"नामदेव": अवतरणों में अंतर

संत शिरोमणि श्री नामदेव जी की जाति
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== जीवनचरित्र ==
नामदेव का जन्म शके 1192 में प्रथम संवत्सर कार्तिक शुक्ल एकादशी को नरसी ब्राह्मणी नामक ग्राम में दामा शेट शिंपी (दर्जीछीपा) के यहाँ हुआ था। इनकासंत मनशिरोमणि पैतृकश्री व्यवसायनामदेव में कभी नहीं लगा। एक दिन जब ये अपने उपास्य आवढ्या के नागनाथ के दर्शन के लिए गए, इन्होंने मंदिर के पास एक स्त्री का अपने रोते हुए बच्चे को बुरी तरह से मारते हुए देखा। इन्होंने जब उससे उसका कारण पूछा, उसने बड़ी वेदना के साथ कहा, "इसके बाप को तो डाकू नामदेवजी ने मार डाला अब मैं कहाँ से इसके पेट में अन्न डालूँ"। नामदेव के मन पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा। ये विरक्त हो पंढरपुर में जाकर "विठोबा" के भक्त हा गए। वहीं इनकी ज्ञानेश्वर परिवार से भेंट हुई और उसी की प्रेरणा से इन्होंने [[नाथ सम्प्रदाय|नाथपंथी]] विसोबा खेचर से दीक्षा ली। जो नामदेव पंढरपुर के "विट्ठल" की प्रतिमा में ही भगवान को देखते थे, वे खेचर के संपर्क में आने के बाद उसे सर्वत्र अनुभव करने लगे। उसकी प्रेमभक्ति में ज्ञान का समावेश हा गया। डॉ॰ मोहनसिंह नामदेव को [[रामानंद]] का शिष्य बतलाते हैं। परन्तु महाराष्ट्र में इनकी बहुमान्य गुरु परंपरा इस प्रकार है -
 
:ज्ञानेश्वर और नामदेव उत्तर भारत की साथ साथ यात्रा की थी। ज्ञानेश्वर मारवाड़ में कोलदर्जी नामक स्थान तक ही नामदेव के साथ गए। वहाँ से लौटकर उन्होंने आलंदी में शके 1218 में समाधि ले ली। ज्ञानेश्वर के वियोग से नामदेव का मन महाराष्ट्र से उचट गया और ये पंजाब की ओर चले गए। [[गुरुदासपुर जिले|गुरुदासपुर जिले]] के घोभान नामक स्थान पर आज भी नामदेव जी का मंदिर विद्यमान है। वहाँ सीमित क्षेत्र में इनका "पंथ" भी चल रहा है। संतों के जीवन के साथ कतिपय चमत्कारी घटनाएँ जुड़ी रहती है। नामदेव के चरित्र में भी सुल्तान की आज्ञा से इनका मृत गाय को जिलाना, पूर्वाभिमुख आवढ्या नागनाथ मंदिर के सामने कीर्तन करने पर पुजारी के आपत्ति उठाने के उपरांत इनके पश्चिम की ओर जाते ही उसके द्वार का पश्चिमाभिमुख हो जाना, विट्ठल की मूर्ति का इनके हाथ दुग्धपान करना, आदि घटनाएँ समाविष्ट हैं। महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर शके 1272 में समाधि ले ली। कुछ विद्वान् इनका समाधिस्थान [[घोमान]] मानते हैं, परंतु बहुमत पंढरपुर के ही पक्ष में हैं।