"परमार भोज": अवतरणों में अंतर

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भोज की स्मृतियाँ राजा भोज ने [[धार]] नगर को अपनी राजधानी बसाने का गौरव प्राप्त किया था । चहुंओर तालाबों से घिरे होने से कवि [[पद्मगुप्त परिमल]] ने नवसाहसांक चरित में इस नगरी की [[लंकापुरी]] तथा कुबेर की [[अल्कापुरी]] से तुलना कर डाली है । यह नगरी प्रमार या पंवारों की आदि भूमि हैं । विद्वानों के आश्रयदाता , कलाकारों के कल्पतरू , सरस्वती देवी के उपासक पवार नृपतियों की यह प्राचीन राजधानी आज भी अपने सौंदर्यमय प्राकृतिक दृश्य के लिये अद्वितीय है । अतीत के वैभव चिन्ह , मध्यकालीन स्मारक तथा भग्नावशेष यात्रियों के मन को लुभा लेते हैं । यहाँ पर अनेक भोज कालीन दर्शनीय स्थान हैं उनका वर्णन सामने किया गया है ।
===धारागिरी दुर्ग===
यह एक प्रसिद्ध किला है। धार नगर से बाहर उत्तर - पूर्व की ओर नगर की प्राचीन दीवार और खाई के दूसरी ओर धार - इन्दौर सडक पर धार का प्राचीन दुर्ग है । संभव है परमारों के समय भी यह दृढ़ अजेय दुर्ग रहा होगा । इसका प्रवेश द्वार विशाल और मार्ग घुमावदार है । प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में इसे ' धारा गिरी ' कहा गया है । धार की राजसभा में खेले गये संस्कृत नाटक “ पारिजात - मंजरी " में इस किले का वर्णन ' धारागिरी लिलोद्यान ' नाम से हुआ है । मालवा के सुल्तानों के समय यह दुर्ग सेना का प्रमुख केन्द्र था । इसका वर्तमान स्वरूप मोहम्मद तुगलक के समय ( १३२५ - ५१ ई . ) में ही बनाया गया । उँची भूमि पर बने इस किले के चारों और तीन मीटर लाल पत्थर की दीवार है । जिसमें कई बुर्ज है । सबसे बड़े और सामरिक महत्व लक्ष्मीबुर्ज पर राष्ट्रीय झण्डा फहरता है । पहले किले के चारों और सुरक्षा हेतु गहरी खाई थी । जिसमें मुंज तालाब से पानी भरा जाता था पर १८९९ई . में खाई भरकर आंनद महाविद्यालय व मसीह अस्पताल बनाया गया । इसका प्रवेशद्वार भव्य व मार्ग घुमावदार है । प्रवेश द्वार के अतिरिक्त तीन और बड़े द्वार है । एक प्रवेश द्वार पर गणेश मूर्ती अंकित है और समीप ही देवालय भी है । तीसरे प्रवेश द्वार पर लोहा पट्टी पर फर्शी में छोटा सा शिलालेख अंकित है , जिससे पता चलता है कि औरंगजेब के सत्ताईसवें वर्ष १६८३ - ८४ ई . में इसे पुनःनिर्मित किया गया था । इसी प्रवेश द्वार पर बंदीछोड की कब्र है । लोकधारणा है की नवविवाहित बन्दी दम्पत्तियों को मकबूल नामक एक सैनिक ने अपनी माता की आज्ञा से मुक्त कर दिया था व स्वयं लडते हुए मारा गया था । उसका सिर दुर्ग में कटा और धड १८३ मीटर दूर गिरा जहां आज एक ओर कब्र बनी है । प्रवेश द्वार की बनावट सिद्ध करती है कि इसका कुछ अंश नष्ट होने के बाद में बना । प्रवेश द्वारों की छत पर प्राचीन काल के रंगीन और बेलबुटे आकृतियां है । जिनकी कुछ अंश आज भी विद्यमान है । प्रवेशद्वारों के समीप के घुमाव व मोटी ऊंची दीवारें किले की दृढ़ सुरक्षा की द्योतक है । प्रवेशद्वार पर प्राचीन काल की भव्य तोपें रखी हैं । बहारी दीवाल के अतिरिक्त भीतर मोटी दीवारे है जिसके एक भाग पर दाहिनी और राजमहल बना है , जिसमें १० जनवरी १७७४ को पेशवा बाजीराव द्वितीय का जन्म हुआ था । यहाँ उनके खेलने हेतु निर्मित छोटी कुंइयां व फिसलपट्टी आज भी विद्यमान है । इस दीवार पर तोप के गोलों के निशान मौजूद है । किले के प्रवेशद्वार के आगे बांयी ओर तीन मंजिला राजप्रासाद है जिसमें विशाल सभागृह भी है । इस महल की महराबें स्तम्भ और दीवारें परमार कालीन प्रतीत होती हैं , क्योंकि ये परमार कालीन भवनों के समान लाल पत्थरों से निर्मित हैं । इसके पीछे राजमहल है जो शायद रानीवास रहा होगा । मराठा काल में इस राजमहल में परिवर्तन किया गया । यह किले के भीतरी उँचे परकोटें पर बना है । इसमें बुर्ज और झरोखे हैं जहां से सम्पूर्ण धार नगर व आसपास का क्षेत्र विहंगम दृष्टि से देखा जा सकता है । इस महल समीप किले परकोटे और बुर्ज पर तोपें रखने के स्थान हैं । इस महल से कुछ दूरी पर किले से बहार आने का गुप्त मार्ग बना है । जिसका प्रवेश द्वार आज भी है । सन् १८५७ में अग्रेजों से हारकर सैनिक अधिकारी इन्ही गुप्त मार्गों से निकले थे । इसका उल्लेख अंग्रेजी अधिकारियों ने किया है । किले के परकोटे किले के परकोटे से
