"दयानन्द सरस्वती": अवतरणों में अंतर

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{{Infobox Hindu leader
|name = [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ स्वामी दयानन्द सरस्वती]
|image = Dayananda Saraswati.jpg
|alt = महर्षि दयानन्द सरस्वती
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[[चित्र:Swami Dayanand.jpg|thumb|right|250px|स्वामी दयानन्द सरस्वती]]
'''महर्षि स्वामी [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ दयानन्द सरस्वती]''' ([[१८२४]]-[[१८८३]]) आधुनिक [[भारत]] के महान चिन्तक, समाज-सुधारक था। उसका बचपन का नाम 'मूलशंकर'<ref name="Athaiya1971">{{cite book|author=Madhur Athaiya|title=Swami Dayanand Saraswati|url=https://books.google.com/books?id=aFhvBQAAQBAJ|year=1971|publisher=National Council of Educational Research and Training|isbn=978-93-5048-418-0}}</ref> था।
 
वे महान ईश्वर भक्त(मगर एक झुते तौर पर) थे, उन्होंने मुंबई में एक मत विशेष संगठन - [[[https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ आर्य समाज]]] की स्थापना की। वे एक संन्यासी तथा एक चिंतक था। उन्होंने [[वेदों]] की सत्ता को सदा सर्वोपरि माना। वेदों की ओर लौटो यह उनका प्रमुख नारा था। स्वामी दयान वेदों का भाष्य किया इसलिए उन्हें ऋषि कहा जाता है क्योंकि "ऋषयो मन्त्र दृष्टारः'' वेदमन्त्रों के अर्थ का दृष्टा ऋषि होता है। ने [[कर्म|कर्म सिद्धान्त]], [[पुनर्जन्म]], [[ब्रह्मचर्य]] तथा [[सन्यास]] को अपने [[दर्शन]] के चार स्तम्भ बनाया। उन्होने ही सबसे पहले १८७६ में '[[स्वराज|स्वराज्य]]' का [[नारा]] दिया जिसे बाद में लोकमान्य तिलक ने आगे बढ़ाया। आज स्वामी दयानन्द के विचारों की समाज को नितान्त आवश्यकता है।''
 
स्वामी दयानन्द के विचारों से प्रभावित महापुरुषों की संख्या असंख्य है, इनमें प्रमुख नाम हैं- [[मादाम भिकाजी कामा]],[[भगत सिंह]] [[पण्डित लेखराम आर्य]], [[स्वामी श्रद्धानन्द]], [[गुरुदत्त विद्यार्थी|पण्डित गुरुदत्त विद्यार्थी]], [[श्यामजी कृष्ण वर्मा]], [[विनायक दामोदर सावरकर]], [[लाला हरदयाल]], [[मदनलाल ढींगरा]], [[राम प्रसाद 'बिस्मिल']], [[महादेव गोविंद रानडे]], [[महात्मा हंसराज]], [[लाला लाजपत राय]] इत्यादि। स्वामी दयानन्द के प्रमुख अनुयायियों में [[लाला हंसराज]] ने १८८६ में [[लाहौर]] में '[[दयानन्द एंग्लो वैदिक कॉलेज]]' की स्थापना की तथा [[स्वामी श्रद्धानन्द]] ने [[१९०१]] में [[हरिद्वार]] के निकट [[कांगड़ी]] में [[गुरुकुल]] की स्थापना की।
 
