"स्वामी सोमदेव": अवतरणों में अंतर

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'''स्वामी सोमदेव''' [[आर्य समाज]] के एक विद्वान धर्मोपदेशक थे। [[ब्रिटिश राज]] के दौरान पंजाब प्रान्त के [[लाहौर]] शहर में जन्मे सोमदेव का वास्तविक नाम ब्रजलाल चोपड़ा था। सन १९१५ में जिन दिनों वे स्वास्थ्य लाभ के लिये आर्य समाज [[शाहजहाँपुर]] आये थे उन्हीं दिनों समाज की ओर से [[राम प्रसाद 'बिस्मिल']] को उनकी सेवा-सुश्रूषा में नियुक्त किया गया था। किशोरावस्था में स्वामी सोमदेव की सत्संगति पाकर बालक रामप्रसाद आगे चलकर 'बिस्मिल' जैसा बेजोड़ क्रान्तिकारी बन सका। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी [[आत्मकथा]] में '''मेरे गुरुदेव''' शीर्षक से उनकी संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित [[जीवनचरित|जीवनी]] लिखी है।
 
सोमदेव जी उच्चकोटि के वक्‍ता तो थे ही, बहुत अच्छे [[लेखक]] भी थे। उनके लिखे हुए कुछ लेख तथा पुस्तकें उनके ही एक भक्‍त के पास थीं जो उसकी लापरवाही से नष्‍ट हो गयीं। उनके कुछ लेख प्रकाशित भी हुए थे। लगभग 57 वर्ष की आयु में उनका [[मृत्यु|निधन]] हुआ।
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=== भारत-भ्रमण ===
भारत-भ्रमण की इच्छा जागृत होते ही उन्होंने एक दिन [[हरिद्वार]] त्याग दिया और अनेक स्थानों पर घूम-घूम कर देशाटन, अध्ययन व मनन करते रहे। [[जर्मनी]] तथा [[संयुक्त राज्य अमेरिका|अमेरिका]] से शास्‍त्रों के सम्बन्ध में बहुत सी पुस्तकें मंगवाकर उनका गम्भीर अध्ययन किया। जिन दिनों [[लाला लाजपत राय]] को देश-निर्वासन की सजा दी गयी सोमदेव उन दिनों लाहौर में ही थे। वहाँ से एक अखबार निकालने की इच्छा से उन्होंने आवेदन दिया। लाहौर का डिप्टी कमिश्‍नर उस समय किसी भी नये [[समाचारपत्र|अखबार]] का आवेदन स्वीकार ही न करता था परन्तु जब स्वामी सोमदेव से भेंट हुई तो वह उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुआ और उसने आवेदन स्वीकार कर लिया। अपने अखबार का पहला ही सम्पादकीय उन्होंने '''अंग्रेजों को चेतावनी''' के नाम से लिखा। लेख इतना उत्तेजनापूर्ण था कि थोड़ी देर में ही अखबार की सभी प्रतियाँ हाथों-हाथ बिक गयीं और जनता के अनुरोध पर उसी अंक का दूसरा [[संस्करण]] प्रकाशित करना पड़ा।
 
डिप्टी कमिश्‍नर के पास जैसे ही इसकी रिपोर्ट पेश हुई उसने सोमदेव को अपने कार्यालय में बुलवाया। वह लेख को पढ़कर क्रोध से काँपता और मेज पर मुक्का मारता। परन्तु लेख के अन्तिम वाक्यों को पढ़कर शान्त हो जाता। उस लेख के अन्त में सोमदेव ने लिखा था - "यदि अंग्रेज अब भी न समझे तो वह दिन दूर नहीं कि सन् 1857 के दृश्य हिन्दुस्तान में फिर दिखाई दें और अंग्रेजों के बच्चों को कत्ल किया जाय व उनकी स्त्रियों की बेइज्जती हो। किन्तु यह सब स्वप्न है, यह सब स्वप्न है।" इन्हीं शब्दों को पढ़कर डिप्टी कमिश्‍नर कहता - "स्वामी सोमदेव! टुम निहायट होशियार हो। हम टुमारा कुछ नहीं कर सकता।"
 
=== बम्बई प्रवास ===
भारत-भ्रमण करते हुए वे [[मुम्बई|बम्बई]] पहुँचे। उनके व्याख्यान सुनकर जनता बहुत प्रभावित हुई। [[अबुल कलाम आज़ाद|मौलाना अबुल कलाम आज़ाद]] के बड़े भाई तो उनका व्याख्यान सुनकर इतने अधिक मोहित हुए कि उन्हें अपने घर ले गये। धार्मिक कथाओं का पाठ करने जाना छोड़ वह दिन रात सोमदेव के ही पास बैठे रहते। जब उनसे कहीं जाने को कहा जाता तो रोने लगते और कहते कि मैं तो आपके आत्मिक ज्ञान से अभिभूत हूँ। मुझे अब किसी भी सांसारिक वस्तु की कोई इच्छा ही नहीं रही। आज़ाद के बड़े भाई स्वयं भी बहुत अच्छे धार्मिक कथावाचक थे और उनके हजारों शिष्य थे। उनके शिष्यों को इस बात पर बड़ा क्रोध आया कि उनके इस्लामिक धर्मगुरु सोमदेव नाम के एक काफिर के चक्कर में फँस गये हैं। अतएव सभी शिष्य इकट्ठे होकर स्वामीजी को मार डालने के लिये मकान पर आये। उन्होंने स्वामीजी के प्राणों पर संकट आया देख उनसे बम्बई छोड़ देने की प्रार्थना की। स्वामीजी के बम्बई छोड़ते ही अबुल कलाम आजाद के भाई साहब इतने दुखी हुए कि उन्होंने आत्महत्या ही कर ली।
 
