"एकांकी": अवतरणों में अंतर

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== रचनाविधान ==
सतह परper ही बड़े नाटकों और एकांकियों का आकारगत अंतर स्पष्ट हो जाता है। एकांकी नाटक साधारणत: २० से लेकर ३० मिनट में प्रदर्शित किए जा सकते हैं, जबकि तीन, चार या पाँच अंकोंवाले नाटकों के प्रदर्शन में कई घंटे लगते हैं। लेकिन बड़े नाटकों और एकांकियों का आधारभूत अंतर आकारात्मक न होकर रचनात्मक है। पश्चिम के तीन से लेकर पाँच अंकोंवाले नाटकों में दो या दो से अधिक कथानकों को गूँथ दिया जाता था। इस प्रकार उनमें एक प्रधान कथानक और एक या कई उपकथानक होते थे। संस्कृत नाटकों में भी ऐसे उपकथानक होते थे। ऐसे नाटकों में स्थान या दृश्य, काल और घटनाक्रम में अनवरत परिवर्तन स्वाभाविक था। लेकिन एकांकी में यह संभव नहीं। एकांकी किसी एक नाटकीय घटना या मानसिक स्थिति पर आधारित होता है और प्रभाव की एकाग्रता उसका मुख्य लक्ष्य है। इसलिए एकांकी में स्थान, समय और घटना का संकलनत्रय अनिवार्य सा माना गया है। कहानी और गीत की तरह एकांकी की कला घनत्व या एकाग्रता और मितव्ययता की कला है, जिसमें कम से कम उपकरणों के सहारे ज्यादा से ज्यादा प्रभाव उत्पन्न किया जाता है। एकांकी के कथानक का परिप्रेक्ष्य अत्यंत संकुचित होता है, एक ही मुख्य घटना होती है, एक ही मुख्य चरित्र होता है, एक चरमोत्कर्ष होता है। लंबे भाषणों और विस्तृत व्याख्याओं की जगह उसमें संवादलाघव होता है। बड़े नाटक और एकांकी का गुणात्मक भेद इसी से स्पष्ट हो जाता है कि बड़े नाटक के कलेवर को काट छाँटकर एकांकी की रचना नहीं की जा सकती, जिस तरह एकांकी के कलेवर को खींच तानकर बड़े नाटक की रचना नहीं की जा सकती।
 
संस्कृत नाट्यशास्त्र के अनुसार बड़े नाटक के कथानक के विकास की पाँच स्थितियाँ मानी गई हैं : आरंभ, प्रयत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम। पश्चिम के नाट्यशास्त्र में भी इन्हीं से बहुत कुछ मिलती जुलती स्थितियों का उल्लेख है : आरंभ या भूमिका, चरित्रों और घटनाओं के घात प्रतिघात या द्वंद्व से कथानक का चरमोत्कर्ष की ओर आरोह, चरमोत्कर्ष, अवरोह और अंत। पश्चिम के नाटकशास्त्र में द्वंद्व पर बहुत जोर दिया गया है। वस्तुत: नाटक द्वंद्व की कला है; कथा में चरित्रों और घटनाओं के क्रमिक विकास की जगह बड़े नाटक में कुछ चरित्रों के जीवन के द्वंद्वों को उद्घाटित कर कथानक को चरमोत्कर्ष पर पहुँचाया जाता है। एकांकी में इस चरमोत्कर्ष की धुरी केवल एक द्वंद्व होता है। बड़े नाटक के कथानक में द्वंद्वों का विकास काफी धीमा हो सकता है, जिसमें सारी घटनाएँ रंगमंच पर प्रस्तुत होती हैं, या उस घटना से कुछ ही पूर्व होता है जो बड़े वेग से द्वंद्व को चरमोत्कर्ष पर पहुँचा देती है। अक्सर यही चरमोत्कर्ष एकांकी का अंत होता है। जीवन की समस्याओं के यथार्थवादी और मनोवैज्ञानिक चित्रण के अतिरिक्त रचनाविधान की यह विशेषता आधुनिक एकांकी को संस्कृत और पश्चिमी नाट्य साहित्य में उसके निकटवर्ती रूपों से पृथक्‌ करती है।