लगे हुए उत्तर में दो बड़े विशाल कमरे है तथा सैनिकों के रहने के लिए अन्य भवन हैं । इसी क्षेत्र में बारूद भरने के लिए तलघरी भी है । इससे आगे पूर्व की और दुर्ग में उंची दीवारों वाला एक भवन था जिसे धार राज्य ने जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया । इस भवन के पीछे दूर्ग में विशाल बावड़ी है , जिसके अन्दर रहने और विश्राम करने के चार मंजिलों तक विशाल कमरे और बरामदे बने हैं जिनमें कलापूर्ण मेहराबे और स्तम्भ है । पाषाण निर्मित इस बावडी में प्रवेश हेतु चौडी सीढियां हैं । मध्ययुग में और सन १८५७ में भी जब कभी इस दुर्ग पर आक्रमण हुए है और उसे शत्रुओं को सौंप देने के अवसर आये तब किले के अस्त्र - शस्त्र और तोपें इसी बावडी में डाल दिये गये थे ।
लगे हुए उत्तर में दो बड़े विशाल कमरे है तथा सैनिकों के रहने के लिए अन्य भवन हैं । इसी क्षेत्र में बारूद भरने के लिए तलघरी भी है । इससे आगे पूर्व की और दुर्ग में उंची दीवारों वाला एक भवन था जिसे धार राज्य ने जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया । इस भवन के पीछे दूर्ग में विशाल बावड़ी है , जिसके अन्दर रहने और विश्राम करने के चार मंजिलों तक विशाल कमरे और बरामदे बने हैं जिनमें कलापूर्ण मेहराबे और स्तम्भ है । पाषाण निर्मित इस बावडी में प्रवेश हेतु चौडी सीढियां हैं । मध्ययुग में और सन १८५७ में भी जब कभी इस दुर्ग पर आक्रमण हुए है और उसे शत्रुओं को सौंप देने के अवसर आये तब किले के अस्त्र - शस्त्र और तोपें इसी बावडी में डाल दिये गये थे । २ . भोजशाला , धार सरस्वती उपासक महाराजा भोज द्वारा निर्मित सदन या सरस्वती मंदिर भी कहते है । इसकी लम्बाई २०० फीट तथा चौड़ाई ११७ फीट है । यह मजबूत पत्थरों का बना है । यह इमारत ११वी शताब्दी में बनी है परंतु जैसी की वैसी खड़ी है । फर्श के पत्थरों पर तथा स्तम्भोंपर जो संस्कृत से लिखावट थी उसे मुसलमानों ने कालांतर में लोहे की छेनी द्वारा ध्वंस कर डाला है । इस विख्यात विद्यालय में अनेकनाटक , व्याकरण , वर्ण चरित्र आदि शीलाओं पर अंकित थे जिनमें से दो शिला लेखों को सुरक्षित रखा गया है तथा उन्हें लकड़े के फ्रेम में जड़कर दिवारों के सहारे रखा गया है । इन पर अत्यन्त उत्कृष्ट देवनागरी लिपि में ( 9 ) कुर्म शतक तथा ( २ ) विजय श्री या पारिजात मंजरी नामक नाटिका के प्रथम दो अंक खुदे हैं । कुर्मावतार के दो शतक की ८३ पंक्तियां सुरक्षित हैं । केवल २६ वी तथा ३८ वीं पक्तियों के प्रारंभिक अंश खंडित हैं । प्रथम शतक के अंत में “ इति श्री महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव विरचितम् अवनि कुर्म शतकम् " लिखा है जिससे यह स्वयं भोजदेव द्वारा रचित सिद्ध होता है । दुसरे शतक में भोजदेव के अधिक गुणगान देखकर यह प्रतीत होता है कि वह उनके किसी आश्रित कवि की रचना है । विजयश्री नाटिका श्याम शिला पर अंकित है । इसमें उक्त नाटिका के प्रथम दो अंक वसंतोत्सव तथा तांडवदर्पण खुदे है । उक्त नाटिका परमार वंशीय अर्जुनदेव के आश्रित मदन द्वारा रचित है । इस भोजशाला के गुंबज तथा खम्भों का अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि फर्शी के पत्थरों पर संस्कृत की अनेक रचनाओं पर टांची द्वारा नष्ट विनाश कृत्ति के चिन्ह हैं । दो स्तंभों पर संस्कृत में धातु प्रत्यय माला तथा वर्ण माला नागबद्ध चित्र के रूपांक अंकित हैं । इस शारदा सदन के भीतरी भाग में चारों तरफ पत्थर के बने हुए सुंदर स्तंभ विराजमान हैं तथा प्रवेश द्वार के समक्ष खड़े होने पर भोज शाला की सुंदरता एवं सुदृढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है । यह शारदा सदन हमारे पवार वंशजों के निपुण साहित्य सेवा का स्मरण दिलाता है परंतु इस सदन पर विदेशियों ने समय समय पर जो आघात किये हैं उन्हें सुनकर या पढ़कर व प्रत्यक्ष आँखों से निरिक्षण करने पर हमारे रोमांच खड़े हो जाते हैं तथा खून उबल जाता है क्योंकि इस शारदा सदन को मुसलमानों ने १२वीं व १३ वी शताब्दि में एक मस्जिद का स्वरूप दे दिया है व इसे कमालुद्दीन का मस्जिद के नाम से संबोधित किया जाता है । प्रवेश द्वार के सामने जो इमारत का पार्श्वभाग है उसके बीचोबीच एक पत्थर का बना हुआ मंदिरनुमा गुंबज की छत्रछाया में एक भोजकालीन सुंदर व विशाल पाषाण की सरस्वती देवी की मूर्ति स्थापित थी जिसे अंग्रेजों ने लंदन के संग्रहालय में ले जाकर रखा है । इस मूर्ति का निर्माण राजा भोज ने विक्रम संवत् १०९४ में याने सन १०३५ में मनथाल नामक श्रेष्ठ मुर्तिकार द्वारा निर्माण करवाया था । मूर्ति के चार हाथ हैं । सिर पर मुकुट है तथा मुद्रा ध्यान में मग्न है । इस भव्य मूर्ति के बनावट में उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के शिल्पकला