"संस्कार": अवतरणों में अंतर

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==इतिहास==
वैदिक साहित्य में 'संस्कार' शब्द का प्रयोग नहीं मिलता। संस्कारों का विवेचन मुख्य रुप से [[गृह्यसूत्रस्मार्त सूत्र|गृह्यसूत्रों]] में ही मिलता है, किन्तु इनमें भी संस्कार शब्द का प्रयोग [[यज्ञ]] सामग्री के पवित्रीकरण के अर्थ में किया गया है। [[वैखानस स्मृति सूत्र]] ( 200 से 500 ई.) में सबसे पहले शरीर संबंधी संस्कारों और यज्ञों में स्पष्ट अन्तर मिलता है।
 
[[ऋग्वेद|ॠग्वेद]] में संस्कारों का उल्लेख नहीं है, किन्तु इसके कुछ [[सूक्त|सूक्तों]] में [[विवाह]], [[निषेचन|गर्भाधान]] और [[अन्त्येष्टि क्रिया|अंत्येष्टि]] से संबंधित कुछ धार्मिक कृत्यों का वर्णन मिलता है। [[यजुर्वेद]] में केवल श्रौत यज्ञों का उल्लेख है, इसलिए इस ग्रंथ के संस्कारों की विशेष जानकारी नहीं मिलती। [[अथर्ववेद संहिता|अथर्ववेद]] में विवाह, अंत्येष्टि और गर्भाधान संस्कारों का पहले से अधिक विस्तृत वर्णन मिलता है। [[गोपथ ब्राह्मण]] और [[शतपथ ब्राह्मण]] में [[यज्ञोपवीत|उपनयन]], [[गोदान (उपन्यास)|गोदान]] संस्कारों के धार्मिक कृत्यों का उल्लेख मिलता है। [[तैत्तिरीयोपनिषद|तैत्तिरीय उपनिषद]] में शिक्षा समाप्ति पर आचार्य की दीक्षान्त शिक्षा मिलती है।
 
अर्थात् [[गृह्यसूत्रस्मार्त सूत्र|गृह्यसूत्रों]] से पूर्व संस्कारों के पूरे नियम नहीं मिलते। ऐसा प्रतीत होता है कि गृहसूत्रों से पूर्व पारम्परिक प्रथाओं के आधार पर ही संस्कार होते थे। सबसे पहले गृहसूत्रों में ही संस्कारों की पूरी पद्धति का वर्णन मिलता है। गृह्यसूत्रों में संस्कारों के वर्णन में सबसे पहले विवाह संस्कार का उल्लेख है। इसके बाद गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्नयन, जात- कर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्न- प्राशन, चूड़ा- कर्म, उपनयन और समावर्तन संस्कारों का वर्णन किया गया है। अधिकतर गृह्यसूत्रों में अंत्येष्टि संस्कार का वर्णन नहीं मिलता, क्योंकि ऐसा करना अशुभ समझा जाता था। स्मृतियों के आचार प्रकरणों में संस्कारों का उल्लेख है और तत्संबंधी नियम दिए गए हैं। इनमें उपनयन और विवाह संस्कारों का वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है, क्योंकि उपनयन संस्कार के द्वारा व्यक्ति ब्रह्मचर्य आश्रम में और विवाह संस्कार के द्वारा गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था।
 
[[मनु]] और [[याज्ञवल्क्य]] के अनुसार संस्कारों से [[द्विज|द्विजों]] के [[गर्भ]] और [[बीज]] के दोषादि की शुद्धि होती है। [[कुमारिल भट्ट]] ( ई. आठवीं सदी ) ने तन्त्रवार्तिक ग्रंथ में इसके कुछ भिन्न विचार प्रकट किए हैं। उनके अनुसार मनुष्य दो प्रकार से योग्य बनता है - पूर्व- कर्म के दोषों को दूर करने से और नए गुणों के उत्पादन से। संस्कार ये दोनों ही काम करते हैं।
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==इन्हें भी देखें==
* [[हिन्दू संस्कार]]
* [[प्रक्रमणप्रक्रम]] (प्रॉसेसिंग)
 
==बाहरी कड़ियाँ==