"अपभ्रंश": अवतरणों में अंतर

छोNo edit summary
छो बॉट: पुनर्प्रेषण ठीक कर रहा है
पंक्ति 1:
'''अपभ्रंश''', आधुनिक भाषाओं के उदय से पहले [[उत्तर भारत]] में बोलचाल और साहित्य रचना की सबसे जीवंत और प्रमुख भाषा (समय लगभग छठी से १२वीं शताब्दी)। भाषावैज्ञानिक दृष्टि से अपभ्रंश भारतीय आर्यभाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो [[प्राकृत]] और आधुनिक भाषाओं के बीच की स्थिति है।
 
अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को केवल 'भाषा', 'देसी भाषा' अथवा 'गामेल्ल भाषा' (ग्रामीण भाषा) कहा है, परंतु [[संस्कृत भाषा|संस्कृत]] के व्याकरणों और अलंकारग्रंथों में उस भाषा के लिए प्रायः 'अपभ्रंश' तथा कहीं-कहीं 'अपभ्रष्ट' संज्ञा का प्रयोग किया गया है। इस प्रकार अपभ्रंश नाम संस्कृत के आचार्यों का दिया हुआ है, जो आपाततः तिरस्कारसूचक प्रतीत होता है। [[महाभाष्य]]कार [[पतञ्जलि|पतंजलि]] ने जिस प्रकार 'अपभ्रंश' शब्द का प्रयोग किया है उससे पता चलता है कि संस्कृत या साधु शब्द के लोकप्रचलित विविध रूप अपभ्रंश या अपशब्द कहलाते थे। इस प्रकार प्रतिमान से च्युत, स्खलित, भ्रष्ट अथवा विकृत शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी गई और आगे चलकर यह संज्ञा पूरी भाषा के लिए स्वीकृत हो गई। [[दण्डी|दंडी]] (सातवीं शती) के कथन से इस तथ्य की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि शास्त्र अर्थात् व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से इतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है; इस प्रकार पालि-प्राकृत-अपभ्रंश सभी के शब्द 'अपभ्रंश' संज्ञा के अंतर्गत आ जाते हैं, फिर भी पालि प्राकृत को 'अपभ्रंश' नाम नहीं दिया गया।
 
== "अपभ्रंश" शब्द की व्युत्पत्ति ==
पतंजलि आदि विद्वानों ने '''प्राकृत''' और '''अपभ्रंश''' नामों का प्रयोग समान अर्थ में किया है। परन्तु भरतमुनि का नाट्यशास्त्र प्रथम ऐसी रचना है जिसमें '''अपभ्रंश''' का वास्तविक संदर्भ मिलता है (आधुनिक अर्थ में)। वहाँ आभीरों की बोली को, जिसमें '''-उ''' का प्रयोग बहुतायत में मिलता है, अपभ्रंश कहा गया है (उस स्थान पर अपभ्रंश के समकक्ष शब्द विभ्रष्ट का प्रयोग है)।<ref>Historical grammar of Apabhraṁśa, Ganesh Vasudev Tagare</ref>
 
[[दण्डी|दंडी]] ने इस बात को स्पष्ट करते हुए आगे कहा है कि काव्य में आभीर आदि बोलियों को अपभ्रंश नाम से स्मरण किया जाता है; इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि अपभ्रंश नाम उसी भाषा के लिए रूढ़ हुआ जिसके शब्द संस्कृतेतर थे और साथ ही जिसका व्याकरण भी मुख्यतः आभीरादि लोक बोलियों पर आधारित था। इसी अर्थ में अपभ्रंश पालि-प्राकृत आदि से विशेष भिन्न थी।
 
अपभ्रंश के संबंध में प्राचीन अलंकारग्रंथों में दो प्रकार के परस्पर विरोधी मत मिलते हैं। एक ओर[[काव्यालंकार]](रुद्रट) के टीकाकार नमिसाधु (१०६९ ई.) अपभ्रंश को प्राकृत कहते हैं तो दूसरी ओर [[भामह]] (छठी शती), दंडी (सातवीं शती) आदि आचार्य अपभ्रंश का उल्लेख प्राकृत से भिन्न स्वतंत्र काव्यभाषा के रूप में करते हैं। इन विरोधी मतों का समाधान करते हुए याकोगी (भविस्सयत्त कहा की जर्मन भूमिका, अंग्रेजी अनुवाद, बड़ौदा ओरिएंटल इंस्टीटयूट जर्नल, जून १९५५) ने कहा है कि शब्दसमूह की दृष्टि से अपभ्रंश प्राकृत के निकट है और व्याकरण की दृष्टि से प्राकृत से भिन्न भाषा है।
पंक्ति 18:
 
