"भारतीय राष्ट्रवाद": अवतरणों में अंतर

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[[राष्ट्र]] की [[परिभाषा]] एक ऐसे जन समूह के रूप में की जा सकती है जो कि एक भौगोलिक सीमाओं में एक निश्चित देश में रहता हो, समान परम्परा, समान हितों तथा समान भावनाओं से बँधा हो और जिसमें एकता के सूत्र में बाँधने की उत्सुकता तथा समान राजनैतिक महत्त्वाकांक्षाएँ पाई जाती हों। [[राष्ट्रवाद]] के निर्णायक तत्वों मे राष्ट्रीयता की भावना सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रीयता की भावना किसी राष्ट्र के सदस्यों में पायी जानेवाली सामुदायिक भावना है जो उनका संगठन सुदृढ़ करती है।
 
==[https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ भारतीय राष्ट्रवाद] की प्राचीनता==
जब [[भारतीय संस्कृति]] की बात आती है तब कई पश्चिम के विद्वान इस व्याख्या को भूलकर यह मानने लगते हैं कि ब्रिटिश लोगों के कारण ही भारत में राष्ट्रवाद की भावना ने जन्म लिया; राष्ट्रीयता की चेतना ब्रिटिश शासन की देन है और उससे पहले भारतीय इस चेतना से अनभिज्ञ थे। पर शायद यह सत्य नहीं है।
 
भारत के लम्बे इतिहास में, आधुनिक काल में, [[भारत]] में [[अंग्रेज|अंग्रेजों]] के शासनकाल मे राष्ट्रीयता की भावना का विशेषरूप से विकास हुआ। भारत में अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार से एक ऐसे विशिष्ट वर्ग का निर्माण हुआ जो [[स्वतन्त्रता]] को मूल अधिकार समझता था और जिसमें अपने देश को अन्य पाश्चात्य देशों के समकक्ष लाने की प्रेरणा थी। पाश्चात्य देशों का इतिहास पढ़कर उसमें राष्ट्रवादी भावना का विकास हुआ। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि भारत के प्राचीन इतिहास से नई पीढ़ी को राष्ट्रवादी प्रेरणा नहीं मिली है।
 
वस्तुतः भारत की राष्ट्रीय चेतना [[वेद]]काल से अस्तित्वमान है। [[अथर्ववेद]] के [[पृथ्वी सूक्त]] में धरती माता का यशोगान किया गया हैं। ''माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः'' (भूमि माता है और मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ)। [[विष्णुपुराण]] में तो राष्ट्र के प्रति का श्रद्धाभाव अपने चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है। इस में भारत का यशोगान '[https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ पृथ्वी पर स्वर्ग]' के रूप में किया गया है।
 
:''अत्रापि भारतं श्रेष्ठं जम्बूद्वीपे महागने।
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== आधुनिक काल में भारतीय राष्ट्रवाद का उदय ==
कुछ लोग [https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ भारतीय राष्ट्रवाद] को एक आधुनिक तत्त्व मानते हैं। इस राष्ट्रवाद का अध्ययन अनेक दृष्टिकोणों से महत्त्वपूर्ण है। राष्ट्रवाद के उदय की प्रक्रिया अत्यन्त जटिल और बहुमुखी रही है। भारत मे अंग्रेजों के आने से पहले देश में ऐसी सामाजिक संरचना थी जो कि संसार के किसी भी अन्य देश मे शायद ही कहीं पाई जाती हो। वह पूर्व मध्यकालीन यूरोपीय समाजों से आर्थिक दृष्टि से भिन्न थी। भारत विविध भाषा-भाषी और अनेक धर्मों के अनुयायियों वाले विशाल जनसंख्या का देश है। सामाजिक दृष्टि से [[हिन्दू]] समाज जो कि देश की जनसंख्या का सबसे बड़ा भाग है, विभिन्न जातियों और उपजातियों में विभाजित रहा है। स्वयं हिन्दू धर्म में किसी विशिष्ट पूजा पद्धति का नाम नहीं है। बल्कि उसमें कितने ही प्रकार के दर्शन और पूजा पद्धतियाँ सम्मिलित है। इस प्रकार हिन्दू समाज अनेक सामाजिक और धार्मिक विभागों में बँटा हुआ है। भारत की सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक संरचना तथा विशाल आकार के कारण यहाँ पर राष्ट्रीयता का उदय अन्य देशों की तुलना मे अधिक कठिनाई से हुआ है। शायद ही विश्व के किसी अन्य देश में इस प्रकार की प्रकट भूमि में राष्ट्रवाद का उदय हुआ हो। सर जॉन स्ट्रेची ने भारत के विभिन्नताओं के विषय मे कहा है कि "भारतवर्ष के विषय में सर्वप्रथम महत्त्वपूर्ण जानने योग्य बात यह है कि भारतवर्ष न कभी राष्ट्र था, और न है, और न उसमें यूरोपीय विचारों के अनुसार किसी प्रकार की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक अथवा धार्मिक एकता थी, न कोई भारतीय राष्ट्र और न कोई भारतीय ही था जिसके विषय में हम बहुत अधिक सुनते हैं।" इसी सम्बन्ध मे सर जॉन शिले का कहना है कि "यह विचार कि भारतवर्ष एक राष्ट्र है, उस मूल पर आधारित है जिसको [[राजनीति शास्त्र]] स्वीकार नहीं करता और दूर करने का प्रयत्न करता है। भारतवर्ष एक राजनीतिक नाम नही हैं वरन् एक भौगोलिक नाम है जिस प्रकार यूरोप या अफ्रीका।"
 
