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यह परिवार सैयद अथवा [[मुहम्मद]] के वंशज माने जाता है। [[तैमूरलंग|तैमूर]] के लगातार आक्रमणों के कारण दिल्ली सल्तनत का कन्द्रीय नेतृत्व पूरी तरह से हतास हो चुका था और उसे १३९८ तक लूट लिया गया था। इसके बाद उथल-पुथल भरे समय में, जब कोई केन्द्रीय सत्ता नहीं थी, सैयदों ने दिल्ली में अपनी शक्ति का विस्तार किया। इस वंश के विभिन्न चार शासकों ने ३७-वर्षों तक दिल्ली सल्तनत का नेतृत्व किया।
 
इस वंश की स्थापना [[ख़िज्र खाँ]] ने की जिन्हें तैमूर ने [[मुल्तान]] ([[पंजाब क्षेत्र]]) का राज्यपाल नियुक्त किया था। खिज़्र खान ने २८ मई १४१४ को दिल्ली की सत्ता [[दौलतनअसुरद्दीन खान लोदी]महमूद
] से छीनकर सैयद वंश की स्थापना की। लेकिन वो [[सुल्तान]] की पदवी प्राप्त करने में सक्षम नहीं हो पाये और पहले तैम्मूर के तथा उनकी मृत्यु के पश्चात उनके उत्तराधिकारी [[शाहरुख मीर्ज़ा]] (तैमूर के नाती) के अधीन [[तैमूरी राजवंश]] के ''रयत-ई-अला'' (जागीरदार) ही रहे।<ref>वी॰डी॰ महाजन, पृष्ठ २३७</ref> ख़िज्र खान की मृत्यु के बाद २० मई १४२१ को उनके पुत्र मुबारक खान ने सत्ता अपने हाथ में ली और अपने आप को अपने सिक्कों में ''मुइज़्ज़ुद्दीन मुबारक शाह'' के रूप में लिखवाया। उनके क्षेत्र का अधिक विवरण याहिया बिन अहमद सरहिन्दी द्वारा रचित ''तारीख-ए-मुबारकशाही'' में मिलता है।<ref>शैलेन्द्र सेनगर, पृ॰ ९</ref> मुबारक खान की मृत्यु के बाद उनका दतक पुत्र मुहम्मद खान सत्तारूढ़ हुआ और अपने आपको सुल्तान मुहम्मद शाह के रूप में रखा। अपनी मृत्यु से पूर्व ही उन्होंने बदायूं से अपने पुत्र अलाउद्दीन शाह को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।<ref>रेहाना ज़ैदी, ७६-७७</ref>
 
इस वंश के अन्तिम शासक अलाउद्दीन आलम शाह ने स्वेच्छा से दिल्ली सल्तनत को १९ अप्रैल १४५१ को [[बहलूल खान लोदी]] के लिए छोड़ दिया और बदायूं चले गये। वो १४७८ में अपनी मृत्यु के समय तक वहाँ ही रहे।<ref>वी॰डी॰ महाजन, पृष्ठ २४४</ref>