== प्रारम्भिक जीवन ==
[https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ दयानंद सरस्वती] का जन्म १२ फ़रवरी टंकारा में सन् १८२४ में [[मोरबी]] ([[मुम्बई]] की मोरवी रियासत) के पास [[काठियावाड़]] क्षेत्र (जिला राजकोट), [[गुजरात]] में हुआ था।<ref>{{cite web |url= http://www.aspiringindia.org/saints_sages/dayananda_sarswati
|title= दयानंद सरस्वती|access-date=[[20 सितंबर]] [[2007]]|format= एचटीएम|publisher=रिफ़रेंसइंडियानेट xxx
ज़ोन.कॉम|language=अंग्रेज़ी}}</ref> उनके पिता का नाम करशनजी लालजी तिवारी और माँ का नाम यशोदाबाई था। उनके पिता एक कर-कलेक्टर होने के साथ ब्राह्मण परिवार के एक अमीर, समृद्ध और प्रभावशाली व्यक्ति थे। [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ दयानंद सरस्वती] का असली नाम मूलशंकर था और उनका प्रारम्भिक जीवन बहुत आराम से बीता। आगे चलकर एक पण्डित बनने के लिए वे [[संस्कृत]], [[वेद]], [[शास्त्र|शास्त्रों]] व अन्य धार्मिक पुस्तकों के अध्ययन में लग गए।<ref>{{cite book |title=Swami Dayanand Saraswati|last=Sinhal |first=Meenu |authorlink= |coauthors= |year=2009 |publisher=प्रभात प्रकाशन|isbn=8184300174 |page=3 |url=http://books.google.com/books?id=iDPGFxCzc54C&printsec=frontcover&dq=Dayananda+Sarasvati+%28Swami%29+-inauthor:%22Dayananda+Sarasvati+%28Swami%29%22&lr=&cd=11#v=onepage&q=&f=false |ref= }}</ref><ref>{{cite book |title=World Perspectives on Swami Dayananda Saraswati |last=Garg |first=Ganga Ram|authorlink= |coauthors= |year=1986 |publisher=Concept Publishing Company |isbn= |page=4 |url=http://books.google.com/books?id=Siv6V1VDX-AC&pg=PR44&dq=Dayananda+Sarasvati+%28Swami%29+-inauthor:%22Dayananda+Sarasvati+%28Swami%29%22&lr=&cd=21#v=onepage&q=Dayananda%20Sarasvati%20%28Swami%29%20-inauthor%3A%22Dayananda%20Sarasvati%20%28Swami%29%22&f=false |ref= |chapter=1. Life and Teachings}}</ref>
 
उनके जीवन में ऐसी बहुत सी घटनाएं हुईं, जिन्होंने उन्हें [[हिन्दू]] धर्म की पारम्परिक मान्यताओं और ईश्वर के बारे में गंभीर प्रश्न पूछने के लिए विवश कर दिया। एक बार [[शिवरात्रि]] की घटना है। तब वे बालक ही थे। [[शिवरात्रि]] के उस दिन उनका पूरा परिवार रात्रि जागरण के लिए एक [[मन्दिर]] में ही रुका हुआ था। सारे परिवार के सो जाने के पश्चात् भी वे जागते रहे कि [[भगवान शिव]] आयेंगे और प्रसाद ग्रहण करेंगे। उन्होंने देखा कि शिवजी के लिए रखे भोग को [[चूहा|चूहे]] खा रहे हैं। यह देख कर वे बहुत आश्चर्यचकित हुए और सोचने लगे कि जो ईश्वर स्वयं को चढ़ाये गये [[प्रसाद]] की रक्षा नहीं कर सकता वह मानवता की रक्षा क्या करेगा? इस बात पर उन्होंने अपने पिता से बहस की और तर्क दिया कि हमें ऐसे असहाय ईश्वर की उपासना नहीं करनी चाहिए।
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अपनी छोटी बहन और चाचा की [[हैजा|हैजे]] के कारण हुई मृत्यु से वे जीवन-मरण के अर्थ पर गहराई से सोचने लगे और ऐसे प्रश्न करने लगे जिससे उनके माता पिता चिन्तित रहने लगे। तब उनके माता-पिता ने उनका [[विवाह]] किशोरावस्था के प्रारम्भ में ही करने का निर्णय किया (१९वीं सदी के आर्यावर्त (भारत) में यह आम प्रथा थी)। लेकिन बालक मूलशंकर ने निश्चय किया कि विवाह उनके लिए नहीं बना है और वे 1846 में सत्य की खोज में निकल पड़े।
 