उपरोक्त विचारों से स्पष्ट हो जाता है कि भारत में राष्ट्रवाद का उदय और विकास उन परिस्थितियों में हुआ जो राष्ट्रवाद के मार्ग में सहायता प्रदान करने के स्थान पर बाधाएँ पैदा करती है। वास्तविकता यह है कि भारतीय समाज की विभिन्नताओं में मौलिक एकता सदैव विद्यमान रही है और समय-समय पर राजनीतिक एकता की भावना भी उदय होती रही है। वी0ए0 स्मिथ के शब्दों में "वास्तव मे भारतवर्ष की एकता उसकी विभिन्नताओं में ही निहित है।" ब्रिटिश शासन की स्थापना से भारतीय समाज में नये विचारों तथा नई व्यवस्थाओं को जन्म मिला है इन विचारों तथा व्यवस्थाओं के बीच हुई क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप भारत में राष्ट्रीय विचारों को जन्म दिया।
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=== ब्रिटिशपूर्व सामाजिक पृष्ठभूमि ===
[[चित्र:Shivaji British Museum.jpg|thumb|छत्रपति शिवाजी]]
[https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ भारतीय राष्ट्रवाद] को समझने के लिए उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि को समझना आवश्यक है। भारत में अंग्रेजो के आने से पहले भारतीय [[ग्राम]] आत्मनिर्भर समुदाय थे। वे छोटे-छोटे गणराज्यों के समान थे जो प्रत्येक बात में आत्मनिर्भर थे। ब्रिटिश पूर्व भारत में ग्रामीण अर्थव्यवस्था [[कृषि]] और [[कुटीर उद्योग|कुटीर उद्योगों]] पर आधारित थी और सदियों से ज्यों-की-त्यों चली आ रही थी। कृषि और उद्योग में तकनीकी स्तर अत्यन्त निम्न था। समाजिक क्षेत्र में परिवार, जाति पंचायत और ग्रामीण पंचायत सामाजिक नियन्त्रण का कार्य करती थीं। नगरीय क्षेत्र में कुछ नगर राजनैतिक, कुछ धार्मिक तथा कुछ व्यापार की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण थी। अधिकतर राज्यों की राजधानी किसी न किसी नगर में थी। नगरों में अधिकतर लघु उद्योग प्रचलित थे। इन उद्योगों को राजकीय सहायता प्राप्त होती थी। अधिकतर गाँवों और नगरों में परस्पर सांस्कृतिक आदान-प्रदान बहुत कम होता था, क्योंकि यातायात और संदेशवाहन के साधन बहुत कम विकसित थे। इस प्रकार राजनैतिक परिवर्तनों से ग्राम की सामाजिक स्थिति पर बहुत कम प्रभाव पड़ता था। विभिन्न ग्रामों और नगरों के एक दूसरे से अलग-अलग रहने के कारण देश में कभी अखिल भारतीय राष्ट्र की भावना उत्पन्न नहीं हो सकी। भारत में जो भी राष्ट्रीयता की भावना थी, वह अधिकतर धार्मिक और आदर्शवादी एकता की भावना थी, वह राजनैतिक व आर्थिक एकता की भावना नहीं थी। लोग तीर्थयात्रा करने के लिए पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण भारत का दौरा अवश्य करते थे और इससे देश की धार्मिक एकता की भावना बनी हुई थी, किन्तु सम्पूर्ण देश परस्पर संघर्षरत छोटे-छोटे राज्यों में बँटा हुआ था, जिनमे बराबर युद्ध होते रहते थे। दूसरी ओर ग्रामीण समाज इन राजनैतिक परिवर्तनों से लगभग अछूते रहते थे। भारतीय संस्कृति मुख्यरूप से धार्मिक रही है। इसमें राजनैतिक तथा आर्थिक मूल्यों को कभी इतना महत्त्व नहीं दिया गया, जितना कि आधुनिक संस्कृति में दिया जाता है। भारतीय संस्कृति की एकता भी धार्मिक आदर्शवादी एकता है। उसमें राष्ट्रीय भावना का अधिकतर अभाव ही दिखलाई देता है।
 
