"पाण्डुलिपि": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
No edit summary टैग: मोबाइल संपादन मोबाइल वेब संपादन |
छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है |
||
पंक्ति 1:
{{स्रोतहीन}}
[[चित्र:Nandinagari Manuscript.jpg|thumb|450px|[[नन्दिनागरी|नन्दिनगरी]] में लिखी हुई एक पाण्डुलिपि]]
[[चित्र:SummaryDiagramVertical.png|right|thumb|सूचना का विकास-पथ]]
'''पाण्डुलिपि या मातृकाग्रन्थ''' एक हस्तलिखित ग्रन्थविशेष है । इसको हस्तप्रति, लिपिग्रन्थ इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। [[अंग्रेज़ी भाषा|आङ्ग्ल]] भाषा में यह Manuscript शब्द से प्रसिद्ध है इन ग्रन्थों को MS या MSS इन संक्षेप नामों से भी जाना जाता है। [[हिन्दी|हिन्दी भाषा]] में यह 'पाण्डुलिपि', 'हस्तलेख', 'हस्तलिपि' इत्यादि नामों से प्रसिद्ध है । ऐसा माना जाता है कि सोलहवीं शताब्दी (१६) के आरम्भ में विदेशियों के द्वारा [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] का अध्ययन आरम्भ हुआ । अध्ययन आरम्भ होने के पश्चात इसकी प्रसिद्धि सत्रहवीं शताब्दी के अन्त में और अठारवीं शताब्दी के आरम्भ में मानी जाती है । उस कालखण्ड में [[भारत]] में स्थित मातृकाग्रन्थों का अध्ययन एवं संरक्षण विविध संगठनों के द्वारा किया गया ।
पाण्डुलिपि (manuscript) उस दस्तावेज को कहते हैं जो एक व्यक्ति या अनेक व्यक्तियों द्वारा हाथ से लिखी गयी हो। जैसे हस्तलिखित पत्र। मुद्रित किया हुआ या किसी अन्य विधि से, किसी दूसरे दस्तावेज से (यांत्रिक/वैद्युत रीति से) नकल करके तैयार सामग्री को पाण्डुलिपि नहीं कहते हैं।
पंक्ति 15:
== इतिहास ==
मातृकाग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य भारतीयज्ञान की अतिप्राचीन परम्परा का संरक्षण है । [[वेद|वेदों]] के गंभीर ज्ञान से लेकर [[पञ्चतन्त्र]] की बालकथाओं तक संस्कृत में विषय-विविधता विद्यमान है। हजारों वर्षों से सङ्कलित और संरक्षित यह ज्ञान युगों युगों से चला आ रहा है । अंत: मातृकाग्रन्थों या '''पाण्डुलिपियों''' का इतिहास ही भारतीयपरम्परा का इतिहास माना जाता है । बल-विक्रम और आयु के साथ कालान्तर में मनुष्य की स्मृतिशक्ति का ह्रास हुआ । जिस ह्रास के कारण ज्ञान का और शोधप्रबन्धों का रक्षण करने के लिए मातृकाग्रन्थों की वैज्ञानिक पद्धति का उपयोग आरम्भ हुआ । मातृकाग्रन्थ अनेक प्रकार के होते हैं , परन्तु उनमें [[तालपत्र|ताडपत्र]], [[भोजपत्र|भोजपत्र,]] [[अभिलेख|ताम्रपत्र]] और [[सुवर्णपत्र]] आदि प्रसिद्ध प्रकार हैं । वर्तमान में सर्वाधिक मातृकाग्रन्थ भोजपत्रों और ताडपत्रों में प्राप्त होते हैं । ताडपत्र लौह [[लेखनी]] से लिखे जाते थे । मातृकाग्रन्थों के लेखन में विशिष्ट साधन और कौशल की अपेक्षा होती है । मातृकाग्रन्थ के लेखक विद्वान और कलाओं से पूर्ण (कुशल) होने चाहिए । [[जर्मनी]] देश के वेद विद्वान [[मैक्स मूलर|मैक्समूलर]] (१८२३-१९००) ने अपनी [[पुस्तक]] में लिखा है कि "इस समस्त संसार में ज्ञानियों और पण्डितों का देश एकमात्र [[भारत]] ही है, जहाँ विपुल ज्ञानसम्पदा हस्तलिखित ग्रन्थों के रूप में सुरक्षित है "।
=== सूचिप्रकाशन ===
आरम्भ में [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] मातृकाग्रन्थों का संरक्षण '[[रॉयल एशियाटिक सोसायटी]]' संस्था और 'इण्डिया ऑफिस्' संस्था के द्वारा हुआ । १७८४ ई.में 'रॉयल एशियाटिक सोसाइटी' संस्था की स्थापना हुयी । उस संस्था के द्वारा भारत में विद्यमान मातृकाग्रन्थों का सङ्कलन कार्य प्रारंभ हुआ ।इस संस्था के ग्रन्थ-सङ्ग्रह की सूची १८०७ ई. में [[लंदन|लन्दन]] से प्रकाशित हुयी । उस सूची के मुख्यसम्पादक सर विलियम जोन्स और लेडी जोन्स थे । [[हेनरी टामस कोलब्रुक]] (१७६५-१८३७ ई.) को १८०७ ई. में 'एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल'-संस्था के सभापति के रूप में नियुक्त किया गया । उन्होंने अपने कार्यकाल में अनेक मातृकाग्रन्थों को संरक्षित की । उनके द्वारा लिखित शोधपूर्ण विवरणिका आज भी लन्दन में सुरक्षित है । उनका अनुसरण करते हुए अन्य विद्वानों ने १८१७-१९३४ के मध्य विभिन्न ग्रन्थ-सङ्ग्रहों को प्रकाशित किया । उस कार्य में मुख्य व्यक्ति पं. हरप्रसाद शास्त्री माने जाते हैं । आठवें भाग का सम्पादन १९३४-४० के मध्य श्री चिन्ताहरण चक्रवर्ती ने किया । दशवें भाग का सम्पादन १९४५ में श्रीचन्द्रसेनगुप्त ने किया ।
== इन्हें भी देखें ==
पंक्ति 26:
* [[चर्मपत्र]]
* [[तालपत्र]]
* [[अभिलेख|ताम्रपत्र]]
*[[भांडारकर प्राच्य शोध संस्थान]]
|