[https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ महर्षि दयानन्द] के हृदय में आदर्शवाद की उच्च भावना, यथार्थवादी मार्ग अपनाने की सहज प्रवृत्ति, मातृभूमि की नियति को नई दिशा देने का अदम्य उत्साह, धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से युगानुकूल चिन्तन करने की तीव्र इच्छा तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) जनता में गौरवमय अतीत के प्रति निष्ठा जगाने की भावना थी। उन्होंने किसी के विरोध तथा निन्दा करने की परवाह किये बिना आर्यावर्त (भारत) के हिन्दू समाज का कायाकल्प करना अपना ध्येय बना लिया था।
 
== ज्ञान की खोज ==
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महर्षि दयानन्द ने अनेक स्थानों की यात्रा की। उन्होंने [[हरिद्वार]] में [[कुम्भ मेला|कुंभ]] के अवसर पर 'पाखण्ड खण्डिनी पताका' फहराई। उन्होंने अनेक [[शास्त्रार्थ]] किए। वे [[कलकत्ता]] में बाबू [[केशवचन्द्र सेन]] तथा [[देवेन्द्र नाथ ठाकुर]] के संपर्क में आए। यहीं से उन्होंने पूरे वस्त्र पहनना तथा [[हिन्दी]] में बोलना व लिखना प्रारंभ किया। यहीं उन्होंने तत्कालीन वाइसराय को कहा था, मैं चाहता हूं विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। परंतु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक-पृथक शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का छूटना अति दुष्कर है। बिना इसके छूटे परस्पर का व्यवहार पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है।
 
== [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ आर्य समाज की स्थापना] ==
[[चित्र:ओ३म को आर्य समाज में ईश्वर का सर्वोत्तम और उपयुक्त नाम माना जाता है.jpeg|thumb|right|150px|'''ॐ''' को आर्य समाज में ईश्वर का सर्वोत्तम और उपयुक्त नाम माना जाता है।|कड़ी=Special:FilePath/ओ३म_को_आर्य_समाज_में_ईश्वर_का_सर्वोत्तम_और_उपयुक्त_नाम_माना_जाता_है.jpeg]]
महर्षि दयानन्द ने [[चैत्र]] शुक्ल प्रतिपदा संवत् १९३२(सन् १८७५) को गिरगांव [[मुम्बई]] में आर्यसमाज की स्थापना की। आर्यसमाज के नियम और सिद्धांत प्राणिमात्र के कल्याण के लिए है। संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
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== समाज सुधार के कार्य - Dayanand Saraswati contribution to the society.. ==
[https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ महर्षि दयानन्द] ने तत्कालीन समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों तथा अन्धविश्वासों और रूढियों-बुराइयों मगर सत्य यह है कि खुद ही बुराइयों में लिप्त थेref>[http://www.pressnote.in/chantan-news_321396.html यथार्थ वर्णव्यवस्था और दलितोद्धार में महर्षि दयानन्द का योगदान]</ref> वे 'संन्यासी योद्धा' कहलाए। उन्होंने जन्मना जाति का विरोध किया तथा कर्म के आधार वेदानुकूल वर्ण-निर्धारण की बात कही। वे दलितोद्धार के पक्षधर थे। उन्होंने स्त्रियों की शिक्षा के लिए प्रबल आन्दोलन चलाया। उन्होंने [[बाल विवाह]] तथा [[सती प्रथा]] का निषेध किया तथा [[विधवा विवाह]] का समर्थन किया। उन्होंने ईश्वर को सृष्टि का निमित्त कारण तथा प्रकृति को अनादि तथा शाश्वत माना। वे तैत्रवाद के समर्थक थे। उनके दार्शनिक विचार वेदानुकूल थे। उन्होंने यह भी माना कि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र हैं तथा फल भोगने में परतन्त्र हैं। महर्षि दयानन्द सभी धर्मानुयायियों को एक मंच पर लाकर एकता स्थापित करने के लिए प्रयत्नशील थे। उन्होंने इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) दरबार के समय १८७८ में ऐसा प्रयास किया था। उनके अमर ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश, संस्कार विधि और ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका में उनके मौलिक विचार सुस्पष्ट रूप में प्राप्य हैं। वे योगी थे तथा [[प्राणायाम]] पर उनका विशेष बल था। वे सामाजिक पुनर्गठन में सभी वर्णों तथा स्त्रियों की भागीदारी के पक्षधर थे। राष्ट्रीय जागरण की दिशा में उन्होंने सामाजिक क्रान्ति तथा आध्यात्मिक पुनरुत्थान के मार्ग को अपनाया। उनकी शिक्षा सम्बन्धी धारणाओं में प्रदर्शित दूरदर्शिता, देशभक्ति तथा व्यवहारिकता पूर्णतया प्रासंगिक तथा युगानुकूल है। [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ महर्षि दयानन्द] समाज सुधारक तथा धार्मिक पुनर्जागरण के प्रवर्तक तो थे ही, वे प्रचण्ड राष्ट्रवादी तथा राजनैतिक आदर्शवादी भी थे। विदेशियों के आर्यावर्त में राज्य होने के कारण आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विधान पढना-पढाना व बाल्यावस्था में अस्वयंवरविवाह, विषयासक्ति, मिथ्या भाषावादि, कुलक्षण, वेद-विद्या का प्रचार आदि कुकर्म हैं, जब आपस में भाई-भाई लडते हैं और तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है। उन्होंने राज्याध्यक्ष तथा शासन की विभिन्न परिषदों एवं समितियों के लिए आवश्यक योग्यताओं को भी गिनाया है। उन्होंने [[न्याय]] की व्यवस्था ऋषि प्रणीत ग्रन्थों के आधार पर किए जाने का पक्ष लिया
 