=== कृषि व्यवस्था मे परिवर्तन ===
भारत में अंग्रेजों की विजय के पश्चात् भारतीय समाज में व्यापक रूपान्तरण हुआ। ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना का कारण मुगल साम्राज्य का पतन और देश का अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभाजित हो जाना था। ब्रिटिश शासन पूर्व-मुस्लिम शासनों से अनेक बातों में भिन्न था। भारतीय लोगों की तुलना में अंग्रेजों की राष्ट्रीयता की भावना, अनुशासन, देश भक्ति और सहयोग कहीं अधिक दिखाई पड़ते थे। उनके इन गुणों ने भारतीय विशिष्ट वर्ग को भी प्रभावित किया। अंग्रेजी शासन के भारत की आर्थिक संरचना पर दूरगामी प्रभाव पड़े। उससे एक और देश में प्राचीन एशियायी समाज को आघात पहुँचा और दूसरी ओर पाश्चात्य समाज की स्थापना हुई। इससे देश में राजनैतिक एकता का निर्माण हुआ। उसके प्रभाव से देश में राष्ट्रीयता के आन्दोलन का विकास हुआ। उससे देश की कृषि व्यवस्था मे आमूल चूल परिवर्तन हुआ। अंग्रेजों के आने से पहले [[भूमि]] राजा की नहीं समझी जाती थी। उसे जोतनेवाले राजा को कर दिया करते थे, अस्तु भूमि निजी सम्पत्ति भी नहीं मानी जाती थी। अंग्रेजों के आने से भूमि पर ग्रामीण समुदाय का अधिकार नहीं रहा, बल्कि वह व्यक्तियों की निजी सम्पत्ति बन गई। इस प्रकार देश के कुछ भागों में [[जमींदार|जमीदारों]] और अन्य भागों मे किसानों का भूमि पर अधिकार हो गया। [[[https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ लार्ड कार्नवालिस]]] के राज्यकाल में, [[बंगाल]], [[बिहार]] और [[उड़ीसा]] में जमींदार वर्ग का उदय हुआ। इससे ग्रामीण अर्थव्यवस्था मे दूरवर्ती परिवर्तन हुए। देश के अन्य भागों में रैयतवाड़ी प्रबन्ध से किसानों को उनके द्वारा जोती गई भूमि पर अधिकार दे दिया गया। सर टॉमस ने [[मद्रास]] के गवर्नर के रूप में सन् 1820 ई0 मे रैयतवाड़ी व्यवस्था प्रारम्भ की। इससे देश मे व्यापक, सामाजिक, राजनैतिक सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक परिवर्तन हुए। लगान देने की नई व्यवस्था में ग्रामीण पंचायत नहीं बल्कि जमींदार और किसान सीधे सरकार को कर देने लगे। इस प्रकार कृषि व्यवस्था व्यापार की स्थिति में आ गई और परम्परागत भारतीय ग्रामीण व्यवस्था का विघटन हुआ। क्रमशः कृषि व्यवस्था का रूपान्तरण होने लगा। भूमि पर निजी अधिकार स्थापित होने से भूमि के छोटे-छोटे टुकड़े बढ़ने लगे। इस अपखण्डन से खेती पर बुरा प्रभाव पड़ा। लगान वसूल करने की नई प्रणाली से सरकारी कर्मचारियों के नवीन वर्ग का निर्माण हुआ। जिनका दूरवर्ती राजनीतिक महत्त्व है। देश की आर्थिक दशा बिगड़ने लगी, गरीबी बढ़ने लगी। गाँवों में लोगों पर कर्ज बढ़ने लगा, जिससे क्रमशः भूमि खेती करनेवालों के हाथ से निकल कर खेती न करनेवाले भू-स्वामियों के हाथ में जाने लगी। इससे भू-दासों के एक नवीन वर्ग का निर्माण हुआ, जिसके हित भू-स्वामियों के हित के विरुद्ध थे। कृषि के क्षेत्र मे एक ओर सर्वहारा भू-दास और दूसरी ओर परोपजीवी जमींदार वर्ग का निर्माण हुआ, जिनमें परस्पर संघर्ष और तनाव बढ़ने लगा। इन वर्गों के निर्माण से व्यापक, सामाजिक आर्थिक और राजनैतिक परिवर्तन हुए।
 
