"मदनमोहन मालवीय": अवतरणों में अंतर

पिता का नाम
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|incumbent =
|birth_date = 25 दिसम्बर 1861
|birth_place = [[इलाहाबाद|प्रयाग]], [[ब्रिटिश भारत के प्रेसीडेंसी और प्रांत|ब्रिटिश भारत]]
|death_date = 12 नवम्बर 1946 ([[आयु]]: 85वर्ष)
|death_place = [[वाराणसी|बनारस]], [[ब्रिटिश भारत के प्रेसीडेंसी और प्रांत|ब्रिटिश भारत]]
|nationality = भारतीय
|office = [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष]]
|term =1909–10; 1918–19; 1930-1931; 1932-1933
|party = [[अखिल भारतीय हिन्दू महासभा|हिन्दू महासभा]]
[[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस]]
|alma_mater = [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय|प्रयाग विश्वविद्यालय]]<br />[[कलकत्ता विश्वविद्यालय]]
|occupation =
}}
'''महामना मदन मोहन मालवीय''' (25 दिसम्बर 1861 - 1946) [[काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय|काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] के प्रणेता तो थे ही इस युग के आदर्श पुरुष भी थे। वे [[भारत]] के पहले और अन्तिम व्यक्ति थे जिन्हें '''महामना''' की सम्मानजनक उपाधि से विभूषित किया गया। पत्रकारिता, वकालत, समाज सुधार, मातृ भाषा तथा भारतमाता की सेवा में अपना जीवन अर्पण करने वाले इस महामानव ने जिस [[विश्वविद्यालय]] की स्थापना की उसमें उनकी परिकल्पना ऐसे विद्यार्थियों को शिक्षित करके देश सेवा के लिये तैयार करने की थी जो देश का मस्तक गौरव से ऊँचा कर सकें। मालवीयजी सत्य, ब्रह्मचर्य, व्यायाम, देशभक्ति तथा आत्मत्याग में अद्वितीय थे। इन समस्त आचरणों पर वे केवल उपदेश ही नहीं दिया करते थे अपितु स्वयं उनका पालन भी किया करते थे। वे अपने व्यवहार में सदैव मृदुभाषी रहे।
कर्म ही उनका जीवन था। अनेक संस्थाओं के जनक एवं सफल संचालक के रूप में उनकी अपनी विधि व्यवस्था का सुचारु सम्पादन करते हुए उन्होंने कभी भी रोष अथवा कड़ी भाषा का प्रयोग नहीं किया।
 
[[भारत सरकार]] ने २४ दिसम्बर २०१५ को उन्हें [[भारत रत्‍न|भारत रत्न]] से अलंकृत किया।<ref>{{cite web|url=https://scroll.in/article/697640/madan-mohan-malviya-how-a-four-time-congress-president-became-a-bjp-icon|title=Madan Mohan Malviya: how a four-time Congress president became a BJP icon}}</ref>
 