== विशेषताएँ ==
अपभ्रंश भाषा का ढाँचा लगभग वही है जिसका विवरण [[हेमचन्द्राचार्य|हेमचंद्र]] के '''सिद्धहेमशबदानुशासनम्''' के आठवें अध्याय के चतुर्थ पाद में मिलता है। ध्वनिपरिर्वान की जिन प्रवृत्त्त्तियो के द्वारा संस्कृत शब्दों के तद्भव रूप प्राकृत में प्रचलित थे, वही प्रवृतियाँ अधिकांशतः अपभ्रंश शब्दसमूह में भी दिखाई पड़ती है, जैसे अनादि और असंयुक्त क, ग, च, ज, त, द, प, य और व का लोप तथा इनके स्थान पर उद्वृत स्वर अ अथवा य श्रुति का प्रयोग। इसी प्रकार प्राकृत की तरह ('क्त', 'क्व', 'द्व') आदि संयुक्त व्यंजनों के स्थान पर अपभ्रंश में भी 'क्त', 'क्क', 'द्द' आदि द्वित्तव्यंजन होते थे। परंतु अपभ्रंश में क्रमशः समीतवर्ती उद्वृत स्वरों को मिलाकर एक स्वर करने और द्वित्तव्यंजन को सरल करके एक व्यंजन सुरक्षित रखने की प्रवृत्ति बढ़ती गई। इसी प्रकार अपभ्रंश में प्राकृत से कुछ और विशिष्ट ध्वनिपरिवर्तन हुए। अपभ्रंश कारकरचना में विभक्तियाँ प्राकृत की अपेक्षा अधिक घिसी हुई मिलती हैं, जैसे तृतीया एकवचन में 'एण' की जगह 'एं' और षष्ठी एकवचन में 'स्स' के स्थान पर 'ह'। इसके अतिरिक्त अपभ्रंश निर्विभक्तिक संज्ञा रूपों से भी कारकरचना की गई। सहुं, केहिं, तेहिं, देसि, तणेण, केरअ, मज्झि आदि परसर्ग भी प्रयुक्त हुए। कृदंतज क्रियाओं के प्रयोग की प्रवृत्ति बढ़ी और संयुक्त क्रियाओं के निर्माण का आरंभ हुआ। संक्षेप में ''अपभ्रंश ने नए सुबंतों और तिङंतों की सृष्टि की''।
 
== अपभ्रंश साहित्य ==
अपभ्रंश साहित्य की प्राप्त रचनाओं का अधिकांश जैन काव्य है अर्थात् रचनाकार [[जैन धर्म|जैन]] थे और प्रबंध तथा मुक्तक सभी काव्यों की वस्तु जैन दर्शन तथा पुराणों से प्रेरित है। सबसे प्राचीन और श्रेष्ठ कवि [[स्वयंभू]] (नवीं शती) हैं जिन्होंने [[राम]] की कथा को लेकर '[[पउमचरिउ|पउम-चरिउ]]' तथा 'महाभारत' की रचना की है। दूसरे महाकवि [[पुष्पदन्त|पुष्पदंत]] (दसवीं शती) हैं जिन्होंने जैन परंपरा के त्रिषष्ठि शलाकापुरुषों का चरित '[[महापुराण]]' नामक विशाल काव्य में चित्रित किया है। इसमें राम और कृष्ण की भी कथा sammilit है। इसके अतिरिक्त पुष्पदंत ने '[[णायकुमारचरिउ]]' और 'जसहरचरिउ' जैसे छोटे-छोटे दो चरितकाव्यों की भी रचना की है। तीसरे लोकप्रिय कवि [[धनपाल]] (दसवीं शती) हैं जिनकी '[[भविस्सयत्त कहा]]' श्रुतपंचमी के अवसर पर कही जानेवाली लोकप्रचलित प्राचीन कथा है। [[कनकामर मुनि]] (११वीं शती) का '[[करकंडुचरिउ]]' भी उल्लेखनीय चरितकाव्य है।
 
अपभ्रंश का अपना दुलारा छंद [[दोहा]] है। जिस प्रकार [[प्राकृत]] को '[[गाथा]]' के कारण 'गाहाबंध' कहा जाता है, उसी प्रकार अपभ्रंश को 'दोहाबंध'। फुटकल दोहों में अनेक ललित अपभ्रंश रचनाएँ हुई हैं, जो इंदु (आठवीं शती) का 'परमात्मप्रकाश' और 'योगसार', रामसिंह (दसवीं शती) का 'पाहुड दोहा', देवसेन (दसवीं शती) का 'सावयधम्म दोहा' आदि जैन मुनियों की ज्ञानोपदेशपरक रचनाएँ अधिकाशंतः दोहा में हैं। [[प्रबंधचिंतामणि]] तथा [[हेमचंद्रहेमचन्द्राचार्य|हेमचंद्ररचित]]रचित व्याकरण के अपभ्रंश दोहों से पता चलता है कि शृंगार और शौर्य के ऐहिक मुक्तक भी काफी संख्या में लिखे गए हैं। कुछ रासक काव्य भी लिखे गए हैं जिनमें कुछ तो 'उपदेश रसायन रास' की तरह नितांत धार्मिक हैं, परंतु [[अद्दहमाण]] (१३वीं शती) के [[संदेशरासक]] की तरह शृंगार के सरस रोमांस काव्य भी लिखे गए हैं।
 
जैनों के अतिरिक्त बौद्ध सिद्धों ने भी अपभ्रंश