=== नगरीय अर्थव्यवस्था मे परिवर्तन ===
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अंग्रेजों के शासनकाल में नवीन सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था तथा नवीन प्रशासनिक प्रणाली और नई शिक्षा के विस्तार से नए वर्गों का उदय हुआ। ये वर्ग प्राचीन भारतीय समाज में नहीं पाए जाते थे। ये अंग्रेजी शासनकाल में पूंजीवादी व्यवस्था से उत्पन्न हुए। किन्तु देश के विभिन्न भागों में इन नए वर्गों का एक ही प्रकार से उदय नहीं हुआ। इसका कारण यह था कि देश के विभिन्न भागों में एक ही साथ अंग्रेजी शासन की स्थापना नहीं हुई और न उनमें एक ही साथ सुधार लागू किए गए। सबसे पहले बंगाल मे अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई और वहीं से पहले जमींदार वर्ग उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार बंगाल तथा बम्बई में सबसे पहले बड़े उद्योगों की स्थापना की गई और वहाँ पर उद्योगपतियों और श्रमिकों के वर्गों का निर्माण हुआ, अन्त में जब सम्पूर्ण देश मे अंग्रेजी शासन की स्थापना हुई तो सब जगह राष्ट्रीय स्तर पर नए सामाजिक वर्ग दिखलाई पड़ने लगे। इन नए वर्गों के निर्माण मे पूर्व ब्रिटिश सामाजिक व आर्थिक संरचना का महत्त्वपूर्ण योगदान था। उदाहरण के लिए अंग्रेजों के आने के पहले बनियों में व्यापार और उद्योग अधिक था और अंग्रेजी शासनकाल में भी इन्हीं लोगों ने सबसे पहले पूँजीपति वर्ग का निर्माण किया, हिन्दुओं की तुलना में मुस्लिम जनसंख्या मे शिक्षा का प्रसार कम होने के कारण उनमे बुद्धिजीवी, मध्यमवर्ग और बुर्जुआ वर्ग हिन्दू समुदायों की तुलना में बहुत बाद में दिखलाई दिया। इस प्रकार अंग्रेजी शासनकाल में जमींदार वर्ग, भूमि जोतने वाले, भूस्वामी वर्ग, कृषि श्रमिक, व्यापारी वर्ग, साहूकार वर्ग, पूँजीपति वर्ग, मध्यम वर्ग, छोटे व्यापारी और दुकानदार वर्ग, डाक्टर, वकील, प्रोफेसर, मैनेजर, क्लर्क, आदि व्यवसायी वर्ग और विभिन्न कारखानों और बगीचों में काम करनेवाले श्रमिक वर्ग का उदय हुआ। इनमें से अनेक वर्गों के हित परस्पर विरुद्ध थे और उन्होंने अपने-अपने हितों की रक्षा करने के लिए अनेक नवीन आन्दोलन छेड़े।
 