एवं मूर्तिकला का सुंदर सामंजस्य मिलता है । कुछ विद्वानों द्वारा इस मुर्ति को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न किये जा रहे हैं तथा जिस दिन यह मूर्ति इस देश को पुनः प्राप्त होगी वह दिन मालवमहि के लिये अत्यंत शुभ होगा । _ _ इस भोजशाला के प्रवेश द्वार के एक बाजु मौलाना कमालुद्दीन के कब्र के पास एक छोटीसी कुइया है जिसे सरस्वती कूप कहते है । आजकल जन साधारण इसे अक्कल कुई भी कहते है । अभी भी लोगों की धारणा है कि इस कुइया का जल पीने से मनुष्य विद्या प्रेमी होकर सरस्वती का उपासक बन जाता है । उपयुक्त साहित्यिक कृत्तियों को देखकर यात्री के मन पर सरस्वती के उपासक मालवमहि के स्वर्ण युग के निर्माता नरेशों के विद्या प्रेम का अमिट प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । इस भोजशाला को शारदा सदन या सरस्वती मंदिर इसलिये कहते है कि इसी स्थान पर राजा भोज , उनके विद्याप्रेमी वंशज तथा अन्य आश्रय प्राप्त विद्वानों ने राज्य भाषा संस्कृत की अद्वितीय सेवायें की थी । संस्कृत साहित्य का पनरूत्थान किया गया था एवं तत्कालीन संस्कृत साहित्य का प्रगति का आभास हमें आज भी इस सदन में स्थित प्रत्येक पत्थर से विदित होता है । मुसलमानी शासन काल में इस भोजशाला में एवं अन्य स्थानीय भवनों में अनेक परिवर्तन किये गये । सन १४५७ में महमूद खिलजी प्रथम के समय इसके मूल रूप को अन्य रूप में परिवर्तित कर दिया गया था । खिलजी प्रथम मौलाना कमालुद्दीन का अनुयायी था इसी कमालुद्दीन के नाम पर भोजशाला को कमाल मौलाना मस्जिद कहते है । इस भवन में हर शुक्रवार को मुसलमान लोग नमाज पढ़ते हैं । इस भवन के प्रवेश द्वार के दोनों ओर कब्र खड़ी कर दी गई है तथा इसे आर्चियालॉजिकल पुरातत्त्व मुहकमें ने अपने संरक्षण में ले लिया है । जब हम परमारकालीन संस्कृत साहित्य के सेवाओं का मनन व चिंतन करते है तथा पवार राजाओं द्वारा निर्मित शारदा सदन का मल रूप में चिंतन करते हैं तथा जब उनपर किये गये कुठाराघात का चित्र अपने आँखों के समक्ष लाते हैं तो हमारी आँखे अश्रु प्रवाह करने लगती है । क्या हम यह उपेक्षा करें कि जो शारदा सदन को मस्जिद का स्वरूप दिया गया है उस स्थान पर पुनःसाहित्य प्रगति हेतु कार्यक्रम संपन्न कराने की स्वतंत्रता प्राप्त हो । ३ . राज - मार्तन्ड , धार यह दर्शनीय स्थान धार शहर के दक्षिण - पूर्व कोने में नगर के बाहर स्थित है । इसमें पहुँचने के लिये दो द्वार है । पहिला द्वार पूर्व की ओर है तथा दूसरा उत्तर की ओर है । यह इमारत वर्गाकार पत्थरों के स्तंभो पर स्थित है । इसका मध्य भाग ग्यारह ग्यारह स्तंभो पर स्थित है तथा आप किसी भी ओर से स्तंभो की पंक्तियां मिलाते हुए खड़े हो जायें तो यह भाग अति सुंदर दृष्टि गोचर होता है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकारों ने सुडौलपन ( सिमेट्री ) का ध्यान रखते हुए इसे बनाया है । मुख्य प्रवेश द्वार के सामने के पार्श्वभाग में एक गुंबज बना है तथा इसी के निचे पवार राजाओं का सिंहासन रहा करता था । इस स्थान के दोनों तरफ पत्थरों के स्तंभो पर खड़ी दो मजला बैठके बनी है तथा यहां अधीनस्थ राजाओं को स्थान दिया जाता था । इस स्थान पर लगभग ५०० व्यक्ति बैठ सकते है । स्तंभों का निरिक्षण करने पर हम मध्यकालीन शिल्प कला का अनुमान लगा सकते है । पूर्व के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहत ही महत्त्व है । मुसलमान आक्रमनकारियों ने उसपर अंकित कर दिये हैं जिससे यह प्रतीत हो कि यह मुसलमानों द्वारा बनाया गया है परंतु याद रखे कि इस इमारत को राजा भोज ने ही ११ शताब्दि में बनाया था क्योंकि जिस शिल्पकला का सामंजस्य भोजशाला में दिखने मिलता है वही इस भव्य इमारत में भी दृष्टिगोचर होता है । यह इमारत भोजशाला से अधिक सुंदर शोभायमान , तथा विस्तीर्ण है तथा दिखावट में भव्य एवं विशाल है । इस राज - मार्तन्ड के समीपस्थ एक लोहे की लाट तीन टुकडों में पड़ी हई है जिसका वर्णन सामने किया गया है । इसी लाट के कारण इसे लाट मस्जिद कहते है । इसके पूर्व की ओर तालाब नुमा गड्ढा है तथा कुछ दूर पर पहाड़ी सी नजर आती है तथा यह स्थान प्राकृतिक दृश्य के लिये अति उत्तम है । महाराजाधिराज भोज ने ११वी शताब्दि में भारतवर्ष के अनेक नरेशों को युद्ध में पराजित कर अपना साम्राज्य धार के चहओर ( चौतरफा ) स्थापित किया था । उन्होंने त्रिपुरी के राजा चेदिराज गांगलदेव की पराजित कर इस लोहे की लाट को धारा नगरी में लाकर तीन पत्थरों के बीच खड़ी कर उसे विजय - स्तंभ का रूप दिया था । यह लाट लोहा एवं दिगर धातुओं के मिश्रण से बनी हुई प्रतीत होती है क्यों कि अनेक शताब्दियों की वर्षा , धूप , वायू शीत इत्यादि के आघात को सहन करती हुई वह जैसी की तैसी पड़ी हुई है तथा प्रकृति का इस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है । यह ५० फूट लंबी है लेकिन इसके तीन टुकड़े कर दिये गये हैं । इसका वजन ७ टन के लगभग है । वर्तमान में कहावत प्रचलित है कहां राजा भोज और कहां गांगली तेलिन तथा यह तत्कालीन कहावत कहां राजा भोज और कहां गांगय तेलंग का अपभ्रंश है । इस लोह स्तंभ को सुल्तान बहादुर शाह गुजरात ले जाना चाहता था । उक्त प्रयत्न में इसके तीन टुकड़े कर दिये गये लेकिन फिर भी इसे नहीं ले जा सके । सम्राट एवं मुगल बादशाह जहांगीर इसके एक टुकड़े को आगरा ले जाना चाहते थे परन्तु किसी कारण वश वह उसे नहीं ले जा सके । इस पर फारसी भाषा में एक लेख अंकित है जिसमें सम्राट अकबर के दक्षिण जाते समय दिनांक ५ - २ - १६00 ई . मे यहां ठहरने का उल्लेख है । यह लाट , राज मार्तंड जिसे लाट मस्जिद कहते हैं उससे लगभग ५० फुट की दूरी पर पड़ी है तथा इसी लाट के सबब राज - मार्तंड को लाट मस्जिद कहा जाता है । ४ . कालिका देवी का मन्दिर धारा नगरी के पश्चिम की ओर कमल के फूलों से सुसज्जित देवी सागर नामक एक तालाब है तथा उसीके निकट ही एक टेकड़ी पर बनी हई परमार राजाओं की आराध्य देवी का कालिका देवी नामक मंदिर है जहाँ पहुंचने के लिये लाल पत्थरों की बनी हुई १४८ सीढ़ियां है । इस मंदिर में काली देवी की मूर्ति विराजमान है । इस मंदिर के संचालन के लिये मराठा राजा की ओर से एक पुजारी तैनात है तथा मय संगीन बंदूक के संरक्षक भी नियुक्त हैं । दशहरा त्यौहार के अवसर पर मराठा राजा तथा उनका परिवार इस मंदिर में अपनी आराध्य देवी या इष्ट देवी का दर्शन करने अवश्य जाते हैं तथा इसके उपरांत वे शहर में स्थित दुर्गा देवी के मंदिर में पूजन के लिये जाते हैं इस मंदिर की परिक्रमा करने पर धारा नगरी का संपूर्ण दृश्य यहां से दिखलाई देता है तथा इस नगरी के सौंदर्य तथा रमणीयता का अनुमान यहां से लगाया जा सकता है । देवी सागर से लगा हआ महाराजा वाक्पति मुंजदेव का बनाया हुवा मुंज सरोवर है तथा उसके समीप ही धारेश्वर का मंदिर है । धारा नगरी बहुत से तालाबों से चहुं ओर घिरी है । प्रत्येक तालाब के समीप बड़े बड़े वृक्ष हैं . तथा इस नगरी की प्राकृतिक छटा को सुशोभित करने में सहायक हैं । ५ . भोजनाथ ( शिव ) मंदिर भोजनाथ ( शिव ) मंदिर , भोजपुर भोजपुर ग्राम मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से १८ मील की दूरी पर दक्षिण दिशा को स्थित है तथा आबेदुल्ला गंज तथा मंडी द्वीप रेल्वे स्टेशन से ५ - ६ मील की दूरी पर बसा हआ है । इस ग्राम का बहत ही बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है तथा यह ग्राम राजा भोज के नाम पर भोजपुर कहा जाता है । इस ग्राम की ऊँची टेकरी पर एक विशाल मंदिर बना हुआ है जिसे भोजनाथ का मंदिर कहते है । इस मंदिर का निर्माण , धार के पवार राजा भोज ने सन १०४० से १०५५ ई , की बीच किया था । भोजनाथ का मंदिर एक टीले पर बसा हुआ है । यह एक विशाल मंदिर है जो १२ स्तंभों पर आधारित है तथा मध्य में चार पाषाण के स्तंभ हैं जिसकी ऊंचाई २० फीट से कम नही है एवं प्रतीत होता है कि १६ स्तंभ एक एक पत्थर के ही बने हए हैं । मंदिर की दिवारे पाषाण की ही बनी हैं । उपर का गुंबज टूटी फूटी हालत में है तथा कहा जाता है कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे अपने छेनी के प्रहार से नष्ट कर डाला है ।
===भोजशाला===
६ . भोजताल - इसी मंदिर के पश्चिम दिशा को २५० वर्ग मील तक विस्तृत प्रसिद्ध भोजपुर सरोवर , राजा भोज के शासन काल में निर्माण किया गया था तथा इस सरोवर को भोज ताल के नाम से संबोधित किया जाता है । यह भोज ताल राजा भोज के वस्तु - कला की सुंदरता का प्रमाण तब तक देता रहा जब तक कि १५ वी शताब्दी में मालवा के हुशंगशाह ने इस ताल के जल को न सुखा दिया । कहा जाता है कि हसंगशाह ने राजा भोज द्वारा निर्मित इस विस्तृत सरोवर का नाम निशान साफ मिटा देने के ख्याल से उसे एक ओर से फोड़ दिया तथा उसमें का पानी बहा दिया था।
