"ख़िलाफ़त आन्दोलन": अवतरणों में अंतर

→‎कारण: इस कथन को महात्मा गाँधी द्वारा कहा गया या विचारा गया बताया गया है जो की गलत है, खंड 17 पेज न. 527-528 पर इलाहाबाद में हुई खिलाफत सभा के बैठक में मुस्लिम नेताओं का ये विचार था जिसे गाँधी जी ने 9-6-1920 को अपने अंग्रेज़ी पत्र यंग इंडिया में छापा था
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'''ख़िलाफ़त आन्दोलन''' (1919-1922) [[भारत]] में मुख्य तौर पर मुसलमानों द्वारा चलाया गया राजनीतिक-धार्मिक आन्दोलन था। इस आन्दोलन का उद्देश्य (सुन्नी) इस्लाम के मुखिया माने जाने वाले [[तुर्की]] के [[खलीफा|ख़लीफ़ा]] के पद की पुन:स्थापना कराने के लिये अंग्रेज़ों पर दबाव बनाना था। सन् १९२४ में [[मुस्तफ़ा कमाल अतातुर्क|मुस्तफ़ा कमाल]] के ख़लीफ़ा पद को समाप्त किये जाने के बाद यह अपने-आप समाप्त हो गया। लेकिन इसकी वजह से [[भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन|भारतीय स्वतंत्रता संग्राम]] और आजकल की भारतीय राजनीति में एक बहस का मुद्दा छिड़ गया। इसके मुख्य प्रणेता [[उत्तर प्रदेश]] के अली बंधुओं को पाकिस्तान में बहुत आदर से देखा जाता है।
 
== इतिहास ==
सन् 1908 ई. में [[तुर्की]] में [[युवा तुर्क आन्दोलन|युवा तुर्क दल]] द्वारा शक्तिहीन ख़लीफ़ा के प्रभुत्व का उन्मूलन ख़लीफ़त (ख़लीफ़ा के पद) की समाप्ति का प्रथम चरण था। इसका भारतीय मुसलमान जनता पर नगण्य प्रभाव पड़ा। किंतु, 1912 में तुर्की-इतालवी तथा [[बाल्कन]] युद्धों में, तुर्की के विपक्ष में, [[ब्रिटेन]] के योगदान को [[इस्लामी संस्कृति]] तथा सर्व इस्लामवाद पर प्रहार समझकर भारतीय मुसलमान ब्रिटेन के प्रति उत्तेजित हो उठे। यह विरोध भारत में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रोषरूप में परिवर्तित हो गया। इस उत्तेजना को [[अबुल कलाम आज़ाद|अबुलकलाम आज़ाद]], ज़फ़र अली ख़ाँ तथा [[मुहम्मद अली|मोहम्मद अली]] ने अपने समाचारपत्रों अल-हिलाल, जमींदार तथा कामरेड और हमदर्द द्वारा बड़ा व्यापक रूप दिया।
 
[[पहला विश्व युद्ध|प्रथम महायुद्ध]] में तुर्की पर ब्रिटेन के आक्रमण ने असंतोष को प्रज्वलित किया। सरकार की दमननीति ने इसे और भी उत्तेजित किया। राष्ट्रीय भावना तथा मुस्लिम धार्मिक असंतोष का समन्वय आरंभ हुआ। महायुद्ध की समाप्ति के बाद राजनीतिक स्वत्वों के बदले भारत को रौलट बिल, दमनचक्र, तथा [[जलियाँवाला बाग हत्याकांड|जलियानवाला बाग हत्याकांड]] मिले, जिसने राष्ट्रीय भावना में आग में घी का काम किया। अखिल भारतीय ख़िलाफ़त कमेटी ने जमियतउल्-उलेमा के सहयोग से ख़िलाफ़त आंदोलन का संगठन किया तथा मोहम्मद अली ने 1920 में ख़िलाफ़त घोषणापत्र प्रसारित किया। राष्ट्रीय आंदोलन का नेतृत्व [[महात्मा गांधी|गांधी जी]] ने ग्रहण किया। गांधी जी के प्रभाव से ख़िलाफ़त आंदोलन तथा [[असहयोग आन्दोलन|असहयोग आंदोलन]] एकरूप हो गए। मई, 1920 तक ख़िलाफ़त कमेटी ने महात्मा गांधी की अहिंसात्मक असहयोग योजना का समर्थन किया। सितंबर में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन ने असहयोग आंदोलन के दो ध्येय घोषित किए - स्वराज्य तथा ख़िलाफ़त की माँगों की स्वीकृति। जब नवंबर, 1922 में तुर्की में [[मुस्तफाकमाल कमालपाशाअतातुर्क|मुस्तफ़ा कमालपाशा]] ने सुल्तान ख़लीफ़ा [[महमद षष्ठ]] को पदच्युत कर [[अब्दुल मजीद द्वितीय|अब्दुल मजीद आफ़ंदी]] को पदासीन किया और उसके समस्त राजनीतिक अधिकार अपहृत कर लिए तब ख़िलाफ़त कमेटी ने 1924 में विरोधप्रदर्शन के लिए एक प्रतिनिधिमंडल तुर्की भेजा। राष्ट्रीयतावादी मुस्तफ़ा कमाल ने उसकी सर्वथा उपेक्षा की और 3 मार्च 1924 को उन्होंने ख़लीफ़ी का पद समाप्त कर ख़िलाफ़त का अंत कर दिया। इस प्रकार, भारत का ख़िलाफ़त आंदोलन भी अपने आप समाप्त हो गया।
 
== कारण ==
 
[[महात्मा गाँधीगांधी|गांधी]] ने 1920-21 में ख़िलाफ़त आंदोलन क्यों चलाया, इसके दो दृष्टिकोण हैं:-
 
* एक वर्ग का कहना था कि गांधी की उपरोक्त रणनीति व्यवहारिक अवसरवादी गठबंधन का उदाहरण था। वे समझ चुके थे कि अब भारत में शासन करना अंग्रेज़ों के लिए आर्थिक रूप से महंगा पड़ रहा है। अब उन्हें हमारे कच्चे माल की उतनी आवश्यकता नहीं है। अब सिन्थेटिक उत्पादन बनाने लगे हैं। अंग्रेज़ों को भारत से जो लेना था वे ले चुके हैं। अब वे जायेंगे। अत: अगर शांति पूर्वक असहयोग आंदोलन चलाया जाए, सत्याग्रह आंदोलन चलाया जाए तो वे जल्दी चले जाएंगे। इसके लिए हिन्दू-मुस्लिम एकता आवश्यक है। दूसरी ओर अंग्रेज़ों ने इस राजनीतिक गठबंधन को तोड़ने की चाल चली।