"उल्का": अवतरणों में अंतर

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== उत्पत्ति ==
उल्कापिंड़ोंउल्कापिंडों की उत्पत्ति का विषय बहुत ही विवादास्पद है। इस विषय पर अनेक मत समय समय पर प्रस्तावित हुए हैं, जिनमें से कुछ में इन्हें पृथ्वी, चंद्रमा, सूर्य और धूमकेतु आदि का अंश माना गया है। एक अति मान्य मत के अनुसार इनकी उत्पत्ति एक ऐसे ग्रह से हुई जो अब पूर्णतया विनष्ट हो गया है। इस विचार में यह कल्पना की जाती है कि आदि में प्राय: मंगल के आकार का एक ग्रह रहा होगा जो किसी दूसरे बड़े ग्रह के अत्यंत समीप आ जाने पर, अथवा किसी दूसरे ग्रह से टकराकर, विनष्ट हो गया, जिससे अरबों की संख्या में छोटे बड़े खंड बने जो उल्का रूप में खमंडल में विचर रहे हैं। इस मत के अनुसार धात्विक उल्का उस कल्पित ग्रह का केंद्रीय भाग तथा आश्मिक उल्का ऊपरी पृष्ठ निरूपित करते हैं। यद्यपि इस उपकल्पना से उल्कापिंडों के अनेक लक्षणों की व्याख्या हो जाती है, फिर भी अनेक बातें अनबूझी पहेली रह जाती हैं। उदाहरणार्थ कुछ धात्विक उल्कापिंडों में अष्टानीक रचना होती है जो साधारणतया 800 डिग्री सेंटीग्रेड ताप पर नष्ट हो जाती है। ऐसा विश्वास है कि उस कल्पित ग्रह के विखंडन के समय अवश्य ही उसमें अधिक ताप उत्पन्न हुआ होगा। फिर भी यह समझ में नहीं आता कि यह अष्टानीक रचना विनष्ट होने से कैसे बची। इसी प्रकार यह शंका भी बनी रहती है कि अकौंड्राइट आश्मिक उल्का में लोहा कहाँ से आया और कौंड्राइट आश्मिक उल्का में कौंडूयूल कैसे बने।
 
एक अन्य मत में यह प्रस्तावित किया गया है कि उल्कापिंडों की उत्पत्ति ग्रहों के साथ साथ हो हुई, अथवा यों कहना चाहिए कि सौरमंडल एवं समस्त खमंडलीय पदार्थो की उत्पत्ति उल्कापिंडों से ही हुई। इस कल्पना के अनुसार आदि विश्व उल्कापिंडों से परिपूर्ण था एव कालांतर में वे पिंड विभिन्न पुंजों में एकत्रित होते गए तथा उनके अधिकाधिक घनीकरण के क्रमानुसार गैसमय नोहारिका, नक्षत्र एवं ग्रह उत्पन्न हुए। इस कल्पना की एक बड़ी त्रुटि यह प्रतीत होती है कि खमंडल में उपस्थित उल्कापिंड इतनी दूर-दूर छितराए हुए हैं तथा उनका पारस्परिक आकर्षण इतना क्षीण है कि उनके एकत्र होकर बड़ी राशि बनने में अत्यधिक समय लगेगा। किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि एक बार पर्याप्त बड़े आकार की राशि बन जाने के बाद वह अपनी सत्ता बनाए रख सकेगा और कालांतर में और अधिक पिंडों को अपने में मिलाकर अपने आकार की वृद्धि भी कर सकेगा। संभव है, उपर्युक्त विधियों में अंशत: संशोधन करने से इनकी उत्पत्ति की वास्तविक विधि निर्धारित हो सके।
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