"सवितृ": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
अनुनाद सिंह (वार्ता | योगदान) No edit summary |
छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है |
||
पंक्ति 1:
{{स्रोतहीन|date= अगस्त 2016}}
'''सवितृ''', [[ऋग्वेद]] में वर्णित सौर [[देवता]] हैं। [[गायत्री मन्त्र|गायत्री मंत्र]] का सम्बन्ध सवितृ से ही माना जाता है। सविता शब्द की निष्पत्ति 'सु' [[धातु]] से हुई है जिसका अर्थ है - उत्पन्न करना, गति देना तथा प्रेरणा देना। सवितृ देव का [[सूर्य]] देवता से बहुत साम्य है।
सविता का स्वरूप आलोकमय तथा स्वर्णिम है। इसीलिए इसे स्वर्णनेत्र, स्वर्णहस्त, स्वर्णपाद, एवं स्वर्ण जिव्य की संज्ञा दी गई है। उसका [[रथ]] स्वर्ण की आभा से युक्त है जिसे दोया अधिक लाल घोड़े खींचते है, इस रथ पर बैठकर वह सम्पूर्ण विश्व में भ्रमण करता है। इसे असुर नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। [[प्रदोष व्रत|प्रदोष]] तथा प्रत्यूष दोनों से इसका सम्बन्ध है। हरिकेश, अयोहनु, अंपानपात्, कर्मक्रतु, सत्यसूनु, सुमृलीक, सुनीथ आदि इसके विशेषण हैं।
ऋग्वेद के ११ [[सूक्त|सूक्तों]] में सवितृ का नाम आता है। इसके अतिरिक्त अनेकों मंत्रों में सवितृ का नाम आता है। कुल मिलाकर १७० बार सवितृ का नाम आया है। उदय के पूर्व सूर्य को सवितृ कहते हैं, जबकि उदय के पश्चात 'सूर्य'।
|