"कुमारसंभवम्": अवतरणों में अंतर

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इस सर्ग में पार्वती का विवाह वर्णन है। हिमालय ने सभी कुटुम्बियों को बुलाकर शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को अपनी पुत्री के विवाह का आयोजन किया। पार्वती को वधू के वेष में सजाया गया। सभी प्रकार की मांगलिक सामिग्रियों से पार्वती को अलंकृत किया गया। वधू वेष में पार्वती की सुन्दरता अवर्णनीय थी। महादेव भी बारात लेकर ओषधिप्रस्थ नगर जाते हैं। महादेव नन्दी पर बैठे हुए थे, उनके गण मंगलवाद्य बजाते हुए उने आगे चल रहे थे। विश्वकर्मा के द्वारा निर्मित छत्र सूर्यदेव भगवान शिव के ऊपर लगाये हुए थे। महादेव की बारात में ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा पुरोहित सप्तर्षि चल रहे थे। ओषधिप्रस्थ नगर पहुँचने पर हिमालय ने अपने कुटुम्बियों के साथ हाथी पर चढ़कर शिव की अगवानी की। महादेव की बारात ने जब नगर में प्रवेश किया, तब सभी स्त्र्यिां अपने-अपने कार्यों को छोड़कर शिव को देखने दौड़ पड़ी। भवनों के झरोखों, अट्टालिकाओं से शिव के दर्शन किये एवं उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। शुभ मुहूर्त में महादेव-पार्वती का विवाह पुरोहितों ने किया। ब्रह्मा ने वधू को वीरमाता बनने का आशीष दिया। सरस्वती ने संस्ड्डत तथा पालि में वर-वधू की प्रशंसा की। विवाह कार्य के सम्पन्न होने के पश्चात् देवताओं ने शिव से कामदेव को जीवित करने का आग्रह किया। शिव ने कामदेव को जीवित कर दिया। इनके अनन्तर शिव ने सभी देवताओं को विदा किया, और पार्वती का हाथ पकड़कर विनोद भवन में चले गये।
 
===अष्टम सर्ग===
इस सर्ग में शिव-पार्वती की काम-क्रीड़ा का शृंगारिक वर्णन है। प्रारम्भ में पार्वती महादेव की कामुक चेष्टाओं से भयभीत हो जाती थीं, परन्तु कुछ दिनों बाद पार्वती भी काम-क्रीड़ाओं में प्रशिक्षित हो गयीं। इस प्रकार विभिन्न प्रकार से महादेव ने एक मास तक पार्वती के साथ रमण किया। तत्पश्चात् महादेव ने हिमालय से जाने की अनुमति माँगी। नन्दी पर आरूढ़ होकर महादेवी पार्वती के साथ सुमेरू पर्वत पर पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक रात्रि् म्ेजमसंत 58 विश्राम किया। मेरू पर्वत से प्रस्थान कर वे कैलाश पर्वत पर जा पहुँचे। कैलाश पर कुछ दिन बिताकर वे मलय पर्वत, नन्दन वन होते हुए गन्ध मादन पर्वत पर पहुँच गये। वहाँ महादेव ने बहु प्रकार पार्वती को उद्दीप्त करके काम-क्रीड़ाओं का आनन्द लिया। उन्होंने पार्वती के साथ सैकड़ों वर्ष काम-क्रीड़ाओं में इस प्रकार बिता दिये कि मानो एक रात्रि् ही बीती हो।