"हिन्दी जाति": अवतरणों में अंतर

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:''भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं के अपने-अपने प्रदेश हैं। इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों को ‘जाति’ की संज्ञा दी जाती है। वर्ण-व्यवस्था वाली जाति-पाँत से इस ‘जाति’ का अर्थ बिल्कुल भिन्न है। किसी भाषा को बोलने वाली, उस भाषा क्षेत्र में बसने वाली इकाई का नाम जाति है।'' (पृष्ठ 68) अर्थात जाति का सीधा संबंध भाषा से है।
 
हिन्दी जाति की अवधारणा नयी नहीं है। 1902 की ‘[[सरस्वती पत्रिका|सरस्वती]]’ में श्री कार्तिक प्रसाद ने ‘महाराष्ट्रीय जाति का अभ्युदय’ नामक लेख लिखा। भारत में जैसे महाराष्ट्रीय जाति है, उसी तरह हिन्दीभाषी प्रदेश में हिन्दी जाति भी है। 1930 में डॉ॰ [[धीरेन्द्र वर्मा]] ने ‘हिन्दी राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान’ नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में उन्होंने हिन्दी भाषी प्रदेश का सूबा निर्धारण किया। 1940 में प्रकाशित ‘आर्यभाषा और हिन्दी’ नामक पुस्तक में डॉ॰ [[सुनीति कुमार चटर्जी]] ने हिन्दीभाषी जाति का उल्लेख किया है। [[फादर कामिल बुल्के|कामिल बुल्के]] ने ‘रामकथा उत्पत्ति और विकास’ नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तक में रामकथा के प्रसंग में हिन्दी प्रदेश का उल्लेख किया है। इसी तरह [[अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन|हिन्दी साहित्य सम्मेलन]] के अध्यक्षीय भाषण में [[राहुल सांकृत्यायन|राहुल]] जी ने हिन्दी प्रदेश की सांस्कृतिक उपलब्धियों की विस्तार से चर्चा की थी।
 
रामविलास शर्मा ने बड़े विस्तार से मध्यकाल से लेकर आधुनिक काल तक राजनीतिक, आर्थिक, व्यापारिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में पूरे देश में हिंदी के सहज, स्वाभाविक विकास का इतिहास प्रस्तुत किया। इस क्रम में उन्होंने राष्ट्रीय संपर्क-भाषा, राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी के विकास को रेखांकित किया, तो दूसरी तरफ अवधी, ब्रज, भोजपुरी आदि बोलियों के बीच हिंदी के जातीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का तथ्य सामने रखा। जिस तरह भाषा के आधार पर बांग्ला, गुजराती, मराठी आदि जातियों की पहचान होती है, उसी तर्ज पर हिंदी प्रदेश के लोग भी जनपदीय बोलियों के आधार पर पहचाने जाने के बजाय एक हिंदी भाषी जाति के रूप में पहचाने जाएं- उनकी यही मंशा थी।