लगे हुए उत्तर में दो बड़े विशाल कमरे है तथा सैनिकों के रहने के लिए अन्य भवन हैं । इसी क्षेत्र में बारूद भरने के लिए तलघरी भी है । इससे आगे पूर्व की और दुर्ग में उंची दीवारों वाला एक भवन था जिसे धार राज्य ने जेल के रूप में परिवर्तित कर दिया । इस भवन के पीछे दूर्ग में विशाल बावड़ी है , जिसके अन्दर रहने और विश्राम करने के चार मंजिलों तक विशाल कमरे और बरामदे बने हैं जिनमें कलापूर्ण मेहराबे और स्तम्भ है । पाषाण निर्मित इस बावडी में प्रवेश हेतु चौडी सीढियां हैं । मध्ययुग में और सन १८५७ में भी जब कभी इस दुर्ग पर आक्रमण हुए है और उसे शत्रुओं को सौंप देने के अवसर आये तब किले के अस्त्र - शस्त्र और तोपें इसी बावडी में डाल दिये गये थे । २ . भोजशाला , धार सरस्वती उपासक महाराजा भोज द्वारा निर्मित सदन या [[सरस्वती]] मंदिर भी कहते है । इसकी लम्बाई २०० फीट तथा चौड़ाई ११७ फीट है । यह मजबूत पत्थरों का बना है । यह इमारत ११वी शताब्दी में बनी है परंतु जैसी की वैसी खड़ी है । फर्श के पत्थरों पर तथा स्तम्भोंपर जो संस्कृत से लिखावट थी उसे मुसलमानों ने कालांतर में लोहे की छेनी द्वारा ध्वंस कर डाला है । इस विख्यात विद्यालय में अनेकनाटक , व्याकरण , वर्ण चरित्र आदि शीलाओं पर अंकित थे जिनमें से दो शिला लेखों को सुरक्षित रखा गया है तथा उन्हें लकड़े के फ्रेम में जड़कर दिवारों के सहारे रखा गया है । इन पर अत्यन्त उत्कृष्ट देवनागरी लिपि में ( 9 ) कुर्म शतक तथा ( २ ) विजय श्री या पारिजात मंजरी नामक नाटिका के प्रथम दो अंक खुदे हैं । कुर्मावतार के दो शतक की ८३ पंक्तियां सुरक्षित हैं । केवल २६ वी तथा ३८ वीं पक्तियों के प्रारंभिक अंश खंडित हैं । प्रथम शतक के अंत में “ इति श्री महाराजाधिराज परमेश्वर श्री भोजदेव विरचितम् अवनि कुर्म शतकम् " लिखा है जिससे यह स्वयं भोजदेव द्वारा रचित सिद्ध होता है । दुसरे शतक में भोजदेव के अधिक गुणगान देखकर यह प्रतीत होता है कि वह उनके किसी आश्रित कवि की रचना है । विजयश्री नाटिका श्याम शिला पर अंकित है । इसमें उक्त नाटिका के प्रथम दो अंक वसंतोत्सव तथा तांडवदर्पण खुदे है । उक्त नाटिका परमार वंशीय अर्जुनदेव के आश्रित मदन द्वारा रचित है । इस भोजशाला के गुंबज तथा खम्भों का अवलोकन करने पर यह प्रतीत होता है कि फर्शी के पत्थरों पर संस्कृत की अनेक रचनाओं पर टांची द्वारा नष्ट विनाश कृत्ति के चिन्ह हैं । दो स्तंभों पर संस्कृत में धातु प्रत्यय माला तथा वर्ण माला नागबद्ध चित्र के रूपांक अंकित हैं । इस शारदा सदन के भीतरी भाग में चारों तरफ पत्थर के बने हुए सुंदर स्तंभ विराजमान हैं तथा प्रवेश द्वार के समक्ष खड़े होने पर भोज शाला की सुंदरता एवं सुदृढ़ता का अनुमान लगाया जा सकता है । यह शारदा सदन हमारे पवार वंशजों के निपुण साहित्य सेवा का स्मरण दिलाता है परंतु इस सदन पर विदेशियों ने समय समय पर जो आघात किये हैं उन्हें सुनकर या पढ़कर व प्रत्यक्ष आँखों से निरिक्षण करने पर हमारे रोमांच खड़े हो जाते हैं तथा खून उबल जाता है क्योंकि इस शारदा सदन को मुसलमानों ने १२वीं व १३ वी शताब्दि में एक मस्जिद का स्वरूप दे दिया है व इसे कमालुद्दीन का मस्जिद के नाम से संबोधित किया जाता है । प्रवेश द्वार के सामने जो इमारत का पार्श्वभाग है उसके बीचोबीच एक पत्थर का बना हुआ मंदिरनुमा गुंबज की छत्रछाया में एक भोजकालीन सुंदर व विशाल पाषाण की सरस्वती देवी की मूर्ति स्थापित थी जिसे अंग्रेजों ने लंदन के संग्रहालय में ले जाकर रखा है । इस मूर्ति का निर्माण राजा भोज ने विक्रम संवत् १०९४ में याने सन १०३५ में मनथाल नामक श्रेष्ठ मुर्तिकार द्वारा निर्माण करवाया था । मूर्ति के चार हाथ हैं । सिर पर मुकुट है तथा मुद्रा ध्यान में मग्न है । इस भव्य मूर्ति के बनावट में उत्तरी तथा दक्षिणी भारत के शिल्पकला एवं मूर्तिकला का सुंदर सामंजस्य मिलता है । कुछ विद्वानों द्वारा इस मुर्ति को प्राप्त करने के लिये प्रयत्न किये जा रहे हैं तथा जिस दिन यह मूर्ति इस देश को पुनः प्राप्त होगी वह दिन मालवमहि के लिये अत्यंत शुभ होगा । _ _ इस भोजशाला के प्रवेश द्वार के एक बाजु मौलाना कमालुद्दीन के कब्र के पास एक छोटीसी कुइया है जिसे सरस्वती कूप कहते है । आजकल जन साधारण इसे अक्कल कुई भी कहते है । अभी भी लोगों की धारणा है कि इस कुइया का जल पीने से मनुष्य विद्या प्रेमी होकर सरस्वती का उपासक बन जाता है । उपयुक्त साहित्यिक कृत्तियों को देखकर यात्री के मन पर सरस्वती के उपासक मालवमहि के स्वर्ण युग के निर्माता नरेशों के विद्या प्रेम का अमिट प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है । इस भोजशाला को शारदा सदन या सरस्वती मंदिर इसलिये कहते है कि इसी स्थान पर राजा भोज , उनके विद्याप्रेमी वंशज तथा अन्य आश्रय प्राप्त विद्वानों ने