"असमिया साहित्य": अवतरणों में अंतर

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यद्यपि [[असमिया भाषा]] की उत्पत्ति १७वीं शताब्दी से मानी जाती है किंतु साहित्यिक अभिरुचियों का प्रदर्शन १३वीं शताब्दी में [[माधव कंदलि|कंदलि]] के द्रोण पर्व ([[महाभारत]]) तथा [[माधव कंदलि|कंदलि]] के [[रामायण]] से प्रारंभ हुआ। वैष्णवी आंदोलन ने प्रांतीय साहित्य को बल दिया। [[शंकरदेव|शंकर देव]] (१४४९-१५६८) ने अपनी लंबी जीवन-यात्रा में इस आंदोलन को स्वरचित काव्य, नाट्य व गीतों से जीवित रखा।
 
[[असमिया भाषा|असमिया]] के शिष्ट और लिखित [[साहित्य]] का इतिहास पाँच कालों में विभक्त किया जाता है:
 
*(१) '''वैष्णवपूर्वकाल''' : 1200-1449 ई.
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== वैष्णवपूर्वकाल ==
अद्यतन उपलब्ध सामग्री के आधार पर [[हेम सरस्वती]] और [[हरिवर विप्र]] असमिया के प्रारंभिक कवि माने जा सकते हैं। हेम सरस्वती का "[[प्रह्लादचरित्र]]" असमिया का प्रथम लिखित ग्रंथ माना जाता है। ये दोनों कवि [[कमता राज्य|कमतातुर]] (पश्चिम कामरूप) के शासक [[कमता राज्य|दुर्लभनारायण]] के आश्रित थे। एक तीसरे प्रसिद्ध कवि [[कबिरत्न सरस्वती]] भी थे, जिन्होने "जयद्रथवध" लिखा। परंतु वैष्णवपूर्वकाल के सबसे प्रसिद्ध कवि [[माधव कंदलि|माधव कन्दली]] हुए, जिन्होंने राजा [[महामाणिक्य]] के आश्रय में रहकर अपनी रचनाएँ कीं। माधव कंदली के [[रामायण]] के अनुवाद ने विशेष ख्याति प्राप्त की। [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] शब्दसमूह को असमिया में रूपांरित करना कवि की विशेष कला थी। इस काल की अन्य फुटकर रचनाओं में कुछ गीतिकाव्य उल्लेखनीय हैं। इन रचनाओं में तत्कालीन लोकमानस विशेष रूप से प्रतिफलित हुआ। तंत्र मंत्र, मनसापूजा आदि के विधान इस वर्ग की कृतियों में अधिक चर्चित हुए हैं।
 
== वैष्णवकाल ==
इस काल की पूर्ववर्ती रचनाओं में विष्णु से संबद्ध कुछ देवताओं को महत्व दिया गया था। परंतु आगे चलकर [[विष्णु]] की पूजा की विशेष रूप से प्रतिष्ठा हुई। स्थिति के इस परिवर्तन में असमिया के महान कवि और धर्मसुधारक [[शंकरदेव]] (1449-1568) ई. का योग बससे अधिक था। [[शंकरदेव]] की अधिकांश रचनाएँ [[भागवत पुराण|भागवतपुराण]] पर आधारित हैं और उनके मत को भागवती धर्म कहा जाता है। असमिया जनजीवन और संस्कृति को उसके विशिष्ट रूप में ढालने का श्रेय शंकरदेव को ही दिया जाता है। इसलिए कुछ समीक्षक उनके व्यक्तित्व को केवल कवि के रूप में ही सीमित नहीं करना चाहते। वे मूलत: उन्हें धार्मिक सुधारक के रूप में मानते हैं। शंकरदेव की भक्ति के प्रमुख आश्रय थे [[कृष्ण|श्रीकृष्ण]]। उनकी लगभग 30 रचनाएँ हैं, जिनमें से "[[कीर्तनघोष]]" उनकी सर्वोत्कृष्ट कृति है। असमिया साहित्य के प्रसिद्ध नाट्यरूप "अंकीया नाटक" के प्रारंभकर्ता भी शंकरदेव ही हैं। उनके नाटकों में गद्य और पद्य का बराबर मिश्रण मिलता है। इन नाटकों की भाषा पर [[मैथिली भाषा|मैथिली]] का प्रभाव है। "अंकीया नाटक" के पद्यांश को "वरगीत" कहा जाता है, जिसकी भाषा प्रमुखत: [[ब्रजबुलि]] है।
 
