"महाकाव्य": अवतरणों में अंतर

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[[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] [[काव्यशास्त्र]] में '''महाकाव्य''' (एपिक) का प्रथम सूत्रबद्ध लक्षण आचार्य [[भामह]] ने प्रस्तुत किया है और परवर्ती आचार्यों में [[दण्डी|दंडी]], [[रुद्रट]] तथा [[आचार्य विश्वनाथ|विश्वनाथ]] ने अपने अपने ढंग से इस महाकाव्य(एपिक)सूत्रबद्ध के लक्षण का विस्तार किया है। आचार्य विश्वनाथ का [[लक्षणनिरूपण|लक्षण निरूपण]] इस परंपरा में अंतिम होने के कारण सभी पूर्ववर्ती मतों के सारसंकलन के रूप में उपलब्ध है।महाकाव्य में भारत को भारतवर्ष अथवा भरत का देश कहा गया है तथा भारत निवासियों को भारती अथवा भरत की संतान कहा गया है
 
== महाकाव्य के लक्षण ==
[[आचार्य विश्वनाथ]] के अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं :
 
: ''जिसमें सर्गों का निबंधन हो वह महाकाव्य कहलाता है। महाकाव्य में देवता या सदृश क्षत्रिय, जिसमें धीरोदात्तत्वादि गुण हों, नायक होता है। कहीं एक वंश के अनेक सत्कुलीन भूप भी नायक होते हैं। शृंगार, वीर और शांत में से कोई एक रस अंगी होता है तथा अन्य सभी रस अंग रूप होते हैं। उसमें सब नाटकसंधियाँ रहती हैं। कथा ऐतिहासिक अथवा सज्जनाश्रित होती है। चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) में से एक महाकाव्य का फल होता है। आरंभ में नमस्कार, आशीर्वाद या वर्ण्यवस्तुनिर्देश होता है। कहीं खलों की निंदा तथा सज्जनों का गुणकथन होता है। न अत्यल्प और न अतिदीर्घ अष्टाधिक सर्ग होते हैं जिनमें से प्रत्येक की रचना एक ही छंद में की जाती है और सर्ग के अंत में छंदपरिवर्तन होता है। कहीं-कहीं एक ही सर्ग में अनेक छंद भी होते हैं। सर्ग के अंत में आगामी कथा की सूचना होनी चाहिए। उसमें संध्या, सूर्य, चंद्रमा, रात्रि, प्रदोष, अंधकार, दिन, प्रात:काल, मध्याह्न, मृगया, पर्वत, ऋतु, वन, सागर, संयोग, विप्रलंभ, मुनि, स्वर्ग, नगर, यज्ञ, संग्राम, यात्रा और विवाह आदि का यथासंभव सांगोपांग वर्णन होना चाहिए ([[साहित्य दर्पण|साहित्यदर्पण]], परिच्छेद 6,315-324)।
 
आचार्य विश्वनाथ का उपर्युक्त निरूपण महाकाव्य के स्वरूप की वैज्ञानिक एवं क्रमबद्ध परिभाषा प्रस्तुत करने के स्थान पर उसकी प्रमुख और गौण विशेषताओं का क्रमहीन विवरण उपस्थित करता है। इसके आधार पर संस्कृत काव्यशास्त्र में उपलब्ध महाकाव्य के लक्षणों का सार इस प्रकार किया जा सकता है :
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== महाकाव्य के सम्बन्ध में पश्चिमी मत ==
महाकाव्य के जिन लक्षणों का निरूपण भारतीय आचार्यों ने किया, शब्दभेद से उन्हीं से मिलती-जुलती विशेषताओं का उल्लेख पश्चिम के आचार्यों ने भी किया है। [[अरस्तु|अरस्तू]] ने त्रासदी से महाकाव्य की तुलना करते हुए कहा है कि "गीत एवं दृश्यविघान के अतिरिक्त (महाकाव्य और त्रासदी) दोनों के अंग भी समान ही हैं।" अर्थात् महाकाव्य के मूल तत्व चार हैं - कथावस्तु, चरित्र, विचारतत्व और पदावली (भाषा)।
 
=== कथावस्तु ===
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=== भाषा, शैली और छंद ===
[[अरस्तु|अरस्तू]] के शब्दों में महाकाव्य की शैली का भी "पूर्ण उत्कर्ष यह है कि वह प्रसन्न (प्रसादगुण युक्त) हो किंतु क्षुद्र न हो।" अर्थात् गरिमा तथा प्रसादगुण महाकाव्य की शैली के मूल तत्व हैं और गरिमा का आधार है असाधारणता। उनके मतानुसार महाकाव्य की भाषाशैली त्रासदी की करुणमधुर अलंकृत शैली से भिन्न, लोकातिक्रांत प्रयोगों से कलात्मक, उदात्त एवं गरिमावरिष्ठ होनी चाहिए।
 