== [https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ भारत में राष्ट्रवाद के उदय] के कारण ==
भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा का अंकुर सत्रहवीं शताब्दी के मध्य से उगने लगा था किन्तु यह धीरे-धीरे विकसित होता रहा अन्त मे 1857 ई0 में पूर्ण हो गया। अतः भारतीय राष्ट्रीय जागृति का काल उन्नीसवीं शताब्दी का मध्य मानना उचित ही होगा। भारत में राष्ट्रवाद के जन्म के कारण जो राष्ट्रीय आन्दोलन प्रारम्भ हुआ वह विश्व में अपने आप में एक अनूठा आन्दोलन था भारत में राजनीतिक जागृति के साथ-साथ सामाजिक तथा धार्मिक जागृति का भी सूत्रपात हुआ। वास्तव मे सामाजिक तथा धार्मिक जागृति के परिणामस्वरूप राजनितिक जागृति का उदय हुआ। डॉ॰ जकारिया का मत है कि ”भारत का पुनर्जागरण मुख्यतः आध्यात्मिक था। इसने राष्ट्र के राजनीतिक उद्धार के आन्दोलन का रूप धारण करने से बहुत पहले अनेक धार्मिक और सामाजिक सुधारों का सूत्रपात किया।“ इस रूप मे भारतीय राष्ट्रीय जागृति यूरोपीय देशों में हुई राष्ट्रीय जागृति से भिन्न है। भारत मे राष्ट्रवादी विचारों के उदय और विनाश के लिए निम्नलिखित कारण माने जाते हैः
 
=== समाजिक तथा धार्मिक आन्दोलन ===
भारत मे राष्ट्रीय जागृति पैदा करने मे 19 वीं शताब्दी में हुए सामाजिक तथा धार्मिक आन्दोलनों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। देश की सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थितियाँ दिन-प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही थी और धर्म के नाम पर समाज मे अन्धविश्वास और कुप्रथाएँ पैदा हो गई थी। इन आन्दोलनों ने एक और धर्म तथा समाज में व्याप्त बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया तो दूसरी ओर [https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ भारत में राष्ट्रीयता] की भाव भूमि तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस प्रकार के आन्दोलनों मे ब्रह्म समाज, आर्य समाज, रामकृष्ण मिशन एवं थियोसोफिकल सोसायटी आदि विशेषरूप से उल्लेखनीय हैं, जिसके प्रवर्तक क्रमशः [[राजा राममोहन राय]], [[स्वामी दयानन्द]], [[स्वामी विवेकानन्द]], एवं श्रीमती [[एनी बेसेन्ट]] आदि थे। इन सुधारकों ने भारतीयों में आत्मविश्वास जागृत किया तथा उन्हें भारतीय संस्कृति की गौरव गरिमा का ज्ञान कराया, उन्हें अपनी संस्कृति की श्रेष्ठता के बारे में पता चला।
 