शंकरदेव के अतिरिक्त इस युग के दूसरे महत्वपूर्ण कवि उनके शिष्य [[माधवदेव]] हुए। उनका व्यक्तित्व बहुमुखी था। वे कवि होने के साथ-साथ संस्कृत के विद्वान्, नाटककार, संगीतकार तथा धर्मप्रचारक भी थे। "नामघोषा" इनकी विशिष्ट कृति है। शंकरदेव के नाटकों में "चोरधरा" अधिक प्रसिद्ध रचना है। इस युग के अन्य लेखकों में [[अनंत कंदली]], [[श्रीधर कंदली]] तथा [[भट्टदेव]] विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। असमिया गद्य को स्थिरीकृत करने में भट्टदेव का ऐतिहासिक योग माना जाता है।
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== आधुनिक काल ==
अन्य अनेक प्रांतीय भाषाओं के साहित्य के समान असमिया में भी आधुनिक काल का प्रारंभ अंग्रेजी शासन के साथ जोड़ा जाता है। 1826 ई. असम में अंग्रेजी शासन के प्रारंभ की तिथि है। इस युग में स्वदेशी भावनओं के दमन तथा सामाजिक विषमता ने मुख्य रूप से लेखकों को प्ररेणा दी। इधर 1838 ई. से ही विदेशी मिशनरियों ने भी अपना कार्य प्रारंभ किया और जनता में धर्मप्रचार का माध्यम असमिया को ही बनाया। फलत: असमिया भाषा के विकास में इन मिशनरियों द्वारा परिचालित व्यवस्थित ढंग के मुद्रण तथा प्रकाशन से भी एक स्तर पर सहायता मिली। अंग्रेजी शासन के युग में अंग्रेजी और यूरोपीय साहित्य के अध्ययन मनन से असमिया के लेखक प्रभावित हुए। कुछ पाश्चात्य आदर्श [[बाङ्ला भाषा|बंगला]] के माध्यम से भी अपनाए गए। इस युग के प्रारंभिक लेखकों में [[आनंदराम टेकियाल फुकन]] का नाम सबसे महत्वपूर्ण है। अन्य लेखकों में [[हेमचंद्र बरुआ]], [[गुणाभिराम बरुआ]] तथा [[सत्यनाश बोड़ा]] के नाम उल्लेखनीय हैं।
 
असमिया साहित्य का मूल रूप प्रमुखत: तीन लेखकों द्वारा निर्मित हुआ। ये लेखक थे [[चंद्रकुमार अग्रवाल]] (1858-1938), [[लक्ष्मीनाथ बेजबरुवा|लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ]] (1858-1938) तथा [[हेमचंद्र गोस्वामी]] (1872-1928)। [[कोलकाता|कलकत्ता]] में रहकर अध्ययन करते समय इन तीन मित्रों ने 1889 में "जोनाकी" (जुगुनू) नामक मासिक पत्र की स्थापना की। इस पत्रिका को केंद्र बनाकर धीरे-धीरे एक साहित्यिक समुदाय उठ खड़ा हुआ जिसे बाद में जोनाकी समूह कहा गया। इस वर्ग में अधिकांश लेखक अंग्रेजी रोमांटिसिज्म से प्रभावित थे। 20वीं सदी के प्रारंभ के इन लेखकों में लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ बहुमुखी प्रतिभासंपन्न थे। उनका "असमिया साहित्येर चानेकी" नामक संकलन विशेष प्रसिद्ध है। असमिया साहित्य में उन्होंने कहानी तथा ललित निबंध के बीच के एक सहित्य रूप को अधिक प्रचलित किया। बेजबरुआ की हास्यरस की रचनाओं को काफी लोकप्रियता मिली। इसीलिए उसे "रसराज" की उपाधि दी गई। इस युग में अन्य कवियों में [[कमलाकांत भट्टाचार्य]], [[रघुनाथ चौधरी]], [[नलिनी बाला देवी|नलिनीबाला देवी]], [[अंबिकागिरि रायचौधुरी]], [[फुकन]] आदि का कृतित्व महत्वपूर्ण माना जाता है। [[मफिजुद्दीन अहमद]] की कविताएँ सूफी धर्मसाधना से प्रेरित हैं।
 
