"परमार भोज": अवतरणों में अंतर

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राजा भोज से सम्बन्धित अनेक कथाएँ हैं। [[अलबेरूनी]] ने अपने भ्रमण वृत्तान्त में एक अद्भुत कथा लिखी है । वह लिखता है कि 'मालवे की राजधानी धार में , जहाँ पर इस समय भोजदेव राज्य करता है , राज-महल के द्वार पर, शुद्ध चांदी का एक लंबा टुकड़ा पड़ा है । उसमें मनुष्य की आकृति दिखाई देती है । लोग इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाते हैं' - "प्राचीन काल में किसी समय एक मनुष्य कोई विशेष प्रकार का रासायनिक पदार्थ लेकर वहाँ के राजा के पास पहुँचा । उस रासायनिक पदार्थ का यह गुण था कि उसके उपयोग से मनुष्य अमर , विजयी , अजेय और मनोवाञ्छित कार्य करने में समर्थ हो सकता था । उस पुरुष ने , राजा को उसका सारा हाल बतला कर , कहा कि आप अनुक समय अकेले आकर इसका गुण आजमा सकते हैं । इस पर राजा ने उसकी बात मान लीं और साथ ही उस पुरुष की चाही हुई सब वस्तुऐं एकचित्र कर देने की , अपने कर्मचारियों को आज्ञा दें दी । इसके बाद वह पुरुष कई दिनों तक एक बड़ी कड़ाही में तेल गरम करता रहा । और जब वह गाड़ा हो गया तब राजा से बोला कि , अब आप इस में कूद पड़ें , तो मैं बाकी की क्रियाएँ भी समाप्त कर डालू । परन्तु राजा की उसके कथनानुसार जलते हुए तेल में कूदने की हिम्मत न हुई । यह देख उसने कहा कि , यदि आप इसमें कूदने से डरते है , तो मुझे आने दीजिये ताकि मैं यह सिद्धि प्राप्त कर लू । राजा ने यह बात मान ली । इस पर उस पुरुष ने औषधियों की कई पुड़ियाँ निकाल कर राजा को दी और समझा दिया कि इस इस प्रकार के चिह्न दिखाई देने पर वे अन्य पुड़िया तेल में डाल दे । इस प्रकार राजा को समझा बुझाकर वह पुरुष उस कड़ाही में कूद पड़ा और क्षण भर में ही गलकर एक गाढ़ा तरल पदार्थ बन गया । राजा भी उसकी बतलाई विधि के अनुसार एक एक पुड़िया उसमें डालने लगा । परन्तु जब बह एक पुड़िया को छोड़कर बाकी सारी की सारी पुड़ियाएँ डाल चुका तब उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ कि , यदि वास्तव में ही यह पुरुष अमर , विजयी , और अजेय होकर जीवित हो गया , तो मेरी और मेरे राज्य की क्या दशा होगी । ऐसा विचार उत्पन्न होते ही उसने वह अन्तिम पुड़िया तेल में न डाली । इससे वह कड़ाही ठंडी हो गई और वह घुला हुआ पुरुष चांदी के उपर्यत टुकड़े के रूप में जम गया ।"<ref>राजा भोज. श्रीयुत विश्वेश्वरनाथ रेउ. पृ. 125.इलाहाबाद.हिंदुस्थानी एकेडेमी, यु. पी.1932.</ref>
==साम्राज्य==
'''भोज का साम्राज्य''' : भोज का विक्रम संवत १०७८ या १०२१ ई. में मात्र २० वर्षो बाद , ४० - ४१ वर्ष की आयु में ''मालवसम्राट परमभट्टारक महाराजाधिराज परमेश्वर त्रिभुवन चक्रवर्ती'' के सर्वोच्च सर्वभौम पद पर राजतिलक हुआ । भोज ने अपने सेनापति कुलचंद्र तथा सुरादित्य के साथ अपने राज्य की सीमा उत्तर में हिमालय अर्थात् [[काश्मीर]] तक तथा दक्षिण में मलय या [[केरल]] और पश्चिम में [[द्वारका]] एवं पूर्व में [[बंगाल]] तक विस्तारित की थी। पी . टी . श्रीनिवास अयंगार , भोज का राज्य गोदावरी तथा यमुना तक तथा डी . सी . गांगुली , भोज का राज्य उत्तर में [[बांसवाडा]] , डुंगुरपुर तक , दक्षिण में [[गोदावरी]] तक तथा पश्चिम में [[कैरा]] जिले तक विस्तृत मानते हैं । डॉ . दशरथ शर्मा अनुसार [[गुजरात]] का [[अहमदाबाद]] तक का भाग , मालवा , बहुतांश राजस्थान , मध्यभारत का अधिकांश भाग , बस्तर भाग तथा [[महाराष्ट्र]] के [[कोंकण]] , [[खानदेश]] और [[विदर्भ]] उसके साम्राज्य में सम्मिलित था । अतः भोज सार्वभौम राजा था । मालवचक्रवर्ती बन चुका था । उसने अनेक छोटे - बड़े राजाओंको पराजित कर अपने राज्यक्षेत्र की सीमाओं में वृद्धि की थी । परिणाम स्वरुप भोज ने अपने पैतृक राज्य के रुप में केवल [[मालवा]] प्राप्त किया था जिसे उसने विशाल साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया वह ८४ सामंतों या मांडलिक राजाओं का स्वामी था । उसने ८४ उपाधियाँ ग्रहन की थी । ८४ [[ग्रंथ]] लिखे । धार में ८४ प्रासाद , [[देवालय]] तथा चौराहे बनाए । <ref> चक्रवर्ती राजा भोज.पृ. २१.डॉ. ज्ञानेश्वर टेंभरे.Msc. Ph.d.२०१५.श्री गजानन इंटरप्राइजेस-21.सुरेंन्द्रनगर.नागपुर-15. 2015. भारत. ISBN: 978-935142-832-9 </ref>
[[उदयपुर]] की ग्वालियर प्रशस्ति में लिखा है कि सम्राट भोज का राज्य उत्तर में [[हिमालय]] से, दक्षिण में मलयाचल तक और पूर्व में उदयाचल से पश्चिम में अस्ताचल तक फैला हुआ था। इस सम्बन्ध में निम्न श्लोक इस प्रकार है -
'''आकैलासान्मलयर्गिरतोऽ स्तोदयद्रिद्वयाद्वा।'''