इन महान व्यक्तियों में राजा राम मोहन राय को भारतीय राष्ट्रीयता का अग्रदूत कहा जा सकता है। उन्होंने समाज तथा धर्म मे व्याप्त बुराईयों को दूर करने हेतु अगस्त 1828 ई0 मे ब्रह्म समाज की स्थापना की। राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा, छुआ-छूत जाति मे भेदभाव एवं मूर्ति पूजा आदि बुराईयों को दूर करने का प्रयास किया। उनके प्रयासो के कारण आधुनिक भारत का निर्माण सम्भव हो सका। इसलिए उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा जाता है। डॉ॰ आर0 सी0 मजुमदार ने लिखा है कि राजा राम मोहन राय को बेकन तथा मार्टिन लुकर जैसे प्रसिद्ध सुधारकों की श्रेणी में गिना जा सकता है। ए0सी0 सरकार तथा के0के0 दत्त का मानना है कि राजा राम मोहन राय के आधुनिक भारतवर्ष में राजनीति जागृति एवं धर्म सुधार का आध्यात्मिक युग प्रारम्भ किया वे एक युग प्रवर्तक थे। इसलिए डॉ॰ जकारिया ने उन्हें सुधारकों का आध्यात्मिक पिता कहा है। बहुत से विद्वान उन्हें आधुनिक ’भारत का पिता’ तथा ’नये युग का अग्रदूत’ मानते हैं। राजा राममोहन राय ने भारतीयों के लिए राजनीतिक अधिकारों की माँग की। 1823 ई0 में [[प्रेस आर्डिनेन्स]] के द्वारा समाचार पत्रों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। इस पर राजा राम मोहन राय ने इस आर्डिनेन्स का प्रबल विरोध किया और उसे रद्द करवाने का हर सम्भव किया इसके पश्चात् उन्होंने ज्यूरी एक्ट एक आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया। डॉ॰ आर0सी0 मजुमदार के शब्दों में ”राजा राम मोहन राय“ पहले भारतीय थे जिन्होंने अपने देशवासियों की कठिनाई तथा शिकायतों को ब्रिटिश सरकार के सम्मुख प्रस्तुत किया और भारतीयों को संगठित होकर राजनीतिक आन्दोलन चलाने का मार्ग दिखलाया उन्हें आधुनिक आन्दोलन का अग्रदूत होने का भी श्रेय दिया जा सकता है।“
 
[[राजा राममोहन राय]] के बाद [[स्वामी दयानन्द सरस्वती]] एक महान सुधारक हुए। जिन्होंने 1875 ई0 में बम्बई में '[[आर्य समाज]]' की नींव रखी। आर्य समाज एक साथ ही धार्मिक और राष्ट्रीय नवजागरण का आन्दोलन था इसने भारत और हिन्दू जाति को नवजीवन प्रदान किया। [https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ स्वामी दयानन्द] ने न केवल हिन्दू धर्म तथा समाज मे व्याप्त बुराईयों का विरोध किया अपितु अपने देशवासियों में राष्ट्रीय चेतना का संचार भी किया। उन्होंने [[ईसाई धर्म]] कि कमियों पर प्रकाश डाला और हिन्दू धर्म के महत्व का बखान कर भारतीयों का ध्यान अपनी सभ्यता व संस्कृति की ओर आकर्षित किया। उन्होंने वैदिक धर्म की श्रेष्ठता को फिर से स्थापित किया और यह बताया कि हमारी संस्कृति विश्व की प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण संस्कृति है। उनका मानना है कि [[वेद]] ज्ञान के भण्डार है और संसार मे सच्चा हिन्दू धर्म है, जिसके बल पर भारत विश्व में अपनी प्रतिष्ठा फिर से स्थापित कर गुरु बन सकता है।
 
