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[[चित्र:Wea00920.jpg|right|thumb|200px|वायुवेगमापी]]
'''ऋतुविज्ञान''' या '''मौसम विज्ञान''' (Meteorology) कई विधाओं को समेटे हुए विज्ञान है जो [[पृथ्वी का वायुमण्डल|वायुमण्डल]] का अध्ययन करता है। मौसम विज्ञान में [[मौसम]] की प्रक्रिया एवं मौसम का पूर्वानुमान अध्ययन के केन्द्रबिन्दु होते हैं। मौसम विज्ञान का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है किन्तु अट्ठारहवीं शती तक इसमें खास प्रगति नहीं हो सकी थी। उन्नीसवीं शती में विभिन्न देशों में मौसम के आकड़ों के प्रेक्षण से इसमें गति आयी। बीसवीं शती के उत्तरार्ध में मौसम की भविष्यवाणी के लिये [[कंप्यूटर|कम्प्यूटर]] के इस्तेमाल से इस क्षेत्र में क्रान्ति आ गयी।
 
मौसम विज्ञान के अध्ययन में [[पृथ्वी]] के वायुमण्डल के कुछ चरों (variables) का प्रेक्षण बहुत महत्व रखता है; ये चर हैं - [[तापमान|ताप]], हवा का [[दाब]], जल वाष्प या [[आर्द्रता]] आदि। इन चरों का मान व इनके परिवर्तन की दर (समय और दूरी के सापेक्ष) बहुत हद तक मौसम का निर्धारण करते हैं।
 
== परिचय ==
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प्राचीन काल से ही मनुष्य ऋतु तथा जलवायु की अनेक घटनाओं से प्रभावित होता रहा है। वायुविज्ञान के प्राचीनतम ग्रंथ ऐरिस्टॉटल (384-322 ई.पू.) रचित 'मीटिअरोलॉजिका' तथा उनके शिष्यों की पवन तथा ऋतु संबंधी रचनाएँ हैं। ऐरिस्टॉटल के पश्चात्‌ अगले दो हजार वर्षो में ऋतुविज्ञान की अधिक प्रगति नहीं हुई। 17वीं तथा 18वीं शताब्दी में मुख्यत: यंत्रप्रयोग तथा गैस आदि के नियम स्थापित हुए। इसी काल में तापमापी का आविष्कार सन्‌ 1607 में गैलीलियों गेलीली ने किया और एवेंजीलिस्टा टॉरीसेली ने सन्‌ 1643 में वायु दाबमापी यंत्र का आविष्कार किया। इन आविष्कारों के पश्चात्‌ सन्‌ 1659 में वायल के नियम का आविष्कार हुआ। सन्‌ 1735 में जार्ज हैडले ने व्यापारिक वायु (ट्रैड विंड) की व्याख्या प्रस्तुत की तथा उसमें हैडले ने व्यापारिक वायु (ट्रेड विंड) की व्याख्या प्रस्तुत की तथा उसमें सबसे पहले वायुमंडलीय पवनों पर पृथ्वी के चक्कर के प्रभाव को सम्मिलित किया। जब सन्‌ 1783 में ऐंटोनी लेवोसिए ने वायुंमडल की वास्तविक प्रकृति का ज्ञान प्राप्त कर लिया और सन्‌ 1800 में जॉन डॉल्टन ने वायुमंडल में जलवाष्प के परिवर्तनों पर और वायु के प्रसार तथा वायुमंडलीय संघनन के संबंध पर प्रकाश डाला तभी आधुनिक ऋतुविज्ञान का आधार स्थापित हो गया। 19वीं शताब्दी में विकास अधिकतर संक्षिप्त ऋतुविज्ञान के क्षेत्र में हुआ। अनेक देशों ने ऋतुवैज्ञानिक संस्थाएँ स्थापित की और ऋतु वेधशालाएँ खोलीं। इस काल में ऋतु पूर्वानुमान की दिशा में भी पर्याप्त विकास हुआ। 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में 20 किलोमीटर की ऊँचाई तक वायु के वेग तथा दिशा आदि के प्रेक्षणों के बढ़ जाने के कारण जो सूचनाएँ ऋतुविशेषज्ञों को प्राप्त होने लगीं उनसे ऋतुविज्ञान की अधिक उन्नति हुई। ऊपरी वायु के ऐसे प्रेक्षणों से ऋतुविज्ञान की अनेक समस्याओं को समझने में बहुत अधिक सहायता मिली।
 