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=== क्रान्ति की विमर्श ===
स्वामी दयानन्द सरस्वती ने हरिद्वार पहुँच कर वहां एक पहाड़ी के एकान्त स्थान पर अपना डेरा जमाया। वहीं पर उन्होंने पाँच ऐसे व्यक्तियों से मुलाकात की, जो आगे चलकर सन् १८५७ की क्रान्ति के कर्णधार बने। ये पांच व्यक्ति थे [[नाना साहेब]], [[अजीमुल्ला खां]], [[बाला साहब]], [[तात्या टोपे]] तथा [[बाबू कुंवर सिंह]]। बातचीत काफी लम्बी चली और यहीं पर यह तय किया गया कि फिरंगी सरकार के विरुद्ध सम्पूर्ण देश में सशस्त्र क्रान्ति के लिए आधारभूमि तैयार की जाए और उसके बाद एक निश्चित दिन सम्पूर्ण देश में एक साथ क्रान्ति का बिगुल बजा दिया जाए। जनसाधारण तथा आर्यावर्तीय (भारतीय) सैनिकों में इस क्रान्ति की आवाज को पहुंचाने के लिए 'रोटी तथा कमल' की भी योजना यहीं तैयार की गई। इस सम्पूर्ण विचार विमर्श में प्रमुख भूमिका स्वामी [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ दयानन्द सरस्वती] की ही थी।
 
विचार विमर्श तथा योजना-निर्धारण के उपरान्त स्वामी जी तो हरिद्वार में ही रुक गए तथा अन्य पांचों राष्ट्रीय नेता योजना को यथार्थ रूप देने के लिए अपने-अपने स्थानों पर चले गए। उनके जाने के बाद स्वामी जी ने अपने कुछ विश्वस्त साधु संन्यासियों से सम्पर्क स्थापित किया और उनका एक गुप्त संगठन बनाया। इस संगठन का मुख्यालय इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में महरौली स्थित योगमाया मन्दिर में बनाया गया। इस मुख्यालय ने स्वाधीनता समर में उल्लेखनीय भूमिका निभायी। स्वामी जी के नेतृत्व में साधुओं ने भी सम्पूर्ण देश में क्रान्ति का अलख जगाया। वे क्रान्तिकारियों के सन्देश एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुंचाते, उन्हें प्रोत्साहित करते और आवश्यकता पड़ने पर स्वयं भी हथियार उठाकर अंग्रेजों से संघर्ष करते। सन् १८५७ की क्रान्ति की सम्पूर्ण अवधि में राष्ट्रीय नेता, [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ स्वामी दयानन्द सरस्वती] के निरन्तर सम्पर्क में रहे।
 
