"सत्य": अवतरणों में अंतर

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== सत्य के विभिन्न सिद्धान्त ==
[[न्याय दर्शन]] में प्रमुख रूप में प्रत्येक निर्णय और [[अनुमान]] पर विचार होता है। इनमें निर्णय का स्थान केंद्रीय है। निर्णय का शाब्दिक प्रकाशन [[वाक्य और वाक्य के भेद|वाक्य]] है। जब हम किसी वाक्य को सुनते हैं, तो उसे स्वीकार करते हैं या अस्वीकार करते हैं; स्वीकार और अस्वीकार में निश्चय न कर सकने की अवस्था संदेह कहलाती है। प्रत्येक निर्णय सत्य होने का दावा करता है। जब हम इसे स्वीकार करते हैं तो इसके दावे को सत्य मानते हैं; अस्वीकार करने में उसे असत्य कहते हैं। विश्वास हमारी साधारण मानसिक अवस्था है। जब किसी विश्वास में त्रुटि दिखाई देती है, तो हम इसका स्थान किसी अन्य विश्वास तक जाने की मानसिक क्रिया ही चिंतन है। विश्वास, सत्य हो या असत्य, क्रिया का आधार है, यही जीवन में इसे महत्वपूर्ण बनाता है। न्याय का काम निर्णय या वाक्य के सत्यासत्य की जाँच करना है; इसके लिए यह बात असंगत है कि कोई इसे वास्तव में सत्य मानता है या नहीं।
 
सत्य के संबंध में दो प्रश्न विचार के योग्य हैं - किसी निर्णय या वाक्य को सत्य कहने में हमारा अभिप्राय क्या होता है।
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== व्यवहारवाद ==
सत्य का तीसरा सिद्धांत "[[व्यवहारवाद]]" या "[[व्यावहारिकतावाद|प्रैग्मेटिज्म]]" के नाम से प्रसिद्ध है। अपने आधुनिक रूप में यह अमरीका की देन है। वास्तव में व्यवहारवाद कोई सिद्धांत नहीं, एक मनोवृत्ति है जो सामान्य से विशेष को, स्थिरता से परिवर्तन को, चिंतन से क्रिया को अधिक महत्व देती है। इस विचार के प्रसार में चाल्र्स पीअर्स, विलियम जेम्स और जान डियूई का विशेष भाग है। पीअर्स नैयामिक था, जेम्स मनोवैज्ञानिक था, डियूई की अभिरुचि नीति और राजनीति में थी। पीअर्स ने प्रत्ययों के "अर्थ" को स्पष्ट करने में व्यवहारवाद की विधि का प्रयोग किया, जेम्स ने "सत्य का स्वरूप निर्णीत करने में इसे बर्ता, डियूई ने "भद्र" पर इसे लागू किया। इस तरह वे न्याय, सौंदर्यशास्त्र और नीति को अनुभववाद के निकट ले आए।
 
पीअर्स ने नए विचार को "प्रैग्मेटिस्म" का नाम दिया। उसकी दृढ़ धारणा थी कि दर्शन को विज्ञान के दृष्टिकोण और उसकी विधि को अपनाना चाहिए। दर्शन के लिए सत्य ज्ञान निरपेक्ष या समग्र का दोषरहित ज्ञान है; विज्ञान की दृष्टि में ऐसा ज्ञान मानव बुद्धि के लिए अप्राप्य है। हमे सापेक्ष ज्ञान से संतुष्ट होना चाहिए, यही हमारे लिए काम की वस्तु है। दर्शन का प्रमुख काम स्वीकृत मान्यताओं को सिद्ध करना रहा है, विज्ञान के लिए आविष्कार प्रमुख है। नवीन वैज्ञानिक विधि में आगमन और निगमन दोनों का समन्वय होता है। कुछ उदाहरणों की नींव पर प्रतिज्ञा की जाती है, उसे सत्य मानकर निष्कर्ष निकाले जाते हैं और अंत में देखा जाता है कि अनुभव इनकी पुष्टि करता है या नहीं। किसी प्रतिज्ञा की ऐसी पुष्टि ही उसकीसत्यता है। प्रत्येक सत्य की स्थिति सामयिक प्रतिज्ञा की स्थिति है। प्राकृतिक नियम भी स्थायी नहीं, वे भी विकासाधीन हैं। आकर्षणयिम का क्षेत्र अब पहले से अधिक विस्तृत है और भविष्य में वर्तमान से भी अधिक विस्तृत हो जाएगा। नियम भी आदतों की तरह पुष्ट होते जाते हैं।
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ऊपर कहा गया है कि व्यवहारवाद सामान्य से विशेष को और स्थिरता से परिवर्तन को अधिक महत्व देता है। डियूई की शिक्षा में हम इसे स्पष्ट देखते हैं।
 
राजनीति में राजतंत्र, शिष्टजनतंत्र और प्रजातंत्र शासनों में भेद किया जाता है। राजतंत्र और शिष्टजनतंत्र अधिक सफल हों, तो भी प्रजातंत्र उनसे अच्छा है, क्योंकि यह व्यक्ति के मूल्य को स्वीकार करता है। नीति में कुछ नियमपालन को और कुछ श्रेय की सिद्धि को लक्ष्य बताते हैं। [[जॉन डुईडिवी|डियूई]] के अनुसार दोनों वर्ग एक ही भ्रांति में पड़े हैं; वे विशेष को उचित महत्व नहीं देते। नीति को एक नहीं अनेक नियमों को, एक नहीं अनेक साध्यों को स्वीकार करना चाहिए। उद्देश्य हर हालत में वर्तमान कठिनाई को दूर करना होता है; जो क्रिया इसमें अधिक से अधिक सहायक हो, वही उस स्थिति में सर्वश्रेष्ठ है। कोई मनुष्य कहीं भी स्थित हो, वह अच्छा मनुष्य है यदि वह आगे बढ़ रहा है, बुरा मनुष्य है यदि पीछे हट रहा है। जीवन का एकमात्र लक्ष्य उत्थान या वृद्धि है; पूर्णता नहीं, अपितु पूर्णता की ओर निरंतर गति है।
 
यह गति ही शिक्षा है, नैतिक जीवन और शिक्षा एक ही वस्तु है। प्रचलित विचार के अनुसार शिक्षाकाल तैयारी का समय है; यह व्यक्ति को पराधीनता से विमुक्त करके स्वाधीन बना देता है। यदि ऐसा ही है, तो शिक्षाकाल की समाप्ति पर शिक्षा की आवश्यकता भी नहीं रहती। डियूई कहता है कि वृद्धि का यत्न तो जीवन के अंत तक जारी रहना चाहिए, सारा जीवन ही शिक्षाकाल है। जो कुछ स्कूलों कालेजों में पढ़ाया जाता है, उसमें साहित्य और भाषाओं के ज्ञान की अपेक्षा विज्ञान को अधिक महत्व मिलना चाहिए। विज्ञान में भी जो भाग पुस्तकों से प्राप्त होता है, उससे अधिक मूल्य उस भाग का है जो विद्यार्थी अपनी क्रिया से सीखता है। मनुष्य का दिमाग का नहीं, क्रिया का अस्त्र है।
"https://hi.wikipedia.org/wiki/सत्य" से प्राप्त