"नासिक्य व्यंजन": अवतरणों में अंतर

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[[स्वनविज्ञान]] में '''नासिक्य व्यंजन''' (nasal consonant) ऐसा [[व्यंजन वर्ण|व्यंजन]] होता है जिसे [[नरम तालू]] को नीचे लाकर उत्पन्न किया जाए और जिसमें मुँह से वायु निकलने पर अवरोध हो लेकिन [[नासिकाओंनासिका]]ओं से निकलने की छूट हो। न, म और ण ऐसे तीन व्यंजन हैं। नासिक्य व्यंजन लगभग हर मानव [[भाषा]] में पाए जाते हैं।<ref>Ladefoged, Peter; Maddieson, Ian (1996). The Sounds of the World's Languages. Oxford: Blackwell. ISBN 0-631-19814-8.</ref>
 
अन्य भाषाओं की तरह [[हिन्दी]] में भी स्वर और व्यंजन दो प्रकार की ध्वनियाँ हैं। व्यंजनों के भी मुख्य दो भेद हैं- मौखिक और नासिक्य। इसी तरह स्वरों के भी मुख्य दो भेद हैं- मौखिक और अनुनासिक। ‘मौखिक’ उन स्वरों को कहते हैं, जिनके उच्चारण के समय अन्दर से आने वाली हवा मुख के रास्ते बाहर निकलती है और ‘अनुनासिक’ के उच्चारण के समय हवा मुख और नाक दोनों रास्तों से बाहर निकलती है। अनुनासिक हिन्दी के अपने स्वर हैं। हिंदी की पूर्ववर्ती भाषाओं- [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]], [[पालि भाषा|पालि]], [[प्राकृत]], [[अपभ्रंश]] में अनुनासिक स्वर नहीं हैं। इसलिए इन भाषाओं की वर्णमाला में अनुनासिक स्वरों को लिखने की कोई व्यवस्था नहीं है। संस्कृत में अनुनासिक स्वर नहीं हैं; इसीलिए देवनागरी की वर्णमाला में अनुनासिक स्वरों को लिखने के लिए अलग से वर्ण नहीं हैं। इसीलिए हिन्दी में मौखिक स्वर वर्णों के ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगा कर अनुनासिक स्वर लिखे जाते हैं। यानी [[चन्द्रबिन्दु]] (ँ) अनुनासिक स्वरों की पहचान है। हिंदी में बिंदी (ं) के दो रूप हैं- एक है चंद्रबिंदु का लघुरूप और दूसरा है अनुस्वार। जो स्वर वर्ण और उनकी मात्राएं शिरोरेखा के नीचे लिखी जाती हैं, उनके अनुनासिक रूप को लिखने के लिए उनके ऊपर चंद्रबिंदु (ँ) लगाया जाता है और जो स्वर वर्ण और उनकी मात्राएं शिरोरेखा के नीचे और नीचे-ऊपर यानी दोनों ओर लिखी जाती हैं, उनके अनुनासिक रूप को लिखने के लिए उनके ऊपर एक बिन्दी लगाई जाती है। इस बिंदी को चंद्रबिंदु का लघुरूप कहते हैं। ऐसा सिर्फ मुद्रण को सुगम बनाने के लिए किया जाता है। हंसना, आंख, ऊंट जैसे शब्दों को चंद्रबिंदु लगा कर लिखा और छापा जाता है (हँसना, आँख, ऊँट लिखना चाहिए), ; पर ‘नहीं’, ‘में’, ‘मैं’, ‘सरसों’, ‘परसों’ जैसे शब्दों में प्रयुक्त बिंदी चंद्रबिंदु का लघुरूप है।
 
अनुस्वार का प्रयोग संयुक्त व्यंजन के प्रथम सदस्य के रूप में आने वाले नासिक्य व्यंजनों (ङ्, ञ्, ण्, न्, म्) के स्थान पर किया जाता है। पर हिंदी में अनुस्वार (ं) के संबंध में एक बड़ी भ्रांति है। हिंदी के बहुत से व्याकरण लेखक और भाषा-चिंतक अनुस्वार (ं) को एक नासिक्य ध्वनि मानते हैं। यह निहायत गलत और भ्रान्त धारणा है। वास्तविकता यह है कि ‘अनुस्वार’ संयुक्त व्यंजन के प्रथम सदस्य के रूप में आने वाले नासिक्य व्यंजनों को लिखने और छापने की सिर्फ एक वैकल्पिक व्यवस्था है। पहले जो शब्द गङ्गा, चञ्चल, पण्डित, सन्त, कम्प के रूप में लिखे जाते थे, बाद में वे गंगा, चंचल, पंडित, संत, कंप के रूप में लिखे जाने लगे। इनके उच्चारण में कोई भेद नहीं है। केवल उनको लिखने में भेद है। वह भी मुद्रण की सुविधा के लिए- यांत्रिक कारण से; व्याकरणिक कारण से नहीं।