== काँग्रेस अधिवेशन में==
स्वामी जी अंग्रेजी भाषा एवं शास्त्रों के अच्छे जानकार थे। उनकी असाधारण योग्यता के कारण ही उन्हें [[भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस|अखिल भारतीय कांग्रेस]] का प्रतिनिधि चुना गया था। [[आगरा]] की आर्यमित्र-सभा के वार्षिकोत्सव पर उनका व्याख्यान सुनकर [[राजा महेन्द्रप्रताप]] अत्यधिक प्रभावित हुए और उन्हें अपना गुरु मान लिया। वे एक निर्भीक वक्ता थे। राम प्रसाद बिस्मिल ने उन्हें सन् 1913 में पहली बार शाहजहाँपुर में सुना था। उन दिनों वे [[बरेली]] में निवास करते थे और वहीं से शाहजहाँपुर व्याख्यान देने पधारे थे।
 
सोमदेव का शरीर काफी दुबला-पतला था किन्तु उनकी वाणी बहुत बुलन्द व इतनी स्पष्ठ थी कि बिना माइक के बोलने पर भी तीन-चार फर्लांग की दूरी से बिल्कुल साफ सुनायी देती थी। उन्हें एक अजीब रोग हो गया था। जब कभी शौच जाते, कभी दो छटांक, कभी चार छटांक और कभी कभी तो एक सेर तक खून गिर जाता था। उन्हें [[बवासीर]] नहीं थी परन्तु वे ऐसा बताते थे कि योग-क्रिया बिगड़ जाने से पेट की आँत सड़ गयी। अतएव चिकित्सकों ने उनका पेट चीरकर आँत काट दी थी। तभी से उन्हें मलद्वार से रक्त जाने का भयंकर रोग हो गया था। बड़े-बड़े वैद्यों व डॉक्टरों से इलाज भी कराया परन्तु कोई फायदा नहीं हुआ।
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== स्वामीजी का बिस्मिल पर प्रभाव ==
जिन दिनों बालक रामप्रसाद उनकी सेवा में नियुक्त था वे उसे धार्मिक तथा राजनैतिक उपदेश के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की पुस्तकें भी पढ़ने को दिया करते थे। [[राजनीति]] के क्षेत्र में भी वे उच्च कोटि की जानकारियाँ रखते थे। न केवल देश अपितु विदेश में प्रवास करने वाले क्रान्तिकारी चिन्तक [[लाला हरदयाल]] तक उनसे परामर्श लिया करते थे। उन्होंने एक बार [[स्वामी श्रद्धानन्द|महात्मा मुंशीराम]] को, जो बाद में [[स्वामी श्रद्धानन्द]] के नाम से विख्यात हुए, पुलिस के प्रकोप से बचाया था। [[आचार्य रामदेव]] व [[श्यामजी कृष्ण वर्मा]] से भी उनका बड़ा गहरा सम्बन्ध था। एण्ट्रेंस पास कर लेने के बाद यूरोप यात्रा करने तथा [[इटली]] जाकर महात्मा मेजिनी की जन्मभूमि के दर्शन करने की बात वे बिस्मिल से अक्सर किया करते थे।
 
सन् 1916 में जब लाहौर षड्यन्त्र का मुकदमा चला मैं और भाई परमानन्द की फाँसी की सजा का समाचार छपा तो उसे पढ़कर बिस्मिल के तन वदन में आग लग गयी। उसने प्रतिज्ञा की कि वह इसका बदला अवश्य लेगा। प्रतिज्ञा करने के पश्‍चात् बिस्मिल स्वामी सोमदेव के पास गये और उन्हें अपनी प्रतिज्ञा के बारे में बताया। इस पर उन्होंने बिस्मिल से कहा कि प्रतिज्ञा करना तो आसान है परन्तु उस पर कायम रहना काफी कठिन है। रामप्रसाद बिस्मिल ने स्वामीजी को प्रणाम कर कहा कि यदि उनके श्रीचरणों की कृपा बनी रही तो प्रतिज्ञा पूर्ति में किसी प्रकार की कोताही नहीं होगी। उस दिन से स्वामी सोमदेव ने बालक बिस्मिल को राजनीति सम्बन्धी बहुत-सी बातें बतानी शुरू कीं। बकौल बिस्मिल उसी दिन से रामप्रसाद के मन में क्रान्तिकारी बनने की तमन्ना जागृत हुई और वह राम प्रसाद से रामप्रसाद बिस्मिल हो गया।
 
सोमदेव आर्य-समाज के सिद्धान्तों के अतिरिक्त [[रामकृष्ण परमहंस]], [[स्वामी विवेकानन्द]], [[स्वामी रामतीर्थ]] और महात्मा [[कबीरदासकबीर]]दास के उपदेशों के बारे में बिस्मिल को काफी कुछ बताया करते थे।
 
== अधूरी अभिलाष ==
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== इन्हें भी देखें==
* [[रामदेव|स्वामी रामदेव]]
== सन्दर्भ ==
{{टिप्पणीसूची}}
* [http://www.worldcat.org/title/nija-jivana-ki-eka-chata-amerika-ki-svatantrata-ka-itihasa-aravinda-ghosa-krta-yaugika-sadhana-anudita-kaitheraina-ya-svadhinata-ki-devi/oclc/254932400&referer=brief_results सरफ़रोशी की तमन्ना (भाग तीन)] [[१९९८|1998]] [[प्रवीण प्रकाशन]], नई दिल्ली ([[भारत]])
 
== बाहरी कड़ियाँ==