राज्य भाषा संस्कृत की अद्वितीय सेवायें की थी । संस्कृत साहित्य का पनरूत्थान किया गया था एवं तत्कालीन संस्कृत साहित्य का प्रगति का आभास हमें आज भी इस सदन में स्थित प्रत्येक पत्थर से विदित होता है । मुसलमानी शासन काल में इस भोजशाला में एवं अन्य स्थानीय भवनों में अनेक परिवर्तन किये गये । सन १४५७ में महमूद खिलजी प्रथम के समय इसके मूल रूप को अन्य रूप में परिवर्तित कर दिया गया था । खिलजी प्रथम मौलाना कमालुद्दीन का अनुयायी था इसी कमालुद्दीन के नाम पर भोजशाला को कमाल मौलाना मस्जिद कहते है । इस भवन में हर शुक्रवार को मुसलमान लोग नमाज पढ़ते हैं । इस भवन के प्रवेश द्वार के दोनों ओर कब्र खड़ी कर दी गई है तथा इसे आर्चियालॉजिकल पुरातत्त्व मुहकमें ने अपने संरक्षण में ले लिया है । जब हम परमारकालीन संस्कृत साहित्य के सेवाओं का मनन व चिंतन करते है तथा पवार राजाओं द्वारा निर्मित शारदा सदन का मल रूप में चिंतन करते हैं तथा जब उनपर किये गये कुठाराघात का चित्र अपने आँखों के समक्ष लाते हैं तो हमारी आँखे अश्रु प्रवाह करने लगती है । क्या हम यह उपेक्षा करें कि जो शारदा सदन को मस्जिद का स्वरूप दिया गया है उस स्थान पर पुनःसाहित्य प्रगति हेतु कार्यक्रम संपन्न कराने की स्वतंत्रता प्राप्त हो । ३ . राज - मार्तन्ड , धार यह दर्शनीय स्थान धार शहर के दक्षिण - पूर्व कोने में नगर के बाहर स्थित है । इसमें पहुँचने के लिये दो द्वार है । पहिला द्वार पूर्व की ओर है तथा दूसरा उत्तर की ओर है । यह इमारत वर्गाकार पत्थरों के स्तंभो पर स्थित है । इसका मध्य भाग ग्यारह ग्यारह स्तंभो पर स्थित है तथा आप किसी भी ओर से स्तंभो की पंक्तियां मिलाते हुए खड़े हो जायें तो यह भाग अति सुंदर दृष्टि गोचर होता है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकारों ने सुडौलपन ( सिमेट्री ) का ध्यान रखते हुए इसे बनाया है । मुख्य प्रवेश द्वार के सामने के पार्श्वभाग में एक गुंबज बना है तथा इसी के निचे पवार राजाओं का सिंहासन रहा करता था । इस स्थान के दोनों तरफ पत्थरों के स्तंभो पर खड़ी दो मजला बैठके बनी है तथा यहां अधीनस्थ राजाओं को स्थान दिया जाता था । इस स्थान पर लगभग ५०० व्यक्ति बैठ सकते है । स्तंभों का निरिक्षण करने पर हम मध्यकालीन शिल्प कला का अनुमान लगा सकते है । पूर्व के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहत ही महत्त्व है । मुसलमान आक्रमनकारियों ने उसपर अंकित कर दिये हैं जिससे यह प्रतीत हो कि यह मुसलमानों द्वारा बनाया गया है परंतु याद रखे कि इस इमारत को राजा भोज ने ही ११ शताब्दि में बनाया था क्योंकि जिस शिल्पकला का सामंजस्य भोजशाला में दिखने मिलता है वही इस भव्य इमारत में भी दृष्टिगोचर होता है । यह इमारत भोजशाला से अधिक सुंदर शोभायमान , तथा विस्तीर्ण है तथा दिखावट में भव्य एवं विशाल है । इस राज - मार्तन्ड के समीपस्थ एक लोहे की लाट तीन टुकडों में पड़ी हई है जिसका वर्णन सामने किया गया है । इसी लाट के कारण इसे लाट मस्जिद कहते है । इसके पूर्व की ओर तालाब नुमा गड्ढा है तथा कुछ दूर पर पहाड़ी सी नजर आती है तथा यह स्थान प्राकृतिक दृश्य के लिये अति उत्तम है । महाराजाधिराज भोज ने ११वी शताब्दि में भारतवर्ष के अनेक नरेशों को युद्ध में पराजित कर अपना साम्राज्य धार के चहओर ( चौतरफा ) स्थापित किया था । उन्होंने त्रिपुरी के राजा चेदिराज गांगलदेव की पराजित कर इस लोहे की लाट को धारा नगरी में लाकर तीन पत्थरों के बीच खड़ी कर उसे विजय - स्तंभ का रूप दिया था । यह लाट लोहा एवं दिगर धातुओं के मिश्रण से बनी हुई प्रतीत होती है क्यों कि अनेक शताब्दियों की वर्षा , धूप , वायू शीत इत्यादि के आघात को सहन करती हुई वह जैसी की तैसी पड़ी हुई है तथा प्रकृति का इस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है । यह ५० फूट लंबी है लेकिन इसके तीन टुकड़े कर दिये गये हैं । इसका वजन ७ टन के लगभग है । वर्तमान में कहावत प्रचलित है कहां राजा भोज और कहां गांगली तेलिन तथा यह तत्कालीन कहावत कहां राजा भोज और कहां गांगय तेलंग का अपभ्रंश है । इस लोह स्तंभ को सुल्तान बहादुर शाह गुजरात ले जाना चाहता था । उक्त प्रयत्न में इसके तीन टुकड़े कर दिये गये लेकिन फिर भी इसे नहीं ले जा सके । सम्राट एवं मुगल बादशाह जहांगीर इसके एक टुकड़े को आगरा ले जाना चाहते थे परन्तु किसी कारण वश वह उसे नहीं ले जा सके । इस पर फारसी भाषा में एक लेख अंकित है जिसमें सम्राट अकबर के दक्षिण जाते समय दिनांक ५ - २ - १६00 