== प्रारम्भिक जीवन एवं शिक्षा ==
मालवीयजी का जन्म [[इलाहाबाद|प्रयाग]] में, जिसे स्वतन्त्र भारत में [[इलाहाबाद|प्रयागराज]] कहा जाता है, 25 दिसम्बर 1861 को पं० ब्रजनाथ व मूनादेवी के यहाँ हुआ था। वे अपने माता-पिता से उत्पन्न कुल सात भाई बहनों में पाँचवें [[बेटा|पुत्र]] थे। [[मध्य भारत (पूर्व राज्य)|मध्य भारत]] के [[मालवा]] प्रान्त से प्रयाग आ बसे उनके [[पूर्वज]] मालवीय कहलाते थे। आगे चलकर यही जातिसूचक नाम उन्होंने भी अपना लिया। उनके पिता पण्डित ब्रजनाथजी [[संस्कृत भाषा]] के प्रकाण्ड विद्वान थे। वे [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] की कथा सुनाकर अपनी आजीविका अर्जित करते थे।<ref name=gr>{{cite book |title=The Great Indian patriots, Volume 1 |last=Rao |first=P. Rajeswar |authorlink= |year=1991|publisher=Mittal Publications |isbn=81-7099-280-X |pages=10–13 |url=http://books.google.co.in/books?id=eTrs9MF9374C&pg=PA10&dq=Madan+Mohan+Malaviya&lr=&cd=5#v=onepage&q=Madan%20Mohan%20Malaviya&f=false |ref= }}</ref><ref name=ou>{{cite book |title=Our Leaders (Volume 9 of Remembering Our Leaders): Madan Mohan Malaviya|last= |first= |year=1989 |publisher=Children's Book Trust |isbn=81-7011-842-5|pages=53–73 |url=http://books.google.co.in/books?id=2NoVNSyopVcC&pg=PA61&lpg=PA61&dq=Madan+Mohan+Malaviya+Scouting&source=bl&ots=4oVY8PFiXf&sig=bzIWnjpIp9KGyErYK9A3C6A_x4I&hl=en&ei=AntIS9WNIYqTkAWe6oD4Ag&sa=X&oi=book_result&ct=result&resnum=1&ved=0CAcQ6AEwADgo#v=onepage&q=&f=false |ref= }}</ref>
 
पाँच वर्ष की आयु में उन्हें उनके माँ-बाप ने संस्कृत भाषा में प्रारम्भिक शिक्षा लेने हेतु पण्डित हरदेव धर्म ज्ञानोपदेश पाठशाला में भर्ती करा दिया जहाँ से उन्होंने प्राइमरी परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके पश्चात वे एक अन्य विद्यालय में भेज दिये गये जिसे प्रयाग की विद्यावर्धिनी सभा संचालित करती थी। यहाँ से शिक्षा पूर्ण कर वे इलाहाबाद के जिला स्कूल पढने गये। यहीं उन्होंने '''मकरंद''' के [[उपनाम]] से कवितायें लिखनी प्रारम्भ कीं। उनकी कवितायें पत्र-पत्रिकाओं में खूब छपती थीं। लोगबाग उन्हें चाव से पढते थे। 1879 में उन्होंने म्योर सेण्ट्रल कॉलेज से, जो आजकल [[इलाहाबाद विश्वविद्यालय]] के नाम से जाना जाता है, मैट्रीकुलेशन (दसवीं की परीक्षा) उत्तीर्ण की। हैरिसन स्कूल के प्रिंसपल ने उन्हें छात्रवृत्ति देकर [[कलकत्ता विश्वविद्यालय]] भेजा जहाँ से उन्होंने 1884 ई० में बी०ए० की उपाधि प्राप्त की।
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मालवीय जी ने प्रयाग की धर्म ज्ञानोपदेश तथा विद्याधर्म प्रवर्द्धिनी पाठशालाओं में संस्कृत का अध्ययन समाप्त करने के पश्चात् म्योर सेंट्रल कालेज से 1884 ई० में कलकत्ता विश्वविद्यालय की बी० ए० की उपाधि ली। इस बीच अखाड़े में व्यायाम और सितार पर शास्त्रीय संगीत की शिक्षा वे बराबर देते रहे। उनका व्यायाम करने का नियम इतना अद्भुत था कि साठ वर्ष की अवस्था तक वे नियमित व्यायाम करते ही रहे।
 
