"दण्ड": अवतरणों में अंतर

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[[राजा]], राज्य और छत्र की शक्ति और संप्रभुता का द्योतक और किसी अपराधी को उसके अपराध के निमित्त दी गयी सजा को '''दण्ड''' कहते हैं। एक दूसरे सन्दर्भ में, [[राजनीति|राजनीतिशास्त्र]] के चार उपायों - [[उपाय|साम]], [[कीमत|दाम]], '''दंड''' और [[भेद]] में एक [[उपाय]]। दण्ड का शाब्दिक अर्थ 'डण्डा' (छड़ी) है जिससे किसी को पीटा जाता है।
 
== हिन्दू धर्म में ''दण्ड'' का संस्कारगत अर्थ ==
संस्कारगत क्षेत्र में मुख्य रूप से [[ब्रह्मचारी]] विद्यार्थी के द्वारा धारण किए जानेवाले दंड (छडी) का उल्लेख किया जा सकता है। [[गृह्यसूत्रस्मार्त सूत्र|गृह्यसूत्रों]], [[स्मृति|स्मृतियों]], उनकी टीकाओं, [[वृहत्संहिता]] तथा साधारणतया [[धर्मशास्त्र]] के अन्य ग्रंथों में तत्संबंधी विशद विवरण मिलते हैं। तदनुसार [[ब्राह्मण]], [[क्षत्रिय]] और [[वैश्य]] बालक भिन्न भिन्न अवस्थाओं में जब आचार्य के द्वारा [[यज्ञ]]विधि से [[यज्ञोपवीत|उपनयन संस्कार]] से संस्कृत होते हैं तो उन्हें सौम्यदर्शन और अनुद्वेगकर दण्ड भी धारण करने होते हैं। शास्त्रगत विधान और परंपरागत मान्यताएँ ये हैं कि ब्राह्मण बालक केशांतपर्यंत विल्वदंड, क्षत्रिय बालक ललाटपर्यंत पलाशदंड और वैश्यबालक नासिकापर्यंत उदुंबर ([[गूलर]]) का दंड धारण करें ([[मनुस्मृति]], द्वितीय, 45-47; वृहत्संहिता, 72.3-4)।
 
== राजनीति एवं प्रशासन ==
दण्ड शब्द का मुख्य रूप से प्रयोग राजनीतिशास्त्र और प्रशासन के सम्बन्ध में किया जाता है। जिसके द्वारा अपराधियों को दंडित किया जाय वही दंड है, किंतु इसका प्रयोग होता है राज्य और शासन की सीमा के भीतर। जब राज्य की सीमा के बाहर किसी, शत्रु, मित्र, मध्यस्थ अथवा उदासीन राज्य के प्रति उसका प्रयोग किया जाय तो वह राजनीति के चार उपायों में एक हो जाता है और उससे तात्पर्य होता है '''सैन्य प्रयोग''' का। इन बातों के विचार से संबंध रखनेवाला शास्त्र होता है दंडशास्त्र और उसकी नीति होती है [[दण्डनीति|दंडनीति]]। दंडनीति सरकार और प्रशासन का विज्ञान है, जिसका आधार है नैतिकता और विधि का पालन, जो दंड धारण करनेवाले तथा दंड पानेवाले दोनों ही पर समान रूप से लागू होती है। उसके बिना लोकयात्रा संभव नहीं। (''तस्यामायत्ता लोकयात्रा'' - [[अर्थशास्त्र (ग्रन्थ)|अर्थशास्त्र]], प्रथम आधि, 4-7)। [[कामन्दकीय नीतिसार|कामन्दक नीतिसार]] (द्वितीय 15) ([[शुक्रनीति]], प्रथम, 14) और [[महाभारत]] (शांतिपर्व, 15-8) की परिभाषा के अनुसार अपराधों का दमन (दम) ही दंड अथवा "नीति" कहलाता है। इस कार्य को करनेवाला अर्थात् इस गुण का प्रतीक राजा 'दंडी' कहलाता है, नयन (समाज का सुमार्ग पर नेतृत्व) के कारण। [[शंकराचार्य]] ने [[कामन्दकीय नीतिसार|कामंदक]] की टीका करते हुए [[मनुस्मृति]] (सप्तम्-22) को उद्धृत किया है, जहाँ यह कहा गया है कि सम्पूर्ण लोक दण्ड के भय के कारण ही जगत् का भोग संभव हो पाता है।
 
