"मुहावरा": अवतरणों में अंतर

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'''मुहावरा''' मूलत: [[अरबी भाषा]] का शब्द है जिसका अर्थ है बातचीत करना या उत्तर देना। कुछ लोग मुहावरे को ‘रोज़मर्रा’, ‘बोलचाल’, ‘तर्ज़ेकलाम’, या ‘इस्तलाह’ कहते हैं, किन्तु इनमें से कोई भी शब्द ‘मुहावरे’ का पूर्ण पर्यायवाची नहीं बन सका। [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] वाङ्मय में मुहावरा का समानार्थक कोई शब्द नहीं पाया जाता। कुछ लोग इसके लिए ‘प्रयुक्तता’, ‘वाग्रीति’, ‘वाग्धारा’ अथवा ‘भाषा-सम्प्रदाय’ का प्रयोग करते हैं। वी०एस० आप्टे ने अपने ‘इंगलिश-संस्कृत कोश’ में मुहावरे के [[पर्यायवाची]] शब्दों में ‘वाक्-पद्धति', ‘वाक् रीति’, ‘वाक्-व्यवहार’ और ‘विशिष्ट स्वरूप' को लिखा है। पराड़कर जी ने ‘वाक्-सम्प्रदाय’ को मुहावरे का पर्यायवाची माना है। [[काका कालेलकर]] ने ‘वाक्-प्रचार’ को ‘मुहावरे’ के लिए ‘रूढ़ि’ शब्द का सुझाव दिया है। [[यूनानी]] भाषा में ‘मुहावरे’ को ‘ईडियोमा’, [[फ़्रान्सीसी भाषा|फ्रेंच]] में ‘इंडियाटिस्मी’ और [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेजी]] में ‘ईडिअम’ कहते हैं।
 
मोटे तौर पर जिस सुगठित शब्द-समूह से लक्षणाजन्य और कभी-कभी व्यंजनाजन्य कुछ विशिष्ट अर्थ निकलता है उसे '''मुहावरा''' कहते हैं। कई बार यह [[व्यंग्य|व्यंग्यात्मक]] भी होते हैं। मुहावरे भाषा को सुदृढ़, गतिशील और रुचिकर बनाते हैं। मुहावरों के प्रयोग से भाषा में अद्भुत चित्रमयता आती है। मुहावरों के बिना भाषा निस्तेज, नीरस और निष्प्राण हो जाती है। मुहावरे रोजमर्रा के काम के है।
 
[[हिन्दी|हिन्दी भाषा]] में बहुत अधिक प्रचलित और लोगों के मुँहचढ़े वाक्य '''[[लोकोक्ति]]''' के तौर पर जाने जाते हैं। इन वाक्यों में जनता के अनुभव का निचोड़ या सार होता है।
 
== परिचय एवं परिभाषा ==
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*(ख) लक्षणा, और
*(ग) व्यंजना।
जब किसी शब्द या शब्द-समूह का सामान्य अर्थ में प्रयोग होता है, तब वहाँ उसकी '''अभिधा''' शक्ति होती है। अभिधा द्वारा अभिव्यक्ति अर्थ को अभिधेयार्थ या मुख्यार्थ कहते हैं; जैसे ‘सिर पर चढ़ना’ का अर्थ किसी चीज को किसी स्थान से उठा कर सिर पर रखना होगा। परन्तु जब मुख्यार्थ का बोध न हो और रूढ़ि या प्रसिद्ध के कारण अथवा किसी विशेष प्रयोजन को सूचित करने के लिए, मुख्यार्थ से संबद्ध किसी अन्य अर्थ का ज्ञान हो तब जिस शक्ति के द्वारा ऐसा होता है उसे लक्षणा कहते हैं। यह शक्ति ‘अर्पित’ अर्थात् कल्पित होती है। इसीलिए ‘[[साहित्यदर्पणसाहित्य दर्पण|साहित्यदर्पण’]] में [[आचार्य विश्वनाथ|विश्वनाथ]] ने लिखा है :
 
:'''मुख्यार्थ बाधे तद्युक्तो यथान्योऽर्थ प्रतीयते।'''