सात वर्ष के मदनमोहन को धर्मज्ञानोपदेश पाठशाला के देवकीनन्दन मालवीय माघ मेले में ले जाकर मूढ़े पर खड़ा करके व्याख्यान दिलवाते थे। शायद इसका ही परिणाम था कि कांग्रेस के द्वितीय अधिवेशन में अंग्रेजी के प्रथम भाषण से ही प्रतिनिधियों को मन्त्रमुग्ध कर देने वाले मृदुभाषी (सिलवर टंग्ड) मालवीयजी उस समय विद्यमान भारत देश के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी, संस्कृत और अंग्रेजी के व्याख्यान वाचस्पतियों में इतने अधिक प्रसिद्ध हुए। हिन्दू धर्मोपदेश, मन्त्रदीक्षा और सनातन धर्म प्रदीप ग्रथों में उनके धार्मिक विचार अज भी उपलब्ध हैं जो परतन्त्र भारत देश की विभिन्न समस्याओं पर बड़ी कौंसिल से लेकर असंख्य सभा सम्मेलनों में दिये गये हजारों व्याख्यानों के रूप में भावी पीढ़ियों के उपयोगार्थ प्रेरणा और ज्ञान के अमित भण्डार हैं। उनके बड़ी कौंसिल में रौलट बिल के विरोध में निरन्तर साढ़े चार घण्टे और अपराध निर्मोचन ([[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेजी]]: Indemnity) बिल पर पाँच घण्टे के भाषण निर्भयता और गम्भीरतापूर्ण दीर्घवक्तृता के लिये आज भी स्मरणीय हैं। उनके उद्घरणों में हृदय को स्पर्श करके रुला देने की क्षमता थी, परन्तु वे अविवेकपूर्ण कार्य के लिये श्रोताओं को कभी उकसाते नहीं थे।
 
म्योर कालेज के मानसगुरु महामहोपाध्याय पं० [[आदित्यराम भट्टाचार्य]] के साथ 1880 ई० में स्थापित '''हिन्दू समाज''' में मालवीयजी भाग ले ही रहे थे कि उन्हीं दिनों प्रयाग में वाइसराय [[लार्ड रिपन]] का आगमन हुआ। रिपन जो स्थानीय स्वायत्त शासन स्थापित करने के कारण भारतवासियों में जितने लोकप्रिय थे उतने ही अंग्रेजों के कोपभाजन भी। इसी कारण प्रिसिपल हैरिसन के कहने पर उनका स्वागत संगठित करके मालवीयजी ने प्रयाग वासियों के हृदय में अपना विशिष्ट स्थान बना लिया।
 
=== अन्य उल्लेखनीय कार्य ===
[[कालाकाँकर]] के देशभक्त राजा रामपाल सिंह के अनुरोध पर मालवीयजी ने उनके हिन्दी अंग्रेजी समाचार पत्र [[हिन्दुस्तान]] का 1887 से सम्पादन करके दो ढाई साल तक जनता को जगाया। उन्होंने कांग्रेस के ही एक अन्य नेता पं0 अयोध्यानाथ का उनके [[इण्डियन ओपीनियन]] के सम्पादन में भी हाथ बँटाया और 1907 ई0 में साप्ताहिक '''[[अभ्युदय]]''' को निकालकर कुछ समय तक उसे भी सम्पादित किया। यही नहीं सरकार समर्थक समाचार पत्र [[पायोनियर कार्यक्रम|पायोनियर]] के समकक्ष 1909 में दैनिक 'लीडर' अखबार निकालकर लोकमत निर्माण का महान कार्य सम्पन्न किया तथा दूसरे वर्ष '''मर्यादा पत्रिका''' भी प्रकाशित की। इसके बाद उन्होंने 1924 ई0 में [[दिल्ली]] आकर हिन्दुस्तान टाइम्स को सुव्यवस्थित किया तथा [[सनातन धर्म]] को गति प्रदान करने हेतु [[लाहौर]] से विश्वबन्द्य जैसे अग्रणी पत्र को प्रकाशित करवाया।
 
