"गुरु गोबिन्द सिंह": अवतरणों में अंतर

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| caption =
| birth_name = गोबिन्द राय
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| birth_place = [[पटना]] [[बिहार]], [[भारत]]
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| title = सिखों के दसवें गुरु
| known_for = दसवें सिख गुरु, सिख खालसा सेना के संस्थापक एवं प्रथम सेनापति
| predecessor = [[गुरु तेग़ बहादुर|गुरु तेग बहादुर]]
| successor = [[गुरु ग्रन्थ साहिब|गुरु ग्रंथ साहिब]]
| spouse = [[माता जीतो]], माता सुंदरी, [[माता साहिब देवां]]
| children = [[साहिबजा़दा अजीत सिंह|अजीत सिंह]]<br />[[साहिबजादा जुझार सिंह|जुझार सिंह]]<br />[[साहिबजादा जोरावर सिंह|जोरावर सिंह]]<br />[[साहिबजादा फतेह सिंह|फतेह सिंह]]
| parents = [[गुरु तेग़ बहादुर|गुरु तेग बहादुर]], [[माता गुजरी|माता गूजरी]]
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{{सिक्खी}}
'''गुरु गोबिन्द सिंह''' (जन्म:पौष शुक्ल सप्तमी संवत् 1723 विक्रमी तदनुसार 26 दिसम्बर 1666- मृत्यु 7 अक्टूबर 1708 ) [[सिख धर्म|सिखों]] के [[सिखों के दस गुरुगुरू|दसवें गुरु]] थे। उनके पिता [[गुरु तेग़ बहादुर|गुरू तेग बहादुर]] की मृत्यु के उपरान्त ११ नवम्बर सन १६७५ को वे गुरू बने। वह एक महान योद्धा, कवि, भक्त एवं आध्यात्मिक नेता थे। सन १६९९ में [[बैसाखी]] के दिन उन्होने '''[[ख़ालसा|खालसा]]''' पन्थ की स्थापना की जो सिखों के इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण दिन माना जाता है।
 
गुरू गोबिन्द सिंह ने सिखों की पवित्र ग्रन्थ '''[[गुरु ग्रन्थ साहिब|गुरु ग्रंथ साहिब]]''' को पूरा किया तथा उन्हें [[गुरु]] रूप में सुशोभित किया। '''[[बिचित्र नाटक]]''' को उनकी [[आत्मकथा]] माना जाता है। यही उनके जीवन के विषय में जानकारी का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत है। यह '''[[दसम ग्रंथ|दसम ग्रन्थ]]''' का एक भाग है। दसम ग्रन्थ, गुरू गोबिन्द सिंह की कृतियों के संकलन का नाम है।
 
उन्होने [[मुगलमुग़ल साम्राज्य|मुगलों]] या उनके सहयोगियों (जैसे, शिवालिक पहाडियों के राजा) के साथ १४ युद्ध लड़े। [[धर्म]] के लिए समस्त परिवार का बलिदान उन्होंने किया, जिसके लिए उन्हें 'सरबंसदानी' (सर्ववंशदानी) भी कहा जाता है। इसके अतिरिक्त जनसाधारण में वे कलगीधर, दशमेश, बाजांवाले आदि कई नाम, उपनाम व उपाधियों से भी जाने जाते हैं।
 
गुरु गोविंद सिंह जहां विश्व की बलिदानी परम्परा में अद्वितीय थे, वहीं वे स्वयं एक महान लेखक, मौलिक चिंतक तथा [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] सहित कई भाषाओं के ज्ञाता भी थे। उन्होंने स्वयं कई ग्रंथों की रचना की। वे विद्वानों के संरक्षक थे। उनके दरबार में ५२ कवियों तथा लेखकों की उपस्थिति रहती थी, इसीलिए उन्हें ''''संत सिपाही'''' भी कहा जाता था। वे भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे।
 
उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं '''भै काहू को देत नहि, नहि भय मानत आन।''' वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।
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[[चित्र:Harmandir_Patna.jpg|right|thumb|300px|पटना साहिब]]
<!-- [[चित्र:Guru Gobind Singh 1.jpg|right|thumb|300px|गुरु गोबिंद सिंह जी]] -->
गुरु गोविंद सिंह का जन्म नौवें सिख गुरु [[गुरु तेग़ बहादुर|गुरु तेगबहादुर]] और माता गुजरी के घर [[पटना]] में 26 दिसंबर 1666 को हुआ था। जब वह पैदा हुए थे उस समय उनके पिता [[असम]] में [[धर्म]] [[उपदेश]] को गये थे। उनके बचपन का नाम '''गोविन्द राय''' था। पटना में जिस घर में उनका जन्म हुआ था और जिसमें उन्होने अपने प्रथम चार वर्ष बिताये थे, वहीं पर अब [[तख़्त श्री पटना साहिब|तखत श्री पटना साहिब]] स्थित है।
 
