"ईश्वर चन्द्र विद्यासागर": अवतरणों में अंतर

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| birth_name = Ishwar Chandra Bandopadhyay
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'''ईश्वर चन्द्र विद्यासागर''' ([[बाङ्ला भाषा|बांग्ला]] में, ঈশ্বর চন্দ্র বিদ্যাসাগর ; २६ सितम्बर १८२० – २९ जुलाई १८९१) उन्नीसवीं शताब्दी के [[बंगाल]] के प्रसिद्ध दार्शनिक, शिक्षाविद, समाज सुधारक, लेखक, अनुवादक, मुद्रक, प्रकाशक, उद्यमी और परोपकारी व्यक्ति थे। वे [[बंगाल का पुनर्जागरणनवजागरण|बंगाल के पुनर्जागरण]] के स्तम्भों में से एक थे। उनके बचपन का नाम '''ईश्वर चन्द्र बन्दोपाध्याय''' था। [[संस्कृत भाषा]] और [[दर्शनशास्त्र|दर्शन]] में अगाध पाण्डित्य के कारण विद्यार्थी जीवन में ही [[संस्कृत कॉलेज]] ने उन्हें 'विद्यासागर' की उपाधि प्रदान की थी।
 
वे नारी शिक्षा के समर्थक थे। उनके प्रयास से ही [[कोलकाता|कलकत्ता]] में एवं अन्य स्थानों में बहुत अधिक बालिका विद्यालयों की स्थापना हुई।
 
उस समय [[हिन्दुहिन्दू धर्म|हिन्दु समाज]] में [[विधवा]]ओं की स्थिति बहुत ही शोचनीय थी। उन्होनें [[विधवा पुनर्विवाह अधिनियम|विधवा पुनर्विवाह]] के लिए लोकमत तैयार किया। उन्हीं के प्रयासों से [[१८५६|1856]] ई. में विधवा-पुनर्विवाह कानून पारित हुआ। उन्होंने अपने इकलौते पुत्र का [[विवाह]] एक विधवा से ही किया। उन्होंने बाल विवाह का भी विरोध किया।
 
[[बाङ्ला भाषा|बांग्ला]] भाषा के गद्य को सरल एवं आधुनिक बनाने का उनका कार्य सदा याद किया जायेगा। उन्होने [[बंगाली लिपि|बांग्ला लिपि]] के वर्णमाला को भी सरल एवं तर्कसम्मत बनाया। बँगला पढ़ाने के लिए उन्होंने सैकड़ों विद्यालय स्थापित किए तथा रात्रि पाठशालाओं की भी व्यवस्था की। उन्होंने संस्कृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयास किया। उन्होंने संस्कृत कॉलेज में पाश्चात्य चिन्तन का अध्ययन भी आरम्भ किया।
 
सन २००४ में एक सर्वेक्षण में उन्हें 'अब तक का सर्वश्रेष्ठ बंगाली' माना गया था।
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==जीवन परिचय==
[[Image:Vidyasagar birthplace.jpg|right|thumb|300px|ईश्वरचन्द्र विद्यासागर जी की जन्मस्थली (वीरसिंह, [[घाटाल]])]]
ईश्वर चन्द्र विद्यासागर का जन्म [[बंगाल]] के [[पश्चिम मेदिनीपुर जिला|मेदिनीपुर जिले]] के वीरसिंह गाँव में एक अति निर्धन ब्राम्हण परिवार में हुआ था।पिता का नाम ठाकुरदास वन्द्योपाध्याय था। तीक्ष्णबुद्धि पुत्र को गरीब पिता ने विद्या के प्रति रुचि ही विरासत में प्रदान की थी। नौ वर्ष की अवस्था में बालक ने पिता के साथ पैदल [[कोलकाता]] जाकर [[संस्कृत कॉलेज|संस्कृत कालेज]] में विद्यारम्भ किया। शारीरिक अस्वस्थता, घोर आर्थिक कष्ट तथा गृहकार्य के बावजूद ईश्वरचंद्र ने प्रायः प्रत्येक परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त किया। १८४१ में विद्यासमाप्ति पर [[फोर्ट विलियम कॉलेज|फोर्ट विलियम कालेज]] में पचास रुपए मासिक पर मुख्य पण्डित पद पर नियुक्ति मिली। तभी 'विद्यासागर' उपाधि से विभूषित हुए। लोकमत ने 'दानवीर सागर' का सम्बोधन दिया। १८४६ में संस्कृत कालेज में सहकारी सम्पादक नियुक्त हुए; किन्तु मतभेद पर त्यागपत्र दे दिया। १८५१ में उक्त कालेज में मुख्याध्यक्ष बने। १८५५ में असिस्टेंट इंस्पेक्टर, फिर पाँच सौ रुपए मासिक पर स्पेशल इंस्पेक्टर नियुक्त हुए। १८५८ ई. में मतभेद होने पर फिर त्यागपत्र दे दिया। फिर साहित्य तथा समाजसेवा में लगे। १८८० ई. में सी.आई.ई. का सम्मान मिला।
 