महाकाव्य की रचना के लिये वे आदि से अंत तक एक ही छंद - वीर छंद - के प्रयोग पर बल देते हैं क्योंकि उसका रूप अन्य वृत्तों की अपेक्षा अधिक भव्य एवं गरिमामय होता है जिसमें अप्रचलित एवं लाक्षणिक शब्द बड़ी सरलता से अंतर्भुक्त हो जाते हैं। परवर्ती विद्वानों ने भी महाकाव्य के विभिन्न तत्वों के संदर्भ में उन्हीं विशेषताओं का पुनराख्यान किया है जिनका उल्लेख आचार्य अरस्तू कर चुके थे। वीरकाव्य (महाकाव्य) का आधार सभी ने जातीय गौरव की पुराकथाओं को स्वीकार किया है। [[जॉन हेरिंगटन]] वीरकाव्य के लिये ऐतिहासिक आधारभूमि की आवश्यकता पर बल देते हैं और स्पेंसर वीरकाव्य के लिये वैभव और गरिमा को आधारभूत तत्व मानते हैं। [[फ़्रान्स|फ्रांस]] के कवि आलोचकों पैलेतिए, वोकलें और रोनसार आदि ने भी महाकाव्य की कथावस्तु को सर्वाधिक गरिमायम, भव्य और उदात्त करते हुए उसके अंतर्गत ऐसे वातावरण के निर्माण का आग्रह किया है जो क्षुद्र घटनाओं से मुक्त एवं भव्य हो।
 
== सारांश ==
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'''महाकाव्यों का उद्भव''' [[ऋग्वेद]] के आख्यान सूक्तों- इन्द्र, वरुण, विष्णु और ऊषा आदि के स्तुतिमंत्रों तथा नराशंसी गाथाओं से हुआ है। ब्राह्मण आदि ग्रन्थों में इन अख्यान आदि का विस्तृत रूप मिलता है। यही स्वरूप आगे चलकर महाकाव्य के रूप में बदल गया। क्रौंचवध से दुःखी मनवाले महाकवि [[वाल्मीकि]] के वाणी से निकला व्याध-शाप (मा निषाद प्रतिष्ठां त्वम्...) वाल्मीकिकृत रामायण के रूप में आदि काव्य के गौरव को प्राप्त कर लिया तथा इसके प्रणेता वाल्मीकि को आदिकवि का गौरव प्राप्त हुआ। वाल्मीकिकृत रामायण तथा [[रामायण]] के बाद [[वेदव्यास]]कृत [[महाभारत]] भी परवर्ती कवियों का उपजीव्य काव्य बन गये।
 
भारतीय परम्परा [[वेद]] को ही काव्य, शास्त्र आदि का उत्पत्तिस्थल मानती रही है। वैदिक मनीषी की सर्वाधिक मनोहर कल्पनायें ऋग्वेद के उषस् सूक्तों में समस्त काव्यात्मक उन्मेष के साथ निकली हुई है। देवस्तुति के अतिरिक्त नाराशंसियों में भी काव्यात्मक रूप झलकता है। तत्कालीन उदार राजाओं की प्रशंसा में नितान्त अतिशयोक्तिपूर्ण प्रशस्तियाँ नाराशंसी कहलाती है। ऐतरेयब्राह्मण की सप्तम पंचिका में [[शुनःशेप]] आख्यान एवं अष्टम पंचिका में ‘ऐन्दमहाभिषेक’के अनेक अंश सुन्दर काव्य की छटा बखिरते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में काव्यतत्त्वों का अस्तित्त्व तो दृष्टिगोचर होता है किन्तु महाकाव्य शैली का पूर्ण परिपाक कहीं पर भी दृष्टिगोचर नहीं होता। संस्कृत महाकाव्य धरा की मूल उद्गम स्थली आदिकाव्य रामायण ही है, जिसमें महाकाव्य की सभी विशेषताओं का दर्शन हो जाता है। संस्कृत साहित्य के महाकाव्यों की विकास-परम्परा में संस्कृत व्याकरण के ‘मुनित्रय’ - [[पाणिनि]], [[वररुचि]] तथा [[पतञ्जलि|पतंजलि]] का स्थान अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। आचार्य [[रुद्रट]] द्वारा रचित ‘[[काव्यालंकार सूत्र]]’ के टीकाकार [[नेमिसाधु]] ने पाणिनि द्वारा रचित महाकाव्य ‘जाम्बवतीजय’ या ‘पातालविजय’ का उल्लेख किया है। पतंजलि के [[महाभाष्य]] (ईस्वी पूर्व द्वितीय शती) में काव्यगुणों से सम्पन्न पद्य उपलब्ध होते हैं। इन सब प्रमाणों के आधर पर महाकाव्य का उदय ईस्वी पूर्व की अष्टम शती में ही पाणिनि द्वारा हो चुका था। सूक्तिग्रन्थों में [[राजशेखर]] ने पाणिनि को ‘व्याकरण’ तथा ‘जाम्बवतीजय’ दोनों का रचयिता माना है-
 
