"महाराष्ट्री प्राकृत": अवतरणों में अंतर

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'''महाराष्ट्री प्राकृत''' उस [[प्राकृत]] शैली का नाम है जो मध्यकाल में [[महाराष्ट्र]] प्रदेश में विशेष रूप से प्रचलित हुई। प्राचीन प्राकृत व्याकरणों में - जैसे चंडकृत [[प्राकृतलक्षण]], [[वररुचि]] कृत [[प्राकृतप्रकाश]], [[हेमचंद्र]] कृत [[प्राकृत व्याकरण]] एवं [[त्रिविक्रम]], [[शुभचँद्र]] आदि के व्याकरणों में - महाराष्ट्री का नामोल्लेख नहीं पाया जाता।जाता है। इस नाम का सबसे प्राचीन उल्लेख [[दण्डी|दंडी]]कृत [[काव्यादर्श]] (6ठी शती ई) में हुआ है, जहाँ कहा गया है कि "महाराष्ट्रीयां भाषां प्रकृष्टं" प्राकृत विदु:, सागर: सूक्तिरत्नानां सेतुबंधादि, यन्मयम्।" अर्थात् महाराष्ट्र प्रदेश आश्रित भाषा प्रकृष्ट प्राकृत मानी गई, क्योंकि उसमें सूक्तियों के सागर [[सेतुबंध|सेतुबंधादि]] काव्यों की रचना हुई।
 
दंडी के इस उल्लेख से दो बातें स्पष्ट ज्ञात होती हैं कि प्राकृत भाषा की एक विशेष शैली महाराष्ट्र प्रदेश में विकसित हो चुकी थी और उसमें सेतुबँध तथा अन्य भी कुछ काव्य रचे जा चुके थे। प्रवरसेन कृत "सेतुबंध" काव्य सुप्रसिद्ध है, जिसकी रचना अनुमानत: चौथी पाँचवीं शती की है। इसमें प्राकृत भाषा का जो स्वरूप दिखाई देता है उसकी प्रमुख विशेषता यह है कि शब्दों के मध्यवर्ती क् ग् च् ज् त् द् प् ब् य् इन अल्पप्राण वर्णों का लोप होकर केवल उनका संयोगी स्वर (उद्वृत्त स्वर) मात्र शेष रह जाता है। जैसे मकर ऊ मअर, नगर ऊ नअर, निचुल ऊ निउल, परिजन ऊ परिअण, नियम ऊ णिअम, इत्यादि।