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'''रसगंगाधर''' [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] [[साहित्य सिद्धान्त|साहित्यशास्त्र]] पर प्रौढ़ एवं सर्वथा मौलिक कृति है। इसके निर्माता सर्वतंत्र स्वतंत्र [[जगन्नाथ पण्डितराज|पंडितराज जगन्नाथ]] हैं जो नवाव शाहाबुद्दीन के आश्रित तथा आसफ खाँ के द्वारा सम्मानित राजकवि थे। यह [[दारा शिकोह|दाराशिकोह]] के समकालिक थे। पंडितराज न केवल मार्मिक, सहृदय एवं सूक्ष्म समालोचक ही थे अपितु एक प्रतिभाशाली निसर्ग कवि भी।
 
== परिचय ==
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== टीकाएँ==
रसगंगाधर पर सर्वप्राचीन एक टीका "'''गुरुमर्मप्रकाश'''" नामक उपलब्ध है जिसकी रचना वैयाकरण [[नागेश]] के द्वारा हुई है। यह टीका मूल ग्रंथ के साथ अपेक्षित न्याय करने में सर्वथा असिद्ध हुई; अनेकत्र इस टीका में उपहासास्पद भ्रांतियाँ भी है। यह टीका ग्रंथकार के हृदय को खोलकर अध्येता के समक्ष उपस्थित न कर पाई। वस्तुत: टीकाकार की यह अनधिकार चेष्टा असूयाप्रसूत है। इसी त्रुटि के निवारणार्थ एक 'नवीन सरला' नामक टीका [[जयपुर]] निवासी मंजु नाथ के द्वारा साहित्य विद्वान्‌ आचार्यवर्य जग्गू वैंकटाचार्य के परामर्श से निर्मित की गई। यह टीका क्वचित्‌ स्थलों पर तलस्पर्श अवश्य करती है परंतु समग्र ग्रंथ को अपेक्षित रूप से विशद करने का प्रयास नहीं करती। इसके अतिरिक्त [[काशी]] से रसगंगाधर का संस्करण लब्धप्रतिष्ठ विद्वान्‌ महामहोपाध्याय गंगाधर शास्त्री, सी.आई.ई. द्वारा रचित टिप्पणी के साथ प्रकाशित हुआ है। रसगंगाधर का श्री पुरुषोत्तम चतुर्वेदी द्वारा हिंदी अनुवाद किया गया दो भागों में [[नागरीप्रचारिणी सभा|काशी नागरीप्रचारिणी सभा]] से प्रकाशित हुआ है। इसका [[मराठी भाषा|मराठी]] भाषांतर भी पंडित [[अभ्यंकर शास्त्री]] ने प्रस्तुत किया है जो [[पुणे|पूना]] से प्रकाशित हुआ है।
 
वस्तुत: पंडितराज की अपूर्व विवेचनशैली एवं उच्चतर प्रौढ़ि के कारण रसगंगाधर को अप्रतिम सम्मान एवं महनीय उपादेयत्व प्राप्त हुआ है और वही उसपर अनेक टीकाओं एवं अनुवादों की बाढ़ की प्रतिरोधिनी भी सिद्ध हुई।