१६७० में उनका परिवार फिर पंजाब आ गया। मार्च १६७२ में उनका परिवार हिमालय के शिवालिक पहाड़ियों में स्थित [[चक्क नानकी]] नामक स्थान पर आ गया। यहीं पर इनकी शिक्षा आरम्भ हुई। उन्होंने [[फ़ारसी भाषा|फारसी]], [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] की शिक्षा ली और एक योद्धा बनने के लिए सैन्य कौशल सीखा। चक्क नानकी ही आजकल [[आनन्दपुर साहिब]] कहलता है।
 
गोविन्द राय जी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गोविन्द जी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
 
[[काश्मीरी पण्डित|काश्मीरी पण्डितों]] का जबरन धर्म परिवर्तन करके मुसलमान बनाये जाने के विरुद्ध फरियाद लेकर गुरु तेग बहादुर जी के दरबार में आये और कहा कि हमारे सामने ये शर्त रखी गयी है कि है कोई ऐसा महापुरुष? जो इस्लाम स्वीकार नहीं कर अपना बलिदान दे सके तो आप सब का भी धर्म परिवर्तन नहीं किया जाएगा उस समय गुरु गोबिंद सिंह जी नौ साल के थे। उन्होंने पिता गुरु तेग बहादुर जी से कहा आपसे बड़ा महापुरुष और कौन हो सकता है! कश्मीरी पंडितों की फरियाद सुन उन्हें जबरन धर्म परिवर्तन से बचाने के लिए स्वयं [[इस्लाम]] न स्वीकारने के कारण ११ नवम्बर १६७५ को औरंगजेब ने दिल्ली के [[चाँदनी चौक|चांदनी चौक]] में सार्वजनिक रूप से उनके पिता [[गुरु तेग़ बहादुर|गुरु तेग बहादुर]] का सिर कटवा दिया। इसके पश्चात [[बैसाखी|वैशाखी]] के दिन २९ मार्च १६७६ को गोविन्द सिंह सिखों के दसवें गुरु घोषित हुए।
 
१०वें गुरु बनने के बाद भी उनकी शिक्षा जारी रही। शिक्षा के अन्तर्गत उन्होनें लिखना-पढ़ना, घुड़सवारी तथा सैन्य कौशल सीखे १६८४ में उन्होने [[चंडी दी वार]] की रचना की। १६८५ तक वह [[यमुना नदी]] के किनारे [[पाओंटा साहिब|पाओंटा]] नामक स्थान पर रहे।
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अप्रैल 1685 में, [[सिरमौर]] के राजा मत प्रकाश के निमंत्रण पर गुरू गोबिंद सिंह ने अपने निवास को सिरमौर राज्य के [[पौंटा साहिब|पांवटा]] शहर में स्थानांतरित कर दिया। सिरमौर राज्य के गजट के अनुसार, राजा भीम चंद के साथ मतभेद के कारण गुरु जी को आनंदपुर साहिब छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था और वे वहाँ से टोका शहर चले गये। मत प्रकाश ने गुरु जी को टोका से सिरमौर की राजधानी [[नाहन]] के लिए आमंत्रित किया। नाहन से वह पांवटा के लिए रवाना हुऐ| मत प्रकाश ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह के खिलाफ अपनी स्थिति मजबूत करने के उद्देश्य से गुरु जी को अपने राज्य में आमंत्रित किया था। राजा मत प्रकाश के अनुरोध पर गुरु जी ने पांवटा में बहुत कम समय में उनके अनुयायियों की मदद से एक किले का निर्माण करवाया। गुरु जी पांवटा में लगभग तीन साल के लिए रहे और कई ग्रंथों की रचना की। <ग्रंथों की सूची >
 
सन 1687 में [[नादौन का युद्ध|नादौन की लड़ाई]] में, गुरु गोबिंद सिंह, भीम चंद, और अन्य मित्र देशों की पहाड़ी राजाओं की सेनाओं ने अलिफ़ खान और उनके सहयोगियों की सेनाओ को हरा दिया था। विचित्र नाटक (गुरु गोबिंद सिंह द्वारा रचित आत्मकथा) और भट्ट वाहिस के अनुसार, नादौन पर बने व्यास नदी के तट पर गुरु गोबिंद सिंह आठ दिनों तक रहे और विभिन्न महत्वपूर्ण सैन्य प्रमुखों का दौरा किया।
 
[[भंगानी का युद्ध|भंगानी के युद्ध]] के कुछ दिन बाद, रानी चंपा (बिलासपुर की विधवा रानी) ने गुरु जी से आनंदपुर साहिब (या चक नानकी जो उस समय कहा जाता था) वापस लौटने का अनुरोध किया जिसे गुरु जी ने स्वीकार किया। वह नवंबर 1688 में वापस आनंदपुर साहिब पहुंच गये।
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[[चित्र:GuruGobindSinghJiGurdwaraBhaiThanSingh.jpg|300px|thumb|right|गुरु गोविन्द सिंह तथा [[पंज प्यारे]](भाई थान सिंह गुरुद्वारा में)]]
[[File:GGS Marg Map.jpg|thumb|300px|गुरु गोबिन्द सिंह मार्ग]]
गुरु गोबिंद सिंह जी का नेतृत्व सिख समुदाय के इतिहास में बहुत कुछ नया ले कर आया। उन्होंने सन 1699 में बैसाखी के दिन '''[[ख़ालसा|खालसा]]''' जो की सिख धर्म के विधिवत् दीक्षा प्राप्त अनुयायियों का एक सामूहिक रूप है उसका निर्माण किया।
 