: ''तस्यसर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च ।
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तीसरी अवस्था में दंड का स्वरूप प्रतीकारात्मक के बदले '''अवरोधक''' हो गया। इसका कारण था दोषी मनुष्य के प्रति दोष किए गए हुए मनुष्य का निपट लेने के बजाय दंड धारण करनेवाले राज्य का बीच में आ जाना। व्यक्तिगत बदले की भावना को समाप्त कर राजकीय दंड की महिमा को स्थापित करना राज्य का उद्देश्य और उसकी बढ़ती हुई शक्ति का द्योतक हो गया। दीवानी के मामलों में अर्थदंड आदि द्वारा दोष किए गए हुए व्यक्ति को कुछ बदला दिलाना यद्यपि वैध माना गया, फौजदारी के मामलों में बदला लेना अब असंभव था। किंतु कठोर - कभी कभी तो अत्यंत क्रूर और असभ्य दंडों का दिया जाना प्रायः नियम सा था। यदि हम उपनिषदों के दैवदंडों, बौद्धग्रंथों (हिस्ट्री ऑव कोशल—वि पाठक, पृष्ठ 338-342) में वर्णित दंडों, [[अर्थशास्त्र]] के द्वारा हाथ पाँव काट लिए जाने की अनुशंसाओं तथा [[मेगेस्थनीज]] द्वारा की जानेवाली उसकी संपुष्टियों को देखें अथवा पूर्व और पश्चिम दोनों ही ओर प्रचलित मध्यकालीन और कुछ हद तक आधुनिक काल के प्रारंभ तक के दंडों का विवेचन करें तो यह कहना होगा कि वे अत्यन्त ही क्रूर और आधुनिक दृष्टि से बर्बर थे। उनका उद्देशय था औरों में अपराध करने के प्रति भय उत्पन्न करना। इनमें अंग-भंग, जीवित जला दिया जाना, मृत्युदंड, आजीवन कारावास और असह्य यातनाओं से भरे हुए दंड होते हैं। निरोधक दंडों में अपराध के कारण अथवा उसके भविष्य के कर्ता को ही उससे रोक देने का उपाय किया जाता है, जो उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता छीनकर संपन्न होता है। भारतवर्ष का निरोधक जेल विधान (Preventive Detention Act) इसी श्रेणी में है।
 
चौथा और सर्वोत्तम दंड का प्रकार है सुधारात्मक। सभ्यता के विकास के क्रम में भी यद्यपि सभी देशों में संभावित दोषियों के प्रति दोषों के गंभीर परिणाम और दंडयातनाओं का भय उपस्थित करने के लिय कठोर अवरोधक दंड दिए जाते रहे हैं, पर कभी-कभी सुधारात्मक प्रवृत्तियाँ भी उठती रही हैं। प्राचीन रोम में दोषी की स्वतंत्रता का हरण (जेल में डाल देना) मात्र ही सबसे बड़ा दंड माना गया और उसके बाद कोई यातना आवश्यक नहीं समझी गई (ad continendos non ad puriendos)। भारतवर्ष में [[चाणक्य|कौटिल्य]] ने काराग्रस्तों को प्रायश्चित्त कराने और अपने पापों का बोध कराने की व्यवस्था के द्वारा उन्हें विशुद्ध कराने का उल्लेख (द्वितीय, 36,589) किया है। अशोक ने भी अपने चतुर्थ स्तंभलेख में व्यवहारसमता और दंडसमता के साथ शुद्धचरित्र, धर्मरत और सद्व्यवहारी दोषियों के दंडों को कम करने का आदेश दिया है। ये बातें दंड विधान की सुधारात्मक प्रवृत्ति की द्योतक हैं। स्मृतियों में धिग्दंड अथवा वाग्दंड की चर्चाएँ आती हैं, जो सर्वदा कायदंड और वधदंड से पहले आता था। उसका तात्पर्य यह था कि सामाजिक निंदा मात्र से यदि काम चल जाय तो कठोर यातनाओं की आवश्यकताएँ ही क्या ? एक नियम तो सर्वमान्य था और वह यह कि दंड "यथाहै" हो और वह आप्तदोष होने पर ही दिया जाना चाहिए।
 
20वीं शती में दंडविधान को '''सुधारात्मक''' स्वरूप देने के प्रयत्न हो रहे हैं। 1872 ई में [[लंदन|लन्दन]] में एक अंतरराष्ट्रीय जेल सुधार और दंडविधान के किसी अंतरराष्ट्रीय स्वरूप को निश्चित करने के लिये सभा हुई। बाद में तत्संबंधी सामूहिक संघटन भी स्थापित हुए पर उसके सदस्य अधिकांशत: यूरोपीय देश ही रहे। धीरे धीरे कठोर दंडों के स्थान पर काराग्रस्त दोषी के नैतिक जीवन का पुनरुज्जीवन लक्ष्य माना जाने लगा। उसमें भय की अपेक्षा आशा अधिक रखी जाने लगी है। दंड के सुधारात्मक सिद्धांत में उसका विधान दोषी की अवस्था, सामाजिक वातावरण और स्थितिविशेष के आधार पर किया जाता है। दोषों के लिये समाज और वातावरण को भी उत्तरदायी माना जाता है। अत: दोषी को सुधारने के लिये मनोवैज्ञानिक उपायों का प्रयोग, उसका वैयक्तिक स्तर पर विचार, दोषी बालकों के लिय सुधारभवनों की व्यवस्था, औद्योगिक शिक्षा, साधारण शिक्षा, नैतिक और धार्मिक व्याख्यान और अन्य सुनियोजित व्यवस्थाएँ की जाती हैं। भारतवर्ष में भी कुछ अन्य देशों की तरह काराग्रस्तों को बँधनेवाले बाँधों, सड़कों अथवा अन्य निर्माणों में नौकरी और मजदूरी कराने अथवा औद्योगिक शिक्षाओं के द्वारा समाजोपयोगी और परिवारसेवी बनाने के प्रयत्न प्रारंभ हैं। असंभव नहीं कि कुछ सदियों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अपहरण मात्र सबसे बड़ा दंड माना जाय और मानव स्वभाव इतना उदात्त और पवित्र हो जाये कि प्राणाहरण और आजीवन कठोर कारावास जैसे दंडों की आवश्यकता ही न रहे।
 
==इन्हें भी देखें==
"https://hi.wikipedia.org/wiki/दण्ड" से प्राप्त