असत्कार्यवाद, कारणवाद का न्यायदर्शनसम्मत सिद्धांत है।
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'''सत्कार्यवाद''', [[सांख्य दर्शन|सांख्यदर्शन]] का मुख्य आधार है। इस सिद्धान्त के अनुसार, बिना [[कारणता|कारण]] के कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। फलतः, इस जगत की उत्पत्ति [[शून्य]] से नहीं किसी मूल सत्ता से है। यह सिद्धान्त [[बौद्ध धर्म|बौद्धों]] के [[शून्यता|शून्यवाद]] के विपरीत है।
 
कार्य, अपनी उत्पत्ति के पूर्ण कारण में विद्यमान रहता है। कार्य अपने कारण का सार है। कार्य तथा कारण वस्तुतः समान प्रक्रिया के व्यक्त-अव्यक्त रूप हैं। सत्कार्यवाद के दो भेद हैं- परिणामवाद तथा विवर्तवाद। '''परिणामवाद''' से तात्पर्य है कि कारण वास्तविक रूप में कार्य में परिवर्तित हो जाता है। जैसे तिल तेल में, दूध दही में रूपांतरित होता है। '''विवर्तवाद''' के अनुसार परिवर्तन वास्तविक न होकर आभास मात्र होता है। जैसे-रस्सी में सर्प का आभास होना।
 
'''असत्कार्यवाद''', [[कारणवाद]] का [[न्यायदर्शनन्याय दर्शन|न्यायदर्शनसम्मत]]सम्मत सिद्धांत है। इसके अनुसार कार्य उत्पत्ति के पहले नहीं रहता। न्याय के अनुसार उपादान और निमित्त कारण अलग-अलग कार्य उत्पन्न करने की पूर्ण शक्ति नहीं है किंतु जब ये कारण मिलकर व्यापारशील होते हैं तब इनकी सम्मिलित शक्ति ऐसा कार्य उत्पन्न होता है जो इन कारणों से विलक्षण होता है। अत: कार्य सर्वथा नवीन होता है, उत्पत्ति के पहले इसका अस्तित्व नहीं होता। कारण केवल उत्पत्ति में सहायक होते हैं।
 
[[सांख्य दर्शन|सांख्यदर्शन]] इसके विपरीत कार्य को उत्पत्ति के पहले कारण में स्थित मानता है, अत: उसका सिद्धांत सत्कार्यवाद कहलाता है। न्यायदर्शन, भाववादी और यथार्थवादी है। इसके अनुसार उत्पत्ति के पूर्व कार्य की स्थिति माना अनुभवविरुद्ध है। न्याय के इस सिद्धांत पर आक्षेप किया जाता है कि यदि असत् कार्य उत्पन्न होता है तो [[शशश्रृंग]] जैसे असत् कार्य भी उत्पन्न होने चाहिए। किंतु [[न्यायमंजरी]] में कहा गया है कि असत्कार्यवाद के अनुसार असत् की उत्पत्ति नहीं मानी जाती। अपितु जो उत्पन्न हुआ है उसे उत्पत्ति के पहले असत् माना जाता है।
 
[[श्रेणी:भारतीय दर्शन]]