"कौल (उपनाम)": अवतरणों में अंतर

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'''कौल''' ([[कश्मीरी भाषा|कश्मीरी]]: کول) एक [[कश्मीरी पण्डित]] [[उपनाम]] है।
 
-◆सबसे प्राचीन जनजाति है,
 
◆नृत्य-दहका नृत्य प्रथा।
◆यह सबसे आधुनिक जनजाति है।
◆मुख्यतः रीवा,सीधी,सिंगरौली में निवास करती हैं।
{{भारतीय उपनाम}}
{{आधार}}
 
[[श्रेणी:भारतीय उपनाम]]
Edit by:राजेश मंडलोई
भारतकोष बुक के अनुसार
कोल समाज की व्याख्या-
कोल मध्य प्रदेश के उत्तरी भाग और दक्षिणी उत्तर प्रदेश में रहनेवाले आदिवासी। विंध्यचल तथा कैमूर की पहाड़ियों में ये परंपरागत रूप से रहते आए हैं भारतीय आदिवासी जनसंख्या विषयक प्रारंभिक वृत्तों में मुंडा भाषाभाषी सभी कबीलों को सामूहिक रूप से कोल की संज्ञा दी गई है। कालांतर में इन्हें मुंडारी कबीली कहा जाने लगा, और कोल के अंतर्गत अब केवल उन्हीं लोगों का उल्लेख होता है। जो मध्य प्रदेश और दक्षिणी उत्तर प्रदेश में बृहत्‌ मुंडा समूह के प्रतिनिधि हैं। इस कबीले का एक अंश छोटा नागपुर में है जो लड़ाका कोल के नाम से प्रसिद्ध है। सिंहभूमि के हो कबीलों का निवासस्थान कोलहन कहलाता है ।
कोलों की उत्पत्ति के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । सर विलियम क्रुक ने कोलों का मूल हरिवंश पुराण में वर्णित पाँचवें सोमवंशी राजा ययाति से संबद्ध एक पुरावृत्त में खोजा है। ययाति की 10वीं पीढ़ी में कोल नामक राजा हुआ जो कोलों का पितामह था।
शारीरिक लक्षणों के आधार पर कोलों में पर्याप्त प्रजातीय मिश्रण के चिन्ह मिलते हैं। वी. के. चटर्जी के मत में इनका मूल प्रजातीय आधार प्रॉआस्ट्रेलीय रहा होगा। वर्तमान कोल जनसंख्या में पृथुकपाल (ब्रेकिसेफ़ेलिक) मराठा तथा मंगोल तत्वों की उपस्थिति न्यूनाधिक मात्रा में सूचित करता है।
मूल रूप से कोल बृहद् मुंडारी भाषा की ही एक बोली व्यवहार में लाते थे, किंतु वे अब अपनी प्राचीन भाषा भूलकर स्थानीय हिंद-आर्य (इंडोएरियन) बोली का प्रयोग करने लगे हैं।
कोल कबीले का सांस्कृतिक एवं सामाजिक संगठन बहुत कुछ तक हिंदू समाज के संपर्क से प्रभावित है। इनका निवास अपेक्षाकृत अस्थायी मकानों में ही होता है तथा ये निर्माण के समय हिंदू पंडित को अवश्य बुलाते हैं।
इनमें से अधिकांश कोल हलवाहे का काम करते हैं। केवल कुछ ही व्यक्ति ऐसे है जिनके पास निज की भूमि है। अधिक पिछड़े हुए कोल प्राय: जंगल जलाकर वहाँ खेती करते हैं। प्राय: इन्हें एक बीघा जमीन मुफ्त मिल जाया करती है, जिसे ये कोल या कोलिन कहते हैं।
भोजन में कृषि से प्राप्त खाद्यान्नों के अतिरिक्त मांस का भी व्यवहार होता है, यद्यपि मँहगाई के कारण इसका प्रयोग प्रतिदिन नहीं किया जाता। गौ इनके यहाँ पूज्य है अन्त: उसके मांस के अतिरिक्त मछली, बकरी, मुर्गा, खरगोश, तथा सुअर का मांस इनके यहाँ खाया जाता है। हिंदुओं की भाँति इनके यहाँ भी कच्चे तथा पक्के भोजन में भेद किया जाता है। कोलों में मदिरापान अब प्रचलित नहीं रहा किंतु त्यौहारों और उत्सवों के समय अब भी इसकी खुली छूट होती है ।
