"छायावाद": अवतरणों में अंतर

सम्पूर्ण छायावाद
छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है
पंक्ति 1:
'''छायावाद''' [[हिन्दी|हिंदी]] साहित्य के रोमांटिक उत्थान की वह काव्य-धारा है जो लगभग ई.स. १९१८ से १९३६ तक की प्रमुख युगवाणी रही।
 
<ref>हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, प्रधान सम्पादक - धीरेन्द्र वर्मा, प्रकाशक- ज्ञानमण्डल लिमिटिड वाराणसी, तृतीय संस्करण १९८५, पृष्ठ २५१</ref> [[जयशंकर प्रसाद]], [[सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला']], [[पंत|सुमित्रानदन पंत]], [[महादेवी वर्मा]] इस काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि माने जाते हैं। छायावाद नामकरण का श्रेय [[मुकुटधर पाण्डेय]] को जाता है।
पंक्ति 21:
 
== विभिन्न आलोचकों की दृष्टि में छायावाद ==
* [[रामचन्द्र शुक्ल|रामचंद्र शुक्ल]] ने [[हिंदी साहित्य का इतिहास (पुस्तक)|हिंदी साहित्य का इतिहास]] में लिखा है कि- "संवत् १९७० के आसपास मैथिलीशरण गुप्त, [[मुकुटधर पाण्डेय|मुकुटधर पांडेय]] आदि कवि खड़ीबोली काव्य को अधिक कल्पनामय, चित्रमय और अंतर्भाव व्यंजक रूप-रंग देने में प्रवृत्त हुए।<ref>{{cite book |last1=आचार्य रामचन्द्र |first1=शुक्ल |title=हिंदी साहित्य का इतिहास |date=२०१३ |publisher=लोकभारती प्रकाशन |location=इलाहाबाद |page=४५५}}</ref> यह स्वच्छन्द और नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल रही थी कि रवीन्द्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई। और कई कवि एक साथ [[रहस्यवाद]] और [[प्रतीकवाद]] अथवा [[चित्रभाषावाद]] को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही बाकी समझा गया। इस बँधे हुए क्षेत्र के भीतर चलनेवाले काव्य ने छायावाद नाम ग्रहण किया।
छायावादी शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिये। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ उसका संबंध काव्य-वस्तु से होता है अर्थात् जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को [[आलंबन]] बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम का अनेक प्रकार से व्यंजन करता है। इस अर्थ का दूसरा प्रयोग काव्य-शैली या पद्धति-विशेष के व्यापक अर्थ में होता है’
छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करनेवाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन। छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मक (कथात्मकता) की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था। जैसे,
पंक्ति 27:
छिपे हैं मेरे मधुमय गान।""
* [[नंददुलारे वाजपेयी]] ने लिखा है कि- "प्रकृति के सूक्ष्म किन्तु व्यक्त सौंदर्य में आध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की एक सर्वमान्य व्याख्या होनी चाहिए।’
* [[हजारीप्रसाद द्विवेदी|हजारी प्रसाद द्विवेदी]] ने [[हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास]] में लिखा है कि- "द्वितीय महायुद्ध के समाप्त होते सारे देश में नई चेतना की लहर दौड़ गई। सन् १९२९ में [[महात्मा गांधी]] के नेतृत्व में भारतवर्ष विदेशी गुलामी को झाड़-फेंकने के लिए कटिबद्ध हो गया। इसे सिर्फ राजनीति तक ही सीमित नहीं समझना चाहिये। यह संपूर्ण देश का आत्म स्वरूप समझने का प्रयत्न था और अपनी गलतियों को सुधार कर संसार की समृद्ध जातियों की प्रति- द्वंद्विता में अग्रसर होने का संकल्प था। संक्षेप में, यह एक महान सांस्कृतिक आंदोलन था। चित्तगत उन्मुखता इस कविता का प्रधान उद्गम थी और बदलते हुए मानो के प्रति दृढ आस्था इसका प्रधान सम्बल। इस श्रेणी के कवि ग्राहिकाशक्ति से बहुत अधिक संपन्न थे और सामाजिक विषमता और असामंजस्यों के प्रति अत्यधिक सजग थे। शैली की दृष्टि से भी ये पहले के कवियों से एकदम भिन्न थे। इनकी रचना मुख्यतः विषयि प्रधान थी। सन् 1920 की खड़ीबोली कविता में विषयवस्तु की प्रधानता बनी हुई थी। परंतु इसके बाद की कविता में कवि के अपने राग-विराग की प्रधानता हो गई। विषय अपने आप में कैसा है ? यह मुख्य बात नहीं थी। बल्कि मुख्य बात यह रह गई थी कि विषयी (कवि) के चित्त के राग-विराग से अनुरंजित होने के बाद विषय कैसा दीखता है ? परिणाम विषय इसमें गौण हो गया और कवि प्रमुख।"
* [[डॉ॰ नगेन्द्र|नगेन्द्र]] ने लिखा है कि- "1920 के आसपास, युग की उद्बुद्ध चेतना ने बाह्य अभिव्यक्ति से निराश होकर, जो आत्मबद्ध अंतर्मुखी साधना आरंभ की, वह काव्य में छायावाद के रूप में अभिव्यक्त हुई।"
* [[नामवर सिंह]] ने [[छायावाद]] में लिखा है कि- "छायावाद शब्द का अर्थ चाहे जो हो, परंतु व्यावहारिक दृष्टि से यह प्रसाद, निराला, पंत, महादेवी की उन समस्त कविताओं का द्योतक है, जो १९१८ से ३६ ई. के बीच लिखी गईं।’ वे आगे लिखते हैं- ‘छायावाद उस राष्ट्रीय जागरण की काव्यात्मक अभिव्यक्ति है जो एक ओर पुरानी रूढि़यों से मुक्ति चाहता था और दूसरी ओर विदेशी पराधीनता से।"
 
== छायावादी कवियों की दृष्टि में ==
* [[जयशंकर प्रसाद]] ने लिखा कि- "काव्य के क्षेत्र में पौराणिक युग की किसी घटना अथवा देश-विदेश की सुंदरी के बाह्य वर्णन से भिन्न जब वेदना के आधार पर स्वानुभूतिमयी अभिव्यक्ति होने लगी तब हिंदी में उसे छायावाद नाम से अभिहित किया गया।" वे यह भी कहते हैं कि- "छायावादी कविता भारतीय दृष्टि से अनुभूति और अभिव्यक्ति की भंगिमा पर अधिक निर्भर करती है। ध्वन्यात्मकता, लाक्षणिकता, सौंदर्य, प्रकृति-विधान तथा उपचार वक्रता के साथ स्वानुभूति की विवृत्ति छायावाद की विशेषताएँ हैं।"
* [[सुमित्रानन्दन पन्त|सुमित्रानंदन पंत]] छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के रोमांटिसिज्म से प्रभावित मानते हैं।
* [[महादेवी वर्मा]] छायावाद का मूल दर्शन [[जीववाद|सर्वात्मवाद]] को मानती हैं और प्रकृति को उसका साधन। उनके छायावाद ने मनुष्य के ह्रृदय और प्रकृति के उस संबंध में प्राण डाल दिए जो प्राचीन काल से बिम्ब-प्रतिबिम्ब के रूप में चला आ रहा था और जिसके कारण मनुष्य को प्रकृति अपने दुख में उदास और सुख में पुलकित जान पड़ती थी।’ इस प्रकार महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कराके हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। वे [[रहस्यवाद]] को छायावाद का दूसरा सोपान मानती हैं।
 
== छायावाद की मुख्य विशेषताएँ (प्रवृत्तियाँ) ==