आरम्भिक आर्थिक संकटों ने उन्हें कृपण प्रकृति (कंजूस) की अपेक्षा 'दयासागर' ही बनाया। विद्यार्थी जीवन में भी इन्होंने अनेक विद्यार्थियों की सहायता की। समर्थ होने पर बीसों निर्धन विद्यार्थियों, सैकड़ों निस्सहाय विधवाओं, तथा अनेकानेक व्यक्तियों को अर्थकष्ट से उबारा। वस्तुतः उच्चतम स्थानों में सम्मान पाकर भी उन्हें वास्तविक सुख निर्धनसेवा में ही मिला। शिक्षा के क्षेत्र में वे [[स्त्री शिक्षा|स्त्रीशिक्षा]] के प्रबल समर्थक थे। श्री बेथ्यून की सहायता से गर्ल्स स्कूल की स्थापना की जिसके संचालन का भार उनपर था। उन्होंने अपने ही व्यय से मेट्रोपोलिस कालेज की स्थापना की। साथ ही अनेक सहायताप्राप्त स्कूलों की भी स्थापना कराई। संस्कृत अध्ययन की सुगम प्रणाली निर्मित की। इसके अतिरिक्त शिक्षाप्रणाली में अनेक सुधार किए। समाजसुधार उनका प्रिय क्षेत्र था, जिसमें उन्हें कट्टरपंथियों का तीव्र विरोध सहना पड़ा, प्राणभय तक आ बना। वे विधवाविवाह के प्रबल समर्थक थे। शास्त्रीय प्रमाणों से उन्होंने विधवाविवाह को बैध प्रमाणित किया। पुनर्विवाहित विधवाओं के पुत्रों को १८६५ के एक्ट द्वारा वैध घोषित करवाया। अपने पुत्र का विवाह विधवा से ही किया।<ref>[https://aajtak.intoday.in/education/story/ishwar-chandra-vidyasagar-marriage-of-hindu-widows-1-943792.html ... एक ऐसा समाज सुधारक जिसने विधवा से करवाई अपने बेटे की शादी]</ref> संस्कृत कालेज में अब तक केवल [[ब्राह्मण]] और [[वैद्य]] ही विद्योपार्जन कर सकते थे, अपने प्रयत्नों से उन्होंने समस्त हिन्दुओं के लिए विद्याध्ययन के द्वार खुलवाए।
 
साहित्य के क्षेत्र में बँगला गद्य के प्रथम प्रवर्त्तकों में थे। उन्होंने ५२ पुस्तकों की रचना की, जिनमें १७ संस्कृत में थी, पाँच अँग्रेजी भाषा में, शेष बँगला में। जिन पुस्तकों से उन्होंने विशेष साहित्यकीर्ति अर्जित की वे हैं, 'वैतालपंचविंशति', 'शकुंतला' तथा 'सीतावनवास'। इस प्रकार मेधावी, स्वावलंबी, स्वाभिमानी, मानवीय, अध्यवसायी, दृढ़प्रतिज्ञ, दानवीर, विद्यासागर, त्यागमूर्ति ईश्वरचंद्र ने अपने व्यक्तित्व और कार्यक्षमता से शिक्षा, साहित्य तथा समाज के क्षेत्रों में अमिट पदचिह्न छोड़े।
 
वे अपना जीवन एक साधारण व्यक्ति के रूप में जीते थे लेकिन लेकिन दान पुण्य के अपने काम को एक राजा की तरह करते थे। वे घर में बुने हुए साधारण सूती वस्त्र धारण करते थे जो उनकी माता जी बुनती थीं। वे झाडियों के वन में एक विशाल वट वृक्ष के सामान थे। क्षुद्र व स्वार्थी व्यवहार से तंग आकर उन्होंने अपने परिवार के साथ संबंध विच्छेद कर दिया और अपने जीवन के अंतिम १८ से २० वर्ष [[बिहार]] (अब [[झारखण्ड]]) के [[जामताड़ा जिला|जामताड़ा जिले]] के [[करमाटांड़]] में [[संतालसांथाल जनजाति|सन्ताल आदिवासियों]] के कल्याण के लिए समर्पित कर दिया। उनके निवास का नाम 'नन्दन कानन' (नन्दन वन) था। उनके सम्मान में अब करमाटांड़ स्टेशन का नाम 'विद्यासागर रेलवे स्टेशन' कर दिया गया है।<ref>[https://www.livehindustan.com/jharkhand/jamtara/story-paintings-of-railway-making-the-education-field-alive-2379084.html विद्यासागर के कर्मभूमि को जीवंत कर रही रेलवे की पेंटिंग]</ref>
 