कोल पुरूष आभूषणों का प्रयोग नहीं करते, किंतु महिलाएँ विभिन्न प्रकार के गहने पहनती तथा गुदना गुदवाती हैं। इनकी धारणा है कि मृत्युपरांत भगवान्‌ उसी कोलिन का हाथ पकड़ कर बैकुंठ ले जाते हैं। जिसके हाथ पर गुदना हो। इनका यह भी विश्वास है कि इससे शव की क्षय होने से रक्षा होती है। क्योंकि गोदनेवाले भाग को राक्षसी विमाता निगल नहीं सकती।
कोलों के बीच अंतर्विवाही (एंडोगैमस) प्रथा प्रचलित है। विवाह संबंधी वार्ता वर के पिता द्वारा प्रारंभ की जाती है । अधिकांश हिंदुओं की भाँति ये भी कृष्ण पक्ष में विवाहादि कार्य संपन्न नहीं करते। विवाहकार्य के लिये माघ, फाल्गुन, वैशाख एवं ज्येष्ठ मास शुभ माने जाते हैं। वर के घर में वधू द्वारा प्रथम भोज तैयार करवाया जाता है जिसे खिचरी कहते हैं। भोजन के उपरांत वर के मित्र वधू को दैज या दहेज के रूप में उपहार भेंट करते हैं। इनके यहाँ बहु विवाह-प्रथा नहीं के बराबर है। तलाक प्रथा भी इनके यहाँ नहीं है। विधवा विवाह की अनुमति पति की मृत्यु के एक वर्ष उपरांत दे दी जाती है।
कोलों में दत्तक पुत्र लेने की भी प्रथा है। उत्तराधिकार के सभी नियम पुत्रों के लिये समान हैं। ज्येष्ठ पुत्र को अवश्य कुछ अधिक वस्तुएँ प्राप्त होती हैं।
परस्पर विवाह संबंध के आधार पर परिवारों में संबंधक्रम आरंभ होता है। पत्नी के संबंध पति के संबंधों के आधार पर स्थापित होते हैं। पिता की बहन का विवाह जहाँ होता है वह फुफुआवर तथा जहाँ बहन का विवाह हो बहिनावर कहलाते हैं। दादी का परिवार अजियावर तथा माँ का परिवार ननिआवर और जहाँ स्वयं का विवाह हो ससुरार कहलाते हैं। पिता को बाबू, काका, या दादा कहते हैं।
शव का संस्कार इनके यहाँ जलाकर और गाड़ कर दोनों तरह से किया जाता है। चेचक और हैजे आदि बीमारी से हुई मृत्यु के शव को प्राय: नदी में बहा दिया जाता है। मृत पूर्वजों के उपलक्ष में ये भोज दिया करते हैं एवं उनकी पूजा भी करते हैं।
कोल सूर्य को सिंगबोंगा की तरह न मानकर साधारण हिंदू की भांति ही उनकी पूजा करते हैं। ये भूत प्रेतों तथा मृत आत्माओं में विश्वास करते हैं ओर इनकी पूजा भी करते हैं। स्थानीय देवी देवताओं के अतिरिक्त इनके अपने भी कुछ देवता हैं, जिनमें प्रमुख देवता को ये ‘बड़ादेव’ कहते हैं। चैत तथा क्वार मास में इनके यहाँ नवरात्रि का पर्व मनाया जाता है। ‘फगुआ और खिचड़ी’ इनके मुख्य त्यौहार हैं। नागपंचमी भी इनके यहाँ मनाई जाती है। ये जादू, टोने ओर अंधविश्वासों तथा शपथ ग्रहण करने में बहुत श्रद्धा रखते हैं। बोआई के पहले ये ‘हरियरी देवी’ की पूजा करते हैं। बोआई के बाद ‘कुनरू मुंडन’ कार्य संपन्न करते हैं। कृषि प्रारंभ करने का श्रेष्ठ दिन इनके अनुसार शुक्रवार है। नागपंचमी को ये जुताई बंद रखते हैं।
इनके यहाँ पंचायत प्रथा है। पंचायत का प्रधान चौधरी कहलाता है, जिसका पद वंशानुक्रम के आधार पर होता है । पंचायत के अन्य पदाधिकारी प्रत्येक परिवार के प्रधान होते हैं। इसका मुख्य कार्य विवाह एवं नैतिकता संबंधी प्रश्नों का निर्णय करना होता है।
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