गद्य, विशेष रूप से कथासाहित्य, के क्षेत्र में 19वीं शताब्दी के अंत में दो लेखक [[पद्यनाथ गोसाई बरुआ]] तथा [[रजनीकांत बारदोलाई]] अपने ऐतिहासिक उपन्यासों तथा नाटकों के लिए महत्वपूर्ण समझे जाते हैं। जोनाकी समुदाय के समानांतर जिन गद्यलेखकों ने साहित्यसृजन किया उनमें से [[वेणुधर राजखोवा]] तथा [[शरच्चंद्र गोस्वामी]] के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। शरच्चंद्र गोस्वामी की प्रतिभा वैसे तो बहुमुखी थी, पर उनकी ख्याति प्रमुखत: कहानियों को लेकर है। कहानी के क्षेत्र में लक्ष्मीधर शर्मा, बीना बरुआ, कृष्ण भुयान आदि ने प्रणय संबंधी नए अभिप्रायों के कुछ प्रयोग किए। लक्ष्मीनाथ फुकन अपनी हास्यरस की कहानियों के लिए स्मरणीय हैं। कथासाहित्य के अतिरिक्त नाटक के क्षेत्र में [[अतुलचंद्र हजारिका]] तथा [[ज्योतिप्रसाद आगरवाला|ज्योतिप्रसाद अग्रवाल]] का कार्य अधिक महत्वपूर्ण है। समीक्षा तथा शोध की दृष्टि से [[अंबिकानाथ बरा]], [[वाणीकांत काकती]], [[कालीराम मेधी]], [[विरंचि बरुआ]] तथा [[डिंबेश्वर नियोग]] का कृतित्व उल्लेखनीय है।
 
असमिया साहित्य के आधुनिक काल में पत्र पत्रिकाओं का माध्यम भी काफी प्रचलित हुआ। इनमें से "अरुणोदय", "जोनाकी", "बोली", "आवाहन", "जयंती", तथा "पछोवा" ने विभिन्न क्षेत्रों में काफी उपयोगी कार्य किया है। नए प्रकार का साहित्यसृजन प्रमुखत: "रामधेनु" को केंद्र बनाकर हुआ है।
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बहुत प्राचीन काल से ही असम में संगीतप्रियता की परंपरा चलती आ रही है। इसके प्रमाणस्वरूप आधुनिक असम में अलिखित और अज्ञात लेखकों द्वारा प्रस्तुत वस्तुत: अनेकानेक लोकगीत मिलते हैं, जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक परंपरा से सुरक्षित रह सके हैं। ये लोगगीत धार्मिक अवसरों, अचारों तथा ऋतुओं के परितर्वनों से संबद्ध हैं। कुछ लोकगाथाओं में राजकुमार नायकों के आख्यान भी मिलते हैं। शिष्ट साहित्य के उद्भव के पूर्व इस काल में दार्शनिक डाक का महत्व असाधारण है। उसके कथनों को वेदवाक्य संज्ञा दी गई है। डाकवचनों की यह परंपरा बंगाल तथा बिहार तक मिलती है। असम के प्राय: प्रत्येक परिवार में कुछ समय पूर्व तक इन डाकवचनों का एक हस्तलिखित संकलन रहता था।
 
असम के प्राचीन नाम "[[कामरूप]]" से प्रकट होता है कि वहाँ बहुत प्राचीन काल से तंत्र मंत्र की परंपरा रही है। इन गुह्यचारों से संबद्ध अनेक प्रकार के मंत्र मिलते हैं जिनसे भाषा तथा साहित्य विषयक प्रारंभिक अवस्था का कुछ परिचय मिलता है। "[[चर्यापद]]" के लेखक [[सिद्ध|सिद्धों]] में से कई का कामरूप से घनिष्ट संबंध बताया जाता है, जो इस प्रदेश की [[तंत्र साहित्य (भारतीय)|तांत्रिक परंपरा]] को देखते हुए काफी स्वाभाविक जान पड़ता है। इस प्रकार चर्यापदों के समय से लेकर 13वीं शताब्दी के बीच का मौखिक साहित्य या तो जनप्रिय लोकगीतों और लोकगाथओं का है या नीतिवचनों तथा मंत्रों का। यह साहित्य बहुत बाद में लिपिबद्ध हुआ।
 
== इन्हें भी देखें ==
* [[असमिया|असमिया भाषा]]
* [[असमिया लिपि]]
* [[असम साहित्य सभा]]