वे जुलाई १८९१ में दिवंगत हुए। उनकी मृत्यु के बाद [[रबीन्द्रनाथ ठाकुर|रवीन्द्रनाथ ठाकुर]] ने कहा, “लोग आश्चर्य करते हैं कि ईश्वर ने चालीस लाख बंगालियों में कैसे एक मनुष्य को पैदा किया!” उनकी मृत्यु के बाद, उनके निवास “नन्दन कानन” को उनके बेटे ने कोलकाता के मलिक परिवार बेच दिया। इससे पहले कि “नन्दन कानन” को ध्वस्त कर दिया जाता, बिहार के बंगाली संघ ने घर-घर से एक एक रूपया अनुदान एकत्रित कर 29 मार्च 1974 को उसे खरीद लिया। बालिका विद्यालय पुनः प्रारम्भ किया गया, जिसका नामकरण विद्यासागर के नाम पर किया गया है। निःशुल्क होम्योपैथिक क्लिनिक स्थानीय जनता की सेवा कर रहा है। विद्यासागर के निवास स्थान के मूल रूप को आज भी व्यवस्थित रखा गया है। सबसे मूल्यवान सम्पत्ति लगभग डेढ़ सौ वर्ष पुरानी ‘पालकी’ है जिसे स्वयं विद्यासागर प्रयोग करते थे।<ref>[https://jamtara.nic.in/hi/%E0%A4%87%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%B9%E0%A4%BE%E0%A4%B8/ श्री ईश्वर चंद्र विद्यासागर]</ref>
 
=== सुधारक के रूप में ===
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=== अनुवाद ग्रन्थ ===
* ''' हिन्दी से बांग्ला'''
** ''बेताल पञ्चबिंशति'' (१८४७ ; [[लल्लू लाल|लल्लूलाल]] कृत ''बेताल पच्चीसी'' पर आधारित)
* '''संस्कृत से बांग्ला'''
** ''शकुन्तला'' (दिसम्बर, १८५४ ; कालिदास के ''अभिज्ञानशकुन्तलम्'' पर आधारित)
** ''सीतार बनबास'' (१८६० ; [[भवभूति]] के ''उत्तर रामचरित'' और ''वाल्मीकि रामायण'' के उत्तराकाण्ड पर आधारित)
** ''महाभारतर उपक्रमणिका'' (१८६०; [[वेदव्यास|वेद व्यास]] के मूल ''[[महाभारत]]'' की ''उपक्रमणिका'' अंश पर आधारित)
** ''बामनाख्यानम्'' (१८७३ ; मधुसूदन तर्कपञ्चानन रचित ११७ श्लोकों का अनुवाद)
* '''अंग्रेजी से बांग्ला'''
पंक्ति 84:
** ''कथामाला'' (१८५६; ''ईशब्स फेबलस'' पर आधारित)
** ''चरिताबली'' (१८५७; विभिन्न अंग्रेजी ग्रन्थ और पत्र-पत्रिकाओं पर आधारित)
** ''भ्रान्तिबिलास'' (१८६१; [[विलियम शेक्सपीयर|शेक्सपीयर]] के ''कमेडी आफ एरर्स' पर आधारित)
 
=== अंग्रेजी ग्रन्थ ===
पंक्ति 150:
* शशिभूषण बिद्यालङ्कार ; ईश्बरचन्द्र बिद्यासागर : ''जीबनीकोष'', भारतीय ऐतिहासिक, कलकाता, १९३६
* शामसुज्जामान मान ओ सेलिम होसेन ; ईश्बरचन्द्र बिद्यासागर : ''चरिताभिधान'' : बांला एकाडेमी, ढाका, १९८५
* [[सुनीति कुमार चटर्जी|सुनीतिकुमार चट्टोपाध्याय]], ब्रजेन्द्रनाथ बन्द्योपाध्याय ओ सजनीकान्त दास (सम्पादित) ; ''बिद्यासागर ग्रन्थाबली'' (तिन खण्डे) : बिद्यासागर स्मृति संरक्षण समिति, कलकाता, १३४४-४६ बङ्गाब्द
* सन्तोषकुमार अधिकारी ; ''बिद्यासागर जीबनपञ्जि'' : साहित्यिका, कलकाता, १९९२
* सन्तोषकुमार अधिकारी ; ''आधुनिक मानसिकता ओ बिद्यासागर'' : बिद्यासागर रिसार्च सेन्टार, कलकाता, १९८४