'''[[हिन्दी]] के उत्थान''' में मालवीय जी की भूमिका ऐतिहासिक है। [[भारतेन्दु हरिश्चंद्र|भारतेंदु हरिश्चंद्र]] के नेतृत्व में हिन्दी गद्य के निर्माण में संलग्न मनीषियों में 'मकरंद' तथा 'झक्कड़सिंह' के उपनाम से विद्यार्थी जीवन में रसात्मक काव्य रचना के लिये ख्यातिलब्ध मालवीयजी ने देवनागरी लिपि और हिन्दी भाषा को पश्चिमोत्तर प्रदेश व अवध के गवर्नर सर एंटोनी मैकडोनेल के सम्मुख 1898 ई0 में विविध प्रमाण प्रस्तुत करके कचहरियों में प्रवेश दिलाया। [[अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन|हिन्दी साहित्य सम्मेलन]] के प्रथम अधिवेशन ([[काशी]]-1910) के अध्यक्षीय अभिभाषण में हिन्दी के स्वरूप निरूपण में उन्होंने कहा कि "उसे फारसी अरबी के बड़े बड़े शब्दों से लादना जैसे बुरा है, वैसे ही अकारण संस्कृत शब्दों से गूँथना भी अच्छा नहीं और भविष्यवाणी की कि एक दिन यही भाषा राष्ट्रभाषा होगी।" सम्मेलन के एक अन्य वार्षिक अधिवेशन (बम्बई-1919) के सभापति पद से उन्होंने हिन्दी उर्दू के प्रश्न को, धर्म का नहीं अपितु राष्ट्रीयता का प्रश्न बतलाते हुए उद्घोष किया कि साहित्य और देश की उन्नति अपने देश की भाषा द्वारा ही हो सकती है। समस्त देश की प्रान्तीय भाषाओं के विकास के साथ-साथ हिन्दी को अपनाने के आग्रह के साथ यह भविष्यवाणी भी की कि कोई दिन ऐसा भी आयेगा कि जिस भाँति अंग्रेजी विश्वभाषा हो रही है उसी भाँति हिन्दी का भी सर्वत्र प्रचार होगा। इस प्रकार उन्होंने हिन्दी को अन्तर्राष्ट्रीय रूप का लक्ष्य भी दिया।
 
कांग्रेस के निर्माताओं में विख्यात मालवीयजी ने उसके द्वितीय अधिवेशन (कलकत्ता-1886) से लेकर अपनी अन्तिम साँस तक स्वराज्य के लिये कठोर तप किया। उसके प्रथम उत्थान में नरम और गरम दलों के बीच की कड़ी मालवीयजी ही थे जो गान्धी-युग की कांग्रेस में हिन्दू मुसलमानों एवं उसके विभिन्न मतों में सामंजस्य स्थापित करने में प्रयत्नशील रहे। [[एनी बेसेन्ट|एनी बेसेंट]] ने ठीक कहा था कि "मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच, केवल मालवीयजी भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हुए हैं।" [[असहयोग आन्दोलन]] के आरम्भ तक नरम दल के नेताओं के कांग्रेस को छोड़ देने पर मालवीयजी उसमें डटे रहे और कांग्रेस ने उन्हें चार बार सभापति निर्वाचित करके सम्मानित किया- लाहौर (1909 में), दिल्ली (1918 और 1931 में) तथा कलकत्ता (1933 में)। यद्यपि अन्तिम दोनों बार वे सत्याग्रह के कारण पहले ही गिरफ्तार कर लिये गये। स्वतन्त्रता के लिये उनकी तड़प और प्रयासों के परिचायक फैजपुर कांग्रेस (1936) में राष्ट्रीय सरकार और चुनाव प्रस्ताव के समर्थन में मालवीयजी के ये शब्द स्मरणीय हैं कि मैं पचास वर्ष से कांग्रेस के साथ हूँ। सम्भव है मैं बहुत दिन न जियूँ और अपने जी में यह कसक लेकर मरूँ कि भारत अब भी पराधीन है। किंतु फिर भी मैं यह आशा करता हूँ कि मैं इस भारत को स्वतन्त्र देख सकूँगा।
 