ई . मे यहां ठहरने का उल्लेख है । यह लाट , राज मार्तंड जिसे लाट मस्जिद कहते हैं उससे लगभग ५० फुट की दूरी पर पड़ी है तथा इसी लाट के सबब राज - मार्तंड को लाट मस्जिद कहा जाता है । ४ . कालिका देवी का मन्दिर धारा नगरी के पश्चिम की ओर कमल के फूलों से सुसज्जित देवी सागर नामक एक तालाब है तथा उसीके निकट ही एक टेकड़ी पर बनी हई परमार राजाओं की आराध्य देवी का कालिका देवी नामक मंदिर है जहाँ पहुंचने के लिये लाल पत्थरों की बनी हुई १४८ सीढ़ियां है । इस मंदिर में काली देवी की मूर्ति विराजमान है । इस मंदिर के संचालन के लिये मराठा राजा की ओर से एक पुजारी तैनात है तथा मय संगीन बंदूक के संरक्षक भी नियुक्त हैं । दशहरा त्यौहार के अवसर पर मराठा राजा तथा उनका परिवार इस मंदिर में अपनी आराध्य देवी या इष्ट देवी का दर्शन करने अवश्य जाते हैं तथा इसके उपरांत वे शहर में स्थित दुर्गा देवी के मंदिर में पूजन के लिये जाते हैं इस मंदिर की परिक्रमा करने पर धारा नगरी का संपूर्ण दृश्य यहां से दिखलाई देता है तथा इस नगरी के सौंदर्य तथा रमणीयता का अनुमान यहां से लगाया जा सकता है । देवी सागर से लगा हआ महाराजा वाक्पति मुंजदेव का बनाया हुवा मुंज सरोवर है तथा उसके समीप ही धारेश्वर का मंदिर है । धारा नगरी बहुत से तालाबों से चहुं ओर घिरी है । प्रत्येक तालाब के समीप बड़े बड़े वृक्ष हैं . तथा इस नगरी की प्राकृतिक छटा को सुशोभित करने में सहायक हैं । ५ . भोजनाथ ( शिव ) मंदिर भोजनाथ ( शिव ) मंदिर , भोजपुर भोजपुर ग्राम मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से १८ मील की दूरी पर दक्षिण दिशा को स्थित है तथा आबेदुल्ला गंज तथा मंडी द्वीप रेल्वे स्टेशन से ५ - ६ मील की दूरी पर बसा हआ है । इस ग्राम का बहत ही बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है तथा यह ग्राम राजा भोज के नाम पर भोजपुर कहा जाता है । इस ग्राम की ऊँची टेकरी पर एक विशाल मंदिर बना हुआ है जिसे भोजनाथ का मंदिर कहते है । इस मंदिर का निर्माण , धार के पवार राजा भोज ने सन १०४० से १०५५ ई , की बीच किया था । भोजनाथ का मंदिर एक टीले पर बसा हुआ है । यह एक विशाल मंदिर है जो १२ स्तंभों पर आधारित है तथा मध्य में चार पाषाण के स्तंभ हैं जिसकी ऊंचाई २० फीट से कम नही है एवं प्रतीत होता है कि १६ स्तंभ एक एक पत्थर के ही बने हए हैं । मंदिर की दिवारे पाषाण की ही बनी हैं । उपर का गुंबज टूटी फूटी हालत में है तथा कहा जाता है कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे अपने छेनी के प्रहार से नष्ट कर डाला है
===राज - मार्तन्ड===
धार का यह दर्शनीय स्थान धार शहर के दक्षिण - पूर्व कोने में नगर के बाहर स्थित है । इसमें पहुँचने के लिये दो द्वार है । पहिला द्वार पूर्व की ओर है तथा दूसरा उत्तर की ओर है । यह इमारत वर्गाकार पत्थरों के स्तंभो पर स्थित है । इसका मध्य भाग ग्यारह ग्यारह स्तंभो पर स्थित है तथा आप किसी भी ओर से स्तंभो की पंक्तियां मिलाते हुए खड़े हो जायें तो यह भाग अति सुंदर दृष्टि गोचर होता है तथा ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकारों ने सुडौलपन ( सिमेट्री ) का ध्यान रखते हुए इसे बनाया है । मुख्य प्रवेश द्वार के सामने के पार्श्वभाग में एक गुंबज बना है तथा इसी के निचे पवार राजाओं का सिंहासन रहा करता था । इस स्थान के दोनों तरफ पत्थरों के स्तंभो पर खड़ी दो मजला बैठके बनी है तथा यहां अधीनस्थ राजाओं को स्थान दिया जाता था । इस स्थान पर लगभग ५०० व्यक्ति बैठ सकते है । स्तंभों का निरिक्षण करने पर हम मध्यकालीन शिल्प कला का अनुमान लगा सकते है । पूर्व के प्रवेश द्वार पर एक शिलालेख है तथा ऐतिहासिक दृष्टि से इसका बहत ही महत्त्व है । मुसलमान आक्रमनकारियों ने उसपर अंकित कर दिये हैं जिससे यह प्रतीत हो कि यह मुसलमानों द्वारा बनाया गया है परंतु याद रखे कि इस इमारत को राजा भोज ने ही ११ शताब्दि में बनाया था क्योंकि जिस शिल्पकला का सामंजस्य भोजशाला में दिखने मिलता है वही इस भव्य इमारत में भी दृष्टिगोचर होता है । यह इमारत भोजशाला से अधिक सुंदर शोभायमान , तथा विस्तीर्ण है तथा दिखावट में भव्य एवं विशाल है । इस राज - मार्तन्ड के समीपस्थ एक लोहे की लाट तीन टुकडों में पड़ी हई है जिसका वर्णन सामने किया गया है । इसी लाट के कारण इसे लाट मस्जिद कहते है । इसके पूर्व की ओर तालाब नुमा गड्ढा है तथा कुछ दूर पर पहाड़ी सी नजर आती है तथा यह स्थान प्राकृतिक दृश्य के लिये अति उत्तम है । महाराजाधिराज