स्वतन्त्रता-संघर्ष की असफलता पर भी स्वामी जी निराश नहीं थे। उन्हें तो इस बात का पहले से ही आभास था कि केवल एक बार प्रयत्न करने से ही स्वतन्त्रता प्राप्त नहीं हो सकती। इसके लिए तो संघर्ष की लम्बी प्रक्रिया चलानी होगी। हरिद्वार में ही १८५५ की बैठक में बाबू कुंवर सिंह ने जब अपने इस संघर्ष में सफलता की संभावना के बारे में स्वामी जी से पूछा तो उनका बेबाक उत्तर था "स्वतन्त्रता संघर्ष कभी असफल नहीं होता। भारत धीरे-धीरे एक सौ वर्ष में परतन्त्र बना है। अब इसको स्वतन्त्र होने में भी एक सौ वर्ष लग जाएंगे। इस स्वतन्त्रता प्राप्ति में बहुत से अनमोल प्राणों की आहुतियां डाली जाएंगी।" स्वामी जी की यह भविष्यवाणी कितनी सही निकली, इसे बाद की घटनाओं ने प्रमाणित कर दिया। स्वतन्त्रता-संघर्ष की असफलता के बाद जब तात्या टोपे, नाना साहब तथा अन्य राष्ट्रीय नेता स्वामी जी से मिले तो उन्हें भी उन्होंने निराश न होने तथा उचित समय की प्रतीक्षा करने की ही सलाह दी।
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१८५७ की क्रान्ति के दो वर्ष बाद स्वामी जी ने स्वामी विरजानन्द को अपना गुरु बनाया और उनसे दीक्षा ली। स्वामी विरजानन्द के आश्रम में रहकर उन्होंने वेदों का अध्ययन किया, उन पर चिन्तन किया और उसके बाद अपने गुरु के निर्देशानुसार वे वैदिक ज्ञान के प्रचार-प्रसार में जुट गए। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने आर्य समाज की भी स्थापना की और उसके माध्यम से समाज-सुधार के अनेक कार्य किए। छुआछूत, सती प्रथा, बाल विवाह, नर बलि, धार्मिक संकीर्णता तथा अन्धविश्वासों के विरुद्ध उन्होंने जमकर प्रचार किया और विधवा विवाह, धार्मिक उदारता तथा आपसी भाईचारे का उन्होंने समर्थन किया। इन सबके साथ स्वामी जी लोगों में देशभक्ति की भावना भरने से भी कभी नहीं चूकते थे।
 
प्रारम्भ में अनेक व्यक्तियों ने स्वामी जी के समाज सुधार के कार्यों में विभिन्न प्रकार के विघ्न डाले और उनका विरोध किया। धीरे-धीरे उनके तर्क लोगों की समझ में आने लगे और विरोध कम हुआ। उनकी लोकप्रियता निरन्तर बढ़ने लगी। इससे अंग्रेज अधिकारियों के मन में यह इच्छा उठी कि अगर इन्हें अंग्रेजी सरकार के पक्ष में कर लिया जाए तो सहज ही उनके माध्यम से जनसाधारण में अंग्रेजों को लोकप्रिय बनाया जा सकता है। इससे पूर्व अंग्रेज अधिकारी इसी प्रकार से अन्य कुछ धर्मोपदेशकों तथा धर्माधिकारियों को विभिन्न प्रकार के प्रलोभन देकर अपनी तरफ मिला चुके थे। उन्होंने स्वामी [https://historyguruji.com/19%e0%a4%b5%e0%a5%80%e0%a4%82-%e0%a4%b6%e0%a4%a4%e0%a4%be%e0%a4%ac%e0%a5%8d%e0%a4%a6%e0%a5%80-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b8%e0%a4%be%e0%a4%ae%e0%a4%be%e0%a4%9c%e0%a4%bf%e0%a4%95-%e0%a4%a7/ दयानन्द सरस्वती] को भी उन्हीं के समान समझा। तद्नुसार एक ईसाई पादरी के माध्यम से स्वामी जी की तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड नार्थब्रुक से मुलाकात करवायी गई। यह मुलाकात मार्च १८७३ में कलकत्ता में हुई।
 
=== अंग्रेजों को तीखा जवाब ===