंत्रित नहीं किया और उसने द्वारपाल के स्थान पर पृथ्वीराज की प्रतिमा स्थापित कर दी। दूसरी ओर जब संयोगिता ने जाना कि, पृथ्वीराज स्वयंवर में अनुपस्थित रहेंगे, तो उसने [https://www.amojeet.com/2019/12/Prithviraj-Chauhan.html पृथ्वीराज] को बुलाने के लिये दूत भेजा। संयोगिता मुझे प्रेम करती है ये जान कर पृथ्वीराज ने कन्नौज नगर की ओर प्रस्थान किया।
अश्वमेधयज्ञ के पश्चात् स्वयंवरकाल में जब संयोगिता हाथ में वरमाला लिये उपस्थित राजाओं को देख रही थी, तब द्वार पर स्थित पृथ्वीराज की मूर्ति को उसने देखा। संयोगिता ने मूर्ति के समीप जा कर वरमाला पृथ्वीराज की मूर्ति के कण्ठ में पहना दी। उसी क्षण प्रासाद में अश्वारूढ पृथ्वीराज प्रविष्ट हुए। उन्होंने सिंहनाद के साथ सभी राजाओं को युद्ध के लिये ललकारा। उसे पश्चात् संयोगिता को ले कर इन्द्रपस्थ (आज दिल्ली का एव भाग है) प्रस्थान कर गये। मार्ग में जयचन्द को पराजित कर के, [[मुहम्मद घोरी]] (ग़ोरी) को बन्दी बना कर पृथ्वीराज संयोगिता के साथ इन्द्रपस्थ पहुंचे। जयचन्द तो अपने अपमान के प्रतिशोध का वैरोद्धार करने के लिये पृथ्वीराज के साथ युद्ध किया। परन्तु मुहम्मद घोरी ने जब जाना कि, पृथ्वीराज कन्नौज नगर कि ओर जा रहे हैं, तब पृथ्वीराज को पराजित करने के लिये उसने मार्ग में अवरोध उत्पन्न किया था। पृथ्वीराज ने न केवल मुहम्मद घोरी को पराजित किया, अपि तु उस को बन्दी बना कर इन्द्रप्रस्थ भी ले गये। <ref>{{Cite book|author=डॉ॰ बिन्ध्यराज चौहान|title=दिल्लीपति पृथ्वीराज चौहान एवं उनका युग|publisher=राजस्थानी ग्रन्थागार| isbn=978-81-86103-09-1|year=2012|page=१११-१२६ }}</ref>
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