"आर्यसत्य": अवतरणों में अंतर

छो Spamming on large scale
टैग: वापस लिया
छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है
पंक्ति 1:
[[Image:Astasahasrika Prajnaparamita Dharmacakra Discourse.jpeg|thumb|350px|right|एक संस्कृत पाण्डुलिपि में चार आर्यसत्यों का उपदेश देते हुए महात्मा बुद्ध (नालन्दा, बिहार)]]
'''आर्यसत्य''' की संकल्पना [[बौद्ध दर्शन]] के मूल सिद्धांत है। इसे [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] में 'चत्वारि आर्यसत्यानि' और [[पालि भाषा|पालि]] में 'चत्तरि अरियसच्चानि' कहते हैं<ref name="गौतम बुद्ध">[https://www.motivatorindia.in/2019/09/gautam-buddha-in-hindi.html गौतम बुद्ध का सम्पूर्ण जीवन]</ref>
{{बौद्ध धर्म}}
 
पंक्ति 10:
*(3) '''निरोध''' : ''दुःख के निवारण हैं'',
 
*(4) '''मार्ग''' : ''निवारण के लिये [[आर्य आष्टांगिक मार्ग|अष्टांगिक मार्ग]] हैं।''
 
प्राणी जन्म भर विभिन्न दु:खों की शृंखला में पड़ा रहता है, यह '''दु:ख आर्यसत्य''' है। संसार के विषयों के प्रति जो तृष्णा है वही '''समुदय आर्यसत्य''' है। जो प्राणी तृष्णा के साथ मरता है, वह उसकी प्रेरणा से फिर भी जन्म ग्रहण करता है। इसलिए तृष्णा की समुदय आर्यसत्य कहते हैं। तृष्णा का अशेष प्रहाण कर देना '''निरोध आर्यसत्य''' है। तृष्णा के न रहने से न तो संसार की वस्तुओं के कारण कोई दु:ख होता है और न मरणोंपरांत उसका पुनर्जन्म होता है। बुझ गए प्रदीप की तरह उसका निर्वाण हो जाता है। और, इस निरोध की प्राप्ति का '''मार्ग आर्यसत्य''' - आष्टांगिक मार्ग है। इसके आठ अंग हैं-सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीविका, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। इस आर्यमार्ग को सिद्ध कर वह मुक्त हो जाता है।