[[स्वामी दयानन्द सरस्वती]] ने अपने ग्रन्थ '[[सत्यार्थ प्रकाश]]' में निर्भीकतापूर्वक लिखा है
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=== भारतीय समाचार-पत्र तथा साहित्य ===
[[Image:Bankim Chandra Chattopadhyay.jpg|right|thumb|200px|[[बंकिमचन्द्र चटर्जी]] ने ‘[[वन्देमातरम्]]’ का मन्त्र दिया।]]
मुनरो ने लिखा है, ''एक स्वतन्त्र प्रेस और विदेशी राज एक दूसरे के विरुद्ध हैं और ये दोनों एक साथ नहीं चल सकते।'' भारतीय समाचार पत्रों पर यह बात खरी उतरती है। [https://historyguruji.com/%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%ae%e0%a5%87%e0%a4%82-%e0%a4%b0%e0%a4%be%e0%a4%b7%e0%a5%8d%e0%a4%9f%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a4%b5%e0%a4%be%e0%a4%a6-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%89%e0%a4%a6/ राष्ट्रीय आन्दोलन] की प्रगति तथा विकास में भारतीय साहित्य तथा समाचार पत्रों का भी काफी हाथ था। इनके माध्यम से राष्ट्रवादी तत्त्वों को सत्त प्रेरणा और प्रोत्साहन मिलता रहा। उन दिनों भारत में विभिन्न भाषाओं में समाचार पत्र प्रकाशित होते थे, जिनमें राजनीतिक अधिकारों की माँग की जाती थी। इसके अतिरिक्त उनमें ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीति की भी कड़ी आलोचना की जाती थी। उस समय प्रसिद्ध समाचार पत्रों में [[संवाद् कौमुदी]], [[बाम्बे समाचार]] (1882), [[बंगदूत]] (1831), [[गस्तगुफ्तार]] (1851), [[अमृतबजार पत्रिका]] (1868), [[ट्रिब्यून]] (1877), [[इण्डियन मिरर]], [[हिन्दू]], [[पैट्रियाट]], बंगलौर, सोमप्रकाश, कामरेड, न्यु इण्डियन केसरी, आर्य दर्शन एवं बन्धवा आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। फिलिप्स के अनुसार, ''1871 ई0 मे देशी भाषा में [[बम्बई प्रेसीडेन्सी]] और उत्तर भारत मे 62 तथा बंगाल और दक्षिण भारत में क्रमशः 28 और 20 समाचार पत्र प्रकाशित होते थे, जिनके नियमित पाठकों की संख्या एक लाख थी।'' 1877 ई0 तक देश में प्रकाशित होनेवाले समाचार पत्रों की संख्या 644 तक जा पहुँची थी, जिनमें अधिकतर देशी भाषाओं के थे। इन समाचार पत्रों में ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीति की कड़ी आलोचना की जाती थी, ताकि जन साधारण में ब्रिटिश शासन के प्रति घृणा एवं असन्तोष की भावना उत्पन्न हो। इससे राष्ट्रीय आन्दोलन को बल मिलता था। इन पत्रों के बढ़ते हुए प्रभाव को रोकने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1878 ई0 में ‘[[वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट]]’ पास किया, जिसके द्वारा भारतीय समाचार पत्रों को बिल्कुल नष्ट कर दिया गया। इस एक्ट ने भी राष्ट्रीय आन्दोलन की लहर को तेज कर दिया।
 
भारतीय साहित्यकारों ने भी देश की भावना को जागृत करने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। श्री [[बंकिमचन्द्र चटर्जी]] ने ‘[[वन्देमातरम्]]’ के रूप मे देशवासियों को राष्ट्रीय गान दिया। इनसे भारतीयों में देश-प्रेम की भावना जागृत हुई। [[मराठी साहित्य]] में [[शिवाजी]] का मुगलों के विरुद्ध संघर्ष विदेशी सत्ता के विरुद्ध संघर्ष बताया गया। श्री [[हेमचन्द्र बैनर्जी]] ने अपने राष्ट्रीय गीतों द्वारा स्वाधीनता की भावना को प्रोत्साहन दिया। श्री [[बिपिन चन्द्र पाल]] लिखते है, ”राष्ट्रीय प्रेम तथा जातीय स्वाभिमान को जागृत करने में श्री हेमचन्द्र द्वारा रचित कविताएँ अन्य कवियों की ऐसी कविताओं में कहीं अधिक प्रभावोत्पादक थी।“ इसी प्रकार [[केशव चन्द्र सेन]], [[रवीन्द्र नाथ टैगोर]], [[आर सी दत्त]], रानाडे, [[दादा भाई नौरोजी]] आदि ने अपने विद्वतापूर्ण साहित्य के माध्यम से भारत में राष्ट्रीय भावना को जागृत किया। [[इन्द्र विद्या वाचस्पति]] के अनुसार, ''इसी समय [[माइकल मधुसुदन दत्त]] ने बंगाल में, [[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र]] ने हिन्दी में, [[नर्मद]] ने [[गुजराती]] में, [[चिपलुणकर]] ने [[मराठी]] में, [[सुब्रह्मण्य भारती|भारती]] ने तमिल में तथा अन्य अनेक साहित्यकारों ने विभिन्न भाषाओं में राष्ट्रीयता की भावना से परिपूर्ण उत्कृष्ट साहित्य का सजृन किया। इन साहित्यिक कृतियों ने भारतवासियों के हृदयों में सुधार एवं जागृति की अपूर्व उमंग उत्पन्न कर दी।''