"विक्रमादित्य": अवतरणों में अंतर

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इसमें कोई संदेह नहीं है कि विक्रमादित्य अग्निवंशीय प्रमार क्षत्रिय ही थे। <ref>The history of India as told by its own Historians.vol.4.British historian pro.John Dowson. M. R. A. S. The history of India as told by its own Historians.vol.4.British historian pro.John Dowson. M. R. A. S.</ref> अद्वितीय सुंदरी और सकलसद्गुणों वाली पतिव्रता शिरोमणि महाराणी "भानुमति" देवी अवंति नरेश विक्रमादित्य की अर्धांगिनी थी।<ref>कालिदास प्रणेता. के. एस. रामस्वामी शास्त्री. पृ.६३.</ref>
हिन्दू शिशुओं में 'विक्रम' नामकरण के बढ़ते प्रचलन का श्रेय आंशिक रूप से विक्रमादित्य की लोकप्रियता और उनके जीवन के बारे में लोकप्रिय लोक कथाओं की दो श्रृंखलाओं को दिया जा सकता है। काशी विश्वविद्यालय के अध्यापक श्री ''ए.एस्.अल्टेकर'' को एक "ताम्र - पत्र" मिला था, जो विक्रम - संवत् २२३ का है । यह मालव के किसी राजा का है । इसके पढ़ने से ज्ञात होता है कि इस राजा ने शकों को परास्त कर अपनी स्वाधीनता की रक्षा की थी । इस ताम्र शासन में भी २२३ संवत् अंकित होने से यह सिद्ध हो जाता है कि चन्द्रगुप्त के अति - पूर्व ही यह संवत् पूर्णतया प्रचलित था । इस ताम्र पत्र से [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के ही मौलि पर सर्वप्रथम विक्रमादित्य - मुकुट पहिनाने वालों की सारी मान्यतायें अपने आप खण्डित हो जाती हैं ।<ref>सम्राट विक्रमादित्य और उनके नवरत्न.ईशदत्त शास्त्री श्रीश. फरवरी १९४४ ई.पृ.४२.मातृभाषा मंदिर दारागंज प्रयाग.पं. हर्षवर्धन शुक्ल</ref>
बहोत समय तक समुद्रगुप्त के किसी भी सिक्के पर विक्रम - अङ्क की बात नहीं सुनी गई थी और विक्रमादित्य की उपाधि को धारण करने वाला पहला सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय को माना जाता था लेकिन जब समुद्रगुप्त,चंद्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त के सिक्के मिले तो नयी बात सामने आई, और यह सिध्द हो गया कि चंद्रगुप्त द्वितीय से भी पहले उनके पीता ने विक्रमादित्य विरूद धारण किया था। इन सिक्कों में सप्तम सिक्के पर समुद्रगुप्त के साथ "श्रीविक्रमः" अंकित है और दूसरी ओर कमलासना देवो की चित्रमुद्रा है और सामने सम्राट के चित्र के साथ "श्रीविक्रमः" लिखा हुआ है । अतः इतिहासानुराग रखने वाले यह पहिली बार जान सके कि चन्द्रगुप्त ( द्वितीय ) विक्रमादित्य ( ३७५ ई० से सन् ४१३ तक ) के पूर्व सम्राट समुद्रगुप्त ( ई० स० ३३० से ३३५ तक ) ने भी अपनी मुद्रा में विक्रम की उपाधि धारण की थी अर्थात् चन्द्रगुप्त के पिता समुद्रगुप्त ने लगभग ४५ साल पहिले ही अपने को विक्रम बना डाला और उन्हीं की देखा देखी चंद्रगुप्त द्वितीय ने कर, विक्रम की पदवी लगाकर अपने को गर्वान्वित किया। सबसे बड़ी यहा यह जानी जा सकती है कि इस उपाधि के ग्रहण में कोई रहस्य है और उसका एकमात्र आधार ईसा पूर्व 56 का वह स्वतंत्र सम्राट विक्रमादित्य ही है।
<ref>सम्राट विक्रमादित्य और उनके नवरत्न.ईशदत्त शास्त्री श्रीश. फरवरी १९४४ ई.पृ.४४-४५.मातृभाषा मंदिर दारागंज प्रयाग.पं. हर्षवर्धन शुक्ल</ref>
 
ऐसा कहा जाता है कि '''‘अरब’''' का वास्तविक नाम '''‘अरबस्थान’''' है. '''‘अरबस्थान’''' शब्द आया संस्कृत शब्द '''‘अरवस्थान’''' से, जिसका अर्थ होता है '''‘घोड़ों की भूमि’'''. और हम सभी को पता है कि '''‘अरब’''' घोड़ों के लिए प्रसिद्ध है.