भोज ने ११वी शताब्दि में भारतवर्ष के अनेक नरेशों को युद्ध में पराजित कर अपना साम्राज्य धार के चहओर ( चौतरफा ) स्थापित किया था । उन्होंने त्रिपुरी के राजा चेदिराज गांगलदेव की पराजित कर इस लोहे की लाट को धारा नगरी में लाकर तीन पत्थरों के बीच खड़ी कर उसे विजय - स्तंभ का रूप दिया था । यह लाट लोहा एवं दिगर धातुओं के मिश्रण से बनी हुई प्रतीत होती है क्यों कि अनेक शताब्दियों की वर्षा , धूप , वायू शीत इत्यादि के आघात को सहन करती हुई वह जैसी की तैसी पड़ी हुई है तथा प्रकृति का इस पर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा है । यह ५० फूट लंबी है लेकिन इसके तीन टुकड़े कर दिये गये हैं । इसका वजन ७ टन के लगभग है । वर्तमान में कहावत प्रचलित है कहां राजा भोज और कहां गांगली तेलिन तथा यह तत्कालीन कहावत कहां राजा भोज और कहां गांगय तेलंग का अपभ्रंश है । इस लोह स्तंभ को सुल्तान बहादुर शाह गुजरात ले जाना चाहता था । उक्त प्रयत्न में इसके तीन टुकड़े कर दिये गये लेकिन फिर भी इसे नहीं ले जा सके । सम्राट एवं मुगल बादशाह जहांगीर इसके एक टुकड़े को आगरा ले जाना चाहते थे परन्तु किसी कारण वश वह उसे नहीं ले जा सके । इस पर फारसी भाषा में एक लेख अंकित है जिसमें सम्राट अकबर के दक्षिण जाते समय दिनांक ५ - २ - १६00 ई . मे यहां ठहरने का उल्लेख है । यह लाट , राज मार्तंड जिसे लाट मस्जिद कहते हैं उससे लगभग ५० फुट की दूरी पर पड़ी है तथा इसी लाट के सबब राज - मार्तंड को लाट मस्जिद कहा जाता है ।
===कालिका देवी==
यह मन्दिर धारा नगरी के पश्चिम की ओर कमल के फूलों से सुसज्जित देवी सागर नामक एक तालाब है तथा उसीके निकट ही एक टेकड़ी पर बनी हई परमार राजाओं की आराध्य देवी का कालिका देवी नामक मंदिर है जहाँ पहुंचने के लिये लाल पत्थरों की बनी हुई १४८ सीढ़ियां है । इस मंदिर में काली देवी की मूर्ति विराजमान है । इस मंदिर के संचालन के लिये मराठा राजा की ओर से एक पुजारी तैनात है तथा मय संगीन बंदूक के संरक्षक भी नियुक्त हैं । दशहरा त्यौहार के अवसर पर मराठा राजा तथा उनका परिवार इस मंदिर में अपनी आराध्य देवी या इष्ट देवी का दर्शन करने अवश्य जाते हैं तथा इसके उपरांत वे शहर में स्थित दुर्गा देवी के मंदिर में पूजन के लिये जाते हैं इस मंदिर की परिक्रमा करने पर धारा नगरी का संपूर्ण दृश्य यहां से दिखलाई देता है तथा इस नगरी के सौंदर्य तथा रमणीयता का अनुमान यहां से लगाया जा सकता है । देवी सागर से लगा हआ महाराजा वाक्पति मुंजदेव का बनाया हुवा मुंज सरोवर है तथा उसके समीप ही धारेश्वर का मंदिर है । धारा नगरी बहुत से तालाबों से चहुं ओर घिरी है । प्रत्येक तालाब के समीप बड़े बड़े वृक्ष हैं . तथा इस नगरी की प्राकृतिक छटा को सुशोभित करने में सहायक हैं ।
===भोजनाथ मंदिर===
भोजनाथ ( शिव ) मंदिर , भोजपुर में स्थित है। भोजपुर ग्राम मध्यप्रदेश की राजधानी [[भोपाल]] से १८ मील की दूरी पर दक्षिण दिशा को स्थित है तथा आबेदुल्ला गंज तथा मंडी द्वीप रेल्वे स्टेशन से ५ - ६ मील की दूरी पर बसा हआ है । इस ग्राम का बहत ही बड़ा ऐतिहासिक महत्त्व है तथा यह ग्राम राजा भोज के नाम पर भोजपुर कहा जाता है । इस ग्राम की ऊँची टेकरी पर एक विशाल मंदिर बना हुआ है जिसे भोजनाथ का मंदिर कहते है । इस मंदिर का निर्माण , धार के पवार राजा भोज ने सन १०४० से १०५५ ई , की बीच किया था । भोजनाथ का मंदिर एक टीले पर बसा हुआ है । यह एक विशाल मंदिर है जो १२ स्तंभों पर आधारित है तथा मध्य में चार पाषाण के स्तंभ हैं जिसकी ऊंचाई २० फीट से कम नही है एवं प्रतीत होता है कि १६ स्तंभ एक एक पत्थर के ही बने हए हैं । मंदिर की दिवारे पाषाण की ही बनी हैं । उपर का गुंबज टूटी फूटी हालत में है तथा कहा जाता है कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने इसे अपने छेनी के प्रहार से नष्ट कर डाला है ।
===भोजताल===
६ . भोजताल - इसीभोजनाथ मंदिर के पश्चिम दिशा को २५० वर्ग मील तक विस्तृत प्रसिद्ध भोजपुर सरोवर , राजा भोज के शासन काल में निर्माण किया गया था तथा इस सरोवर को भोज ताल के नाम से संबोधित किया जाता है । यह भोज ताल राजा भोज के वस्तु - कला की सुंदरता का प्रमाण तब तक देता रहा जब तक कि १५ वी शताब्दी में मालवा के हुशंगशाह ने इस ताल के जल को न सुखा दिया । कहा जाता है कि हसंगशाह ने राजा भोज द्वारा निर्मित इस विस्तृत सरोवर का नाम निशान साफ मिटा देने के ख्याल से उसे एक ओर से फोड़ दिया तथा उसमें का पानी बहा दिया था।
 
==सन्दर्भ==