सिख समुदाय के एक सभा में उन्होंने सबके सामने पुछा – "कौन अपने सर का बलिदान देना चाहता है"? उसी समय एक स्वयंसेवक इस बात के लिए राज़ी हो गया और गुरु गोबिंद सिंह उसे तम्बू में ले गए और कुछ देर बाद वापस लौटे एक खून लगे हुए तलवार के साथ। गुरु ने दोबारा उस भीड़ के लोगों से वही सवाल दोबारा पुछा और उसी प्रकार एक और व्यक्ति राज़ी हुआ और उनके साथ गया पर वे तम्बू से जब बहार निकले तो खून से सना तलवार उनके हाथ में था। उसी प्रकार पांचवा स्वयंसेवक जब उनके साथ तम्बू के भीतर गया, कुछ देर बाद गुरु गोबिंद सिंह सभी जीवित सेवकों के साथ वापस लौटे और उन्होंने उन्हें पंज प्यारे या पहले खालसा का नाम दिया।
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इधर 27 दिसम्बर सन्‌ 1704 को दोनों छोटे साहिबजादे और जोरावर सिंह व फतेह सिंहजी को दीवारों में चुनवा दिया गया। जब यह हाल गुरुजी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा (विजय की चिट्ठी) लिखा, जिसमें उन्होंने औरगंजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
 
8 मई सन्‌ 1705 में '[[श्री मुक्तसर साहिब|मुक्तसर]]' नामक स्थान पर मुगलों से भयानक युद्ध हुआ, जिसमें गुरुजी की जीत हुई। अक्टूबर सन्‌ 1706 में गुरुजी दक्षिण में गए जहाँ पर आपको औरंगजेब की मृत्यु का पता लगा। औरंगजेब ने मरते समय एक शिकायत पत्र लिखा था। हैरानी की बात है कि जो सब कुछ लुटा चुका था, (गुरुजी) वो फतहनामा लिख रहे थे व जिसके पास सब कुछ था वह शिकस्त नामा लिख रहा है। इसका कारण था सच्चाई। गुरुजी ने युद्ध सदैव अत्याचार के विरुद्ध किए थे न कि अपने निजी लाभ के लिए।
 
औरंगजेब की मृत्यु के बाद आपने बहादुरशाह को बादशाह बनाने में मदद की। गुरुजी व बहादुरशाह के संबंध अत्यंत मधुर थे। इन संबंधों को देखकर सरहद का नवाब वजीत खाँ घबरा गया। अतः उसने दो पठान गुरुजी के पीछे लगा दिए। इन पठानों ने गुरुजी पर धोखे से घातक वार किया, जिससे 7 अक्टूबर 1708 में गुरुजी (गुरु गोबिन्द सिंह जी) नांदेड साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गए। अंत समय आपने सिक्खों को गुरु ग्रंथ साहिब को अपना गुरु मानने को कहा व खुद भी माथा टेका। गुरुजी के बाद माधोदास ने, जिसे गुरुजी ने सिक्ख बनाया बंदासिंह बहादुर नाम दिया था, सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारियों की ईंट से ईंट बजा दी।
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*''' [[जाप साहिब]]''' : एक निरंकार के गुणवाचक नामों का संकलन
* '''[[अकाल उस्तत]]''': अकाल पुरख की अस्तुति एवं कर्म काण्ड पर भारी चोट
* '''[[बिचित्र नाटक|बचित्र नाटक]]''' : गोबिन्द सिंह की सवाई जीवनी और आत्मिक वंशावली से वर्णित रचना
* '''[[चण्डी चरित्र]]''' - ४ रचनाएँ - अरूप-आदि शक्ति चंडी की स्तुति। इसमें चंडी को शरीर औरत एवंम मूर्ती में मानी जाने वाली मान्यताओं को तोड़ा है। चंडी को परमेशर की शक्ति = हुक्म के रूप में दर्शाया है। एक रचना [[मार्कण्डेय पुराण]] पर आधारित है।
* '''शास्त्र नाम माला''' : अस्त्र-शस्त्रों के रूप में [[गुरमत]] का वर्णन।
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==इन्हें भी देखें==
*'''[https://www.onlinestudy92.com/2019/12/guru-govindsingh-ki-shikshae-hindi-me.html गुरु गोविन्द की ये बाते आपको जाननी चाहिए]'''
*[[ख़ालसा|खालसा]]
*[[दसम ग्रंथ|दशम ग्रन्थ]]
*[[तख़्त श्री पटना साहिब|तखत श्री पटना साहिब]]
*[[हजूर साहिब]] ([[नांदेड़|नान्देड]])