"ऊष्मागतिकी के सिद्धान्त": अवतरणों में अंतर

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19वीं शताब्दी के मध्य में [[उष्मागतिकी|ऊष्मागतिकी]] के दो सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया था, जिन्हें उष्मागतिकी के प्रथम एवं द्वितीय सिद्धांत कहते हैं। 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में दो अन्य सिद्धांतों का प्रतिपादन किया गया है जिन्हें उष्मागतिकी का शून्यवाँ तथा तृतीय सिद्धांत कहते हैं।
 
* [[ऊष्मागतिकी का शून्यवाँ नियम]]
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यों तो द्रव के किसी भी गुण का उपयोग तापमापी के लिए किया जा सकता है परंतु p तथा V के जिस संबंध का उपयोग किया जाए वह जितना ही सरल होगा उतना ही ताप नापने में सुगमता होगी। हम जानते हैं कि समतापीय अवस्था में अल्प दाबवाली गैस की दाब एवं आयतन का गुणनफल अचर होता है। अतएव pV = R0 को ताप नापने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है और इस संबंध का उपयोग किया भी जाता है। परंतु यदि (दाब x अयातन) अचर हो तो (दाब x आयतन) का वर्गमूल अथवा (दाब x आयतन) का वर्ग भी अचर होगा। किंतु इनका उपयोग नहीं किया जाता। pV = R0 का उपयोग करने में क्या लाभ है यह आगे चलकर प्रकट होगा।
 
∆Q निकाय को दी गर्इ ऊष्मा, ∆U निकाय के [[आन्तरिक ऊर्जा|आंतरिक ऊर्जा]] में वृद्धि, एवं ∆W निकाय द्वारा किया गया कार्य है।
 
यदि निकाय ∆Q ऊष्मा लेती है तो धनात्मक और यदि ∆Q ऊर्जा निकाय द्वारा दी जाती है तो ऋणात्मक होती है। यदि निकाय द्वारा ∆W कार्य किया जाता है तो कार्य धनात्मक, यदि निकाय आयतन पर गैस के ताप को 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा एवं स्थिर दाब पर गैस के ताप को 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ाने के लिए आवश्यक ऊष्मा की मात्रा में अन्तर रहता है। इस प्रकार गैस की दो विशिष्ट ऊष्माएँ होती हैं।