"पंडित रामदहिन ओझा": अवतरणों में अंतर

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'''पंडित रामदहिन ओझा''' (1901-- 18 फरवरी,1931) भारत के पत्रकार एवं स्वतन्त्रता सेनानी थे। माना जाता है कि [[असहयोग आन्दोलन]] में किसी पत्रकार की पहली शहादत पंडित रामदहिन ओझा की थी। वे [[कोलकाता|कलकत्ता]] से 1923-24 में प्रकाशित होने वाले हिन्दी साप्ताहिक '[[युगान्तर]]' के सम्पादक थे। जिस समय बलिया जेल में उनकी शहादत हुई, वे सिर्फ 30 वर्ष के थे। उनके साथी सेनानी कहते रहे कि पंडित रामदहिन ओझा के खाने में धीमा जहर दिया जाता रहा और इसी कारण उनकी मृत्यु हुई। उनके व्यक्तित्व के बहुआयामी पक्ष हैं। कवि, पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी उनके यह सारे आयाम देश को समर्पित थे।
 
रामदीन ओझा का जन्म [[उत्तर प्रदेश]] के [[बलिया जिला|बलिया जिले]] के बांसडीह कस्बे में हुआ था। बांसडीह कस्बे में ही प्रारम्भिक शिक्षा के बाद रामदहिन ओझा के पिता रामसूचित ओझा उन्हें आगे की शिक्षा के लिए कलकत्ता ले गये। वहां बीस वर्ष की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते पत्रकार रामदहिन ओझा की कलकत्ता और बलिया में स्वतंत्रता योद्धाओं और सुधी राष्ट्रसेवियों के बीच पहचान बन चुकी थी। कलकत्ता के 'विश्वमित्र', 'मारवाणी अग्रवाल' आदि पत्र-पत्रिकाओं में कुछ स्पष्ट नाम तो कुछ उपनाम से उनके लेख और कविताएं छपने लगी थीं। उन्होंने [[कोलकाता|कलकत्ता]], [[बलिया]], और [[ग़ाज़ीपुर|गाजीपुर]] की भूमि को सामान्य रूप से अपना कार्यक्षेत्र बनाया।
 
ओझा अपनी लेखनी और आजादी के लिए जन आंदोलन में भाषणों के आरोप में कई बार गिरफ्तार किए गये। अपनी क्रांतिकारी गतिविधि के चलते पंडित रामदहिन ओझा को बंगाल और फिर बाद में बलिया और गाजीपुर से निष्कासन का आदेश थमा दिया गया। उनकी 'लालाजी की याद में' और 'फिरंगिया' जैसी कविताओं पर प्रतिबंध लगा। वर्ष 1921 में छह अन्य सेनानियों के साथ बलिया में पहली गिरफ्तारी में बांसडीह कस्बे के जिन सात सेनानियों को गिरफ्तार किया गया, पंडित रामदहिन ओझा उनमें सबसे कम उम्र के थे। [[महात्मा गांधी|गांधी जी]] ने इन सेनानियों को असहयोग आन्दोलन का 'सप्तऋषि' कहा था। वे 1922 और 1930 में फिर गिरफ्तार किये गये। अंतिम गिरफ्तारी में 18 फरवरी 1931 का दिन भी आया जब रात के अंधेरे में बलिया के जेल और जिला प्रशासन ने मृतप्राय सेनानी को उनके मित्र, प्रसिद्ध वकील ठाकुर राधामोहन सिंह के आवास पहुंचा दिया था। अखिल भारतीय कांग्रेस की पद्मकान्त मालवीय कमेटी ने पाया था कि पंडित ओझा के खाने में धीमा जहर मिलाया जाता रहा। 'बलिया में सन बयालीस की जनक्रांति' के लेखक दुर्गाप्रसाद गुप्त मानते हैं कि पंडित रामदहिन ओझा की शहादत से बलिया के सेनानियों में ऐसी ऊर्जा का संचार किया, जिसका प्रस्फुटन 1942 की जन क्रांति में दिखाई देता है।