=== स्वातन्त्र्य संग्राम में भूमिका ===
[[चित्र:Electrical Engg Deptt IT-BHU.JPG|thumb|right|200px|[[काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय|काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]] का एक विभाग]]
[[असहयोग आन्दोलन|असहयोग आंदोलन]] के चतुर्सूत्री कार्यक्रम में शिक्षा संस्थाओं के बहिष्कार का मालवीयजी ने खुलकर विरोध किया जिसके कारण उनके व्यक्तित्व के प्रभाव से हिन्दू विश्वविद्यालय पर उसका अधिक प्रभाव नहीं पड़ा। 1921 ई0 में कांग्रेस के नेताओं ने जेल भर जाने पर किंकर्तव्यविमूढ़ वाइसराय लॉर्ड रीडिंग को प्रान्तों में स्वशासन देकर गान्धीजी से सन्धि कर लेने को मालवीयजी ने भी सहमत कर लिया था परन्तु 4 फ़रवरी 1922 के [[चौरी चौरा कांड|चौरीचौरा काण्ड]] ने इतिहास को पलट दिया। गान्धीजी ने बारदौली की कार्यकारिणी में बिना किसी से परामर्श किये सत्याग्रह को अचानक रोक दिया। इससे कांग्रेस जनों में असन्तोष फैल गया और यह खुसुरपुसुर होने लगी कि बड़ा भाई के कहने में आकर गान्धीजी ने यह भयंकर भूल की है। गान्धीजी स्वयं भी पाँच साल के लिये जेल भेज दिये गये। इसके परिणामस्वरूप चिलचिलाती धूप में इकसठ वर्ष के बूढ़े मालवीय ने [[पेशावर]] से [[डिब्रूगढ़]] तक तूफानी दौरा करके राष्ट्रीय चेतना को जीवित रखा। इस भ्रमण में उन्होंने बहुत बार कुख्यात धारा 144 का उल्लंघन भी किया जिसे सरकार खून का घूँट समझकर पी गयी। परन्तु 1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में उसी ब्रिटिश सरकार ने उन्हें बम्बई में गिरफ्तार कर लिया जिस पर श्रीयुत् [[भगवान दास]] (भारतरत्न) ने कहा था कि मालवीयजी का पकड़ा जाना राष्ट्रीय यज्ञ की पूर्णाहुति समझी जानी चाहिये। उसी साल दिल्ली में अवैध घोषित कार्यसमिति की बैठक में मालवीयजी को पुन: बन्दी बनाकर नैनी जेल भेज दिया गया। यह उनकी जीवनचर्या तथा वृद्धावस्था के कारण यथार्थ में एक प्रकार की तपस्या थी। परन्तु सैद्धान्तिक मतभेद के कारण हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रिंस ऑव वेल्स का स्वागत और कांग्रेस [[स्वराज पार्टी]] के समकक्ष कांग्रेस स्वतंत्र दल व रैमजे मैकडॉनल्ड के साम्प्रदायिक निर्णय पर, जिसकी स्वीकृति को मालवीयजी ने राष्ट्रीय आत्महत्या माना। इस प्रकार कांग्रेस की अस्वीकार नीति के कारण निर्णय विरोधी सम्मेलन और राष्ट्रीय कांग्रेस दल का पुन: संगठन करने जैसे उनके कांग्रेस विरोध के उदाहरण भी इतिहास उल्लेखनीय हैं।
 
=== धर्म संस्कृति रक्षा ===
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== सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ==
* महामना पं0 मदनमोहन मालवीय : जीवनचरित (75 वीं वर्षगाँठ का अभिनन्दन ग्रन्थ 1936) प्रकाशक: मालवीय जीवन चरित समिति, [[काशी]],
* जवाहरलाल नेहरू : ऐन आटोबायोग्रैफी (रिबॉडले हेड [[लंदन|लन्दन]])
* महामना पंडित मदनमोहन मालवीय (संस्मरण) 1957, सम्पादन: चन्द्रबली त्रिपाठी, प्रकाशक: दुर्गावती त्रिपाठी, मदन मोहन मालवीय मार्ग, [[बस्ती, उत्तर प्रदेश|बस्ती]],
* इंडिया विंस फ्रीडम : मौलाना अबुल कलाम आजाद, 1959, ओरिएंट लॉगमैंस लिमिटेड [[कोलकाता|कलकत्ता]],
* नेहरू जी अपनी ही भाषा में, 1962, रामनारायण चौधरी, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर [[अहमदाबाद]]-14
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[काशी हिन्दू विश्‍वविद्यालय|काशी हिन्दू विश्वविद्यालय]]
* [[अखिल भारतीय हिन्दू महासभा|हिन्दू महासभा]]
 
== बाहरी कड़ियाँ ==