"परमार भोज": अवतरणों में अंतर

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''दाणेण बलिभोयविक्कमकहानिव्वाहगो नायगो । ।''
''सो एसौ जयचन्दणाम ण पहू कस्सासयं पीइदौ ॥''
मदनकवि ने [[पारिजातमंजरी]] में [[अर्जुनवर्मा]] को भोजसदृश गुणी कहा है-
 
''भोजस्यैव गुणोर्जितमर्जुनमूर्त्यावतीर्णस्य।''
 
[[भोज द्वितीय]] को भी अपने पूर्वज भोज से उपमित किया गया है, यह बात [[हम्मीरमहाकाव्य]] में इस प्रकार दर्ज है -
 
''परमारान्वयप्रौढ़ो भोजो भोज इवापरः ।''
 
[[वस्तुपाल]] भी भोजराज विरुद से अभिहित होता था। अतः इसका वर्णन इस तरह आता है -
 
''विद्वद्भिः कृतभोजराजविरुदः श्रीवस्तुपालः कविः ।'' वह लघुभोजराज तथा भोज के समान सरस्वतीकण्ठाभरण [[विरुद]] भी धारण करता था।
 
मात्रार्णव में विश्वेश्वर अपने आश्रयदाता मान्धाता के पिता मदनपाल को ''नूतन भोज'' कहता है । तंजोर का राजा शाहजी ''अभिनव भोजराज'' कहलाता था । [[विजयनगर]] का कृष्णदेवराय विविधकला का ज्ञाता होने से ''अपरभोज'' कहलाता था -
 
''विदितनानाकलेन वदनविजिताम्भोजेन भोजेनापरेण ।''
 
[[नृसिंह चम्पू]] का रचयिता 1684 ई० में विरचित अपने ग्रन्थ में अपने प्राश्रयदाता उमापति दलपति को भोज अथवा विक्रम अर्थात् [[विक्रमादित्य]] कहता है । उक्त वर्णन इस प्रकार है -
 
''किं भोजः किमु विक्रमः - शूरः श्रीमदुमापतिर्दलपतिः ।''
 
वस्तुतः भोज अनुपम था परन्तु वह विद्वानों , गुणीयों तथा दानियों एवं तेजस्वियों का उपमान बन गया था । [[चक्रपालित]] के लिए कही गयी यह उक्ति वस्तुतः भोज के लिए अधिक उपयुक्त है -
 
''न विद्यतेऽसौ सकलेपि लोके यत्रोपमा तस्य गुणैः क्रियेत ।''
''स एव कार्येन गुणानिवतानां बभूव नृणामुपमानभूतः ॥''
 
[[कर्म]] के लिए कही गयी भोज की यह उकि स्वयं भोज के लिए सार्थक बन गयी है -
 
''उवमाणं कह लव्भउ पेच्छह कुम्मस्स असमचरिअस्स ।''
 
==भोज के समय में भारतीय विज्ञान==