"अनेकांतवाद": अवतरणों में अंतर

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। प्रधान धर्म व्यक्त होता है और शेष गौण होने से अव्यक्त रह जाते हैं। वस्तु के किसी एक धर्म के सापेक्ष ग्रहण व प्रतिपादन की प्रक्रिया है
'नय'। सन्मति प्रकरण में [[नयवाद]] और उसके विभिन्न पक्षों का विस्तार से विचार किया गया है। वस्तुबोध की दो महत्त्वपूर्ण दृष्टियां हैं-
द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। द्रव्यार्थिक दृष्टि वस्तु के सामान्य अंश का ग्रहण करती है जबकि पर्यायार्थिक दृष्टि वस्तु के विशेष अंगों का ग्रहण करती है। [[भगवती सूत्रव्याख्याप्रज्ञप्ति|भगवती]] आदि प्राचीन [[आगम (जैन)|आगमों]] में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों दृष्टियों का उल्लेख मिलता है।
 
प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मों का समवाय है। वस्तु में अनन्त विरोधी युगल एक साथ रहते हैं। एक ही वस्तु में वस्तुत्व के निष्पादक परस्पर विरोधी युगलों का प्रकाशन करना ही अनेकान्त है। नित्यत्व-अनित्यत्व, वाच्यत्व-अवाच्यत्व, एकत्व-अनेकत्व आदि विरोधी धर्म परस्पर सापेक्ष रहकर ही अपने अस्तित्व को सुरक्षित रख सकते हैं। <ref>[http://shodhganga.inflibnet.ac.in/bitstream/10603/8458/11/11_chapter%205.pdf नय तथा प्रमाण (शोधगंगा)]</ref>
 
जैन दर्शन के तीन मूलभूत सिद्धान्त हैं- (१) अनेकान्तवाद, (२) नयवाद, (३) [[स्यादवाद|स्याद्वाद]]। आगम युग में नयवाद प्रधान था। दार्शनिक युग अथवा प्रमाण युग में स्याद्वाद और अनेकान्तवाद प्रमुख बन गए, नयवाद गौण हो गया। [[सिद्धसेन दिवाकर|सिद्धसेन]] ने अनेकान्त की परिभाषा
''’अनेके अन्ता धर्मा यत्र सोऽनेकान्तः’'' [[नयवाद]] के आधार पर की है। नयवाद अनेकान्त का मूल आधार है।
 
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* [[स्यादवाद]]
* [[नयवाद]]
* [[सिद्धसेन|सिद्धसेन दिवाकर]]
* [[अनेकान्तिक हेतु]]