[[पहला विश्व युद्ध|प्रथम विश्वयुद्ध]] काल में वायुमंडलीय स्थितियों के अधिक और शीघ्रतम प्रेक्षणों की आवश्यकता हुई जिसकी पूर्ति के लिए वायुयान द्वारा ऋतुलेखी यंत्र (मीटिअरोग्राफ़) ऊपर ले जाने की व्यवस्था की गई। अन्य महत्वपूर्ण प्रगतियाँ जो प्रथम विश्वयुद्ध काल में हुई वे नॉर्वे देश के ऋतुविशेषज्ञ वी.बरकनीज़ एच. सोलवर्ग तथा जे. बरकनीज़ द्वारा ध्रवीय अग्रसिद्धांत (पोलर फ्रंट थ्योरी) के तथा चक्रवातों की उत्पत्ति के तरंग सिद्धांत के परिणाम हैं।
 
[[द्वितीय विश्वयुद्ध]] काल में मुख्यत: अधिक ऊँचाई पर उड़नेवाले वायुयानों के उपयोग के लिए ऋतु संबंधी सूचनाओं की माँग और बढ़ गई और इस माँग की पूर्ति के निर्मित्त विभिन्न ऊँचाइयों पर वायु के वेग तथा दिशा आदि के ज्ञान के लिए राडार प्रविधि (राडार टेकनीक) का विकास हुआ।
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जहाँ
:<math>P_b</math> = Static pressure (pascals)
:<math>T_b</math> = Standard temperature ([[kelvinकेल्विन|K]])
:<math>L_b</math> = Standard temperature lapse rate -0.0065 (K/m) in [[International Standard Atmosphere|ISA]]
:<math>h</math> = Height above sea level (meters)
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== वायुमंडल का उष्मासंतुलन ==
भूतल तथा वायुमंडल को गरमी लगभग पूर्णतया सूर्यविकिरण से ही मिलती है। अन्य आकाशीय पिंडों से गरमी बहुत ही कम मात्रा में मिलती है। सौर ऊर्जा की मापें स्मिथसोनियन संस्था की तारा-भौतिकी-वेधशाला में तथा अन्य कई पर्वतशिखरों पर स्थित वेधशालाओं में नियमित रूप से की जाती है और इन मापों की यथार्थता एक प्रतिशत से उत्कृष्ट होती है। पृथ्वी और सूर्य की मध्यमानसौर दूरी पर यह सौर आतपन ऊर्जा वायुमंडल में प्रविष्ट होकर अंशत: अवशेषित होने के पहले लगभग 1.94 ग्राम कलरी प्रति मिनट वर्ग सेंटीमीटर होती है; यहाँ प्रतिबंध यह है कि सूर्य की किरणें उस वर्ग सेंटीमीटर पर अभिलंबत: पड़ें। इस मात्रा को सौर नियतांक (सोलर कॉन्स्टैंट) कहते हैं। सौर नियतांक के मान में पाई गई अनियमित घट बढ़ एक प्रतिशत से भी कम रहती हैं; ये प्रेक्षणत्रुटियों के कारण हो सकती हैं। इन अनियमित उच्चावचनों के अतिरिक्त एक वास्तविक और बड़ा उच्चावचन भी पाया गया है जो ग्यारह वर्षीय सूर्य-कलंक-चक्र में लगभग प्रतिशत तक का दीर्घकालिक उच्चावचन और भी हो सकता है। परंतु ये सब उच्चावचन इतने लघु हैं कि वायुमंडलीय उष्म संतुलन के संबंध में यह मान लिया जा सकता है कि पृथ्वी पर सौर ऊर्जा 1.94 ग्राम कलरी प्रति वर्ग सेंटीमीटर प्रति मिनट पड़ती है। अनुमान किया गया है कि सौर ऊर्जा का 43 प्रतिशत भाग परावर्तित तथा प्रकीर्णित तथा प्रकीर्णन करने की सम्मिलित शक्ति को [[प्रकाशानुपात|ऐलबेडो]] कहते हैं। यह 43 प्रतिशत है। शेष 57 प्रतिशत ऊर्जा, जो प्रभावकारी आतपन है, भूतल तथा वायुमंडल को औसतन 57 उष्मा इकाइयाँ प्रदान करता है। इन 57 उष्मा इकाइयों में से केवल एक लघु भाग का (अधिक से अधिक 14 इकाइयों का) वायुमंडल, मुख्यत: निचले स्तरों में जलवाष्प द्वारा और कुछ कम परिमाण में ऊपरी समताप मंडल (स्ट्रैटोस्फ़ियर) में ओज़ोन द्वारा, अवशोषण कर लेता है।
 
== वायुमंडल में वाष्पन तथा संघनन ==