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'''[https://historyguruji.com/जैन-धर्म-और-भगवान्-महावीर जैन दर्शन]''' एक प्राचीन [[भारतीय दर्शन]] है। इसमें [[अहिंसा]] को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार 24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में अंतिम तीर्थंकर, [[भगवान महावीर]] के द्वारा [https://historyguruji.com/जैन-धर्म-और-दर्शन जैन दर्शन] का पुनराव्रण हुआ । इसमें [[वेद]] की प्रामाणिकता को [[कर्मकाण्ड]] की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया। [https://historyguruji.com/जैन-धर्म-और-दर्शन जैन दर्शन] के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है।
 
[[सत्य]] का अनुसंधान करने वाले 'जैन' शब्द की व्युत्पत्ति ‘जिन’ से मानी गई है, जिसका अर्थ होता है- विजेता अर्थात् वह व्यक्ति जिसने इच्छाओं (कामनाओं) एवं मन पर विजय प्राप्त करके हमेशा के लिए संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त कर ली है। इन्हीं जिनो के उपदेशों को मानने वाले जैन तथा उनके साम्प्रदायिक सिद्धान्त जैन दर्शन के रूप में प्रख्यात हुए। जैन दर्शन ‘अर्हत दर्शन’ के नाम से भी जाना जाता है। [https://historyguruji.com/जैन-धर्म-और-भगवान्-महावीर जैन धर्म] में चौबीस [[तीर्थंकर]] (महापुरूष, जैनों के ईश्वर) हुए जिनमें प्रथम [[ऋषभदेव]] तथा अन्तिम [[महावीर]] (वर्धमान) हुए। इनके कुछ तीर्थकरों के नाम [[ऋग्वेद]] में भी मिलते हैं, जिससे इनकी प्राचीनता प्रमाणित होती है।
 
[https://historyguruji.com/जैन-धर्म-और-भगवान्-महावीर जैन दर्शन] के प्रमुख ग्रन्थ [[प्राकृत]] (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने [[संस्कृत]] में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ के आसपास [[आचार्य उमास्वामी]] द्वारा रचित [[तत्त्वार्थ सूत्र]] बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में [[व्याकरण]], [[दर्शन]], [[काव्य]], [[नाटक]] आदि की रचना की। संक्षेप में इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं-
 
==द्रव्य==
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==कर्म==
 
[https://historyguruji.com/जैन-धर्म-और-दर्शन जैन दर्शन] में कर्म के मुख्य आठ भेद बताए गए हैं - ज्ञानवरण, दर्शनवरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय {{Sfn|जैन|२०११|p=११४}}
 
जैनियों के अनुसार कर्म पौद्गलिक (शारीरिक) अर्थात् धूल के कण के समान जड़ पदार्थ हैं। ये इच्छा, द्वेष और भ्रम से प्रेरित मन, शरीर और वाक् की क्रियाओं तथा वासनाओं से पैदा होते हैं। कर्म के मुख्य रूप से दो भेद हैं-