: ''नमःपाणिनये तस्मै यस्मादाविरभूदिह। आदौ व्याकरणं काव्यमनु जाम्बवतीजयम्।
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: ''यथार्थता कथं नाम्नि या भूद वररुचेरिह। व्यध्त्त कण्ठाभरणं यः सदारोहणप्रियः ॥
 
वररुचि-प्रणीत महाकाव्य का नाम ‘[[कण्ठाभरण]]’ है। वररुचि ने पाणिनि का अनुकरण ‘वार्तिक’ लिखकर ही नहीं किया प्रत्युत काव्यरचना से उसकी पूर्ति की। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में दृष्टांत के रूप में बहुत से श्लोकों या श्लोकखण्डों को उद्धृत किया जिनके अनुशीलन से संस्कृत-काव्यधरा की प्राचीनता सिद्ध होती है। काव्य अपने सुन्दर निर्माण तथा रचना के निमित्त शान्त वातावरण, आर्थिक समृद्धि तथा सामाजिक शान्ति की जितनी अपेक्षा रखता है उतनी ही वह किसी गुणग्राही आश्रयदाता की प्रेरणा की भी। प्राचीन भारतवर्ष के इतिहास में वह युग शकों के भयंकर आक्रमणों से भारतीय जनता, धर्म तथा संस्कृति के रक्षक मालव संवत के ऐतिहासिक संस्थापक शकारि मालवगणाध्यक्ष [[विक्रमादित्य]] का है। इसी युग में [[भारत की संस्कृति|भारतीय संस्कृति]] के उपासक [[कालिदास]] का काव्याकाश में उदय होता है। कालिदास को वस्तुतः प्रौढ़, परिष्कृत, प्रांजल एवं मनोज्ञ काव्यशैली का प्रवर्तक कहा जा सकता है। कालिदासजी ने जो काव्यादर्श उपस्थित किया वह परकालीन कवियों एवं लेखकों के लिये अनुकरणीय हुए।
 
संस्कृत महाकाव्य को तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है-
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== संस्कृत के महाकाव्य ==
* [[रामायण]] ([[वाल्मीकि]])
* [[महाभारत]] ([[वेदव्यास|वेद व्यास]])
* [[बुद्धचरित]] ([[अश्वघोष]])
* [[भट्टिकाव्य]] ([[भट्टि]])
* [[कुमारसंभवम्|कुमारसंभव]] ([[कालिदास]])
* [[रघुवंश]] ([[कालिदास]])
* [[किरातार्जुनीयम्]] ([[भारवि]])
* [[शिशुपालवध|शिशुपाल वध]] ([[माघ]])
* [[नैषधीयचरित|नैषधीय चरित]] ([[श्रीहर्ष]])
 
रघुवंश, कुमारसम्भव, कीरातार्जुनीयम्, शिशुपालवध और नैषधचरित को 'पंचमहाकाव्य' कहा जाता है।
 
== प्राकृत और अपभ्रंश के महाकाव्य ==
* प्रवरसेन द्वितीय रचित [[रामेश्वरम|सेतुबंध]]
* सर्वसेन रचित [[हरिविजय काव्य]]
* [[रावण वही]] (रावण वध)
पंक्ति 117:
== हिंदी के महाकाव्य ==
*1. [[चंदबरदाई]]कृत [[पृथ्वीराज रासो]] को हिंदी का प्रथम महाकाव्य कहा जाता है।
*2. [[मलिक मोहम्मद जायसी|मलिक मुहम्मद जायसी]] - [[पद्मावत]]
*3. [[तुलसीदास]] - [[श्रीरामचरितमानस|रामचरितमानस]]
*4. आचार्य [[केशवदासकेशव]]दास - [[रामचन्द्र चन्द्रिका|रामचंद्रिका]]
*5. [[मैथिलीशरण गुप्त]] - [[साकेत]]
*6. [[अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']] - [[प्रियप्रवास]]
पंक्ति 125:
*8. [[जयशंकर प्रसाद]] - [[कामायनी]]
*9. [[रामधारी सिंह 'दिनकर']] - [[उर्वशी]]
*10. [[राम कुमार वर्मा|रामकुमार वर्मा]] - [[एकलव्य]]
*11. बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' - उर्मिला
*12. [[गुरुभक्त सिंह]] - [[नूरजहां]], [[विक्रमादित्य]]
पंक्ति 134:
 
== तमिल के महाकाव्य ==
* [[शिलप्पदिकारम|शिलप्पादिकारम]]
* मणिमेकलै
* [[जीवक चिन्तामणि]]
पंक्ति 142:
== इन्हें भी देखें ==
* [[काव्य]]
* [[मुक्तक|मुक्तक काव्य]]
* [[खण्डकाव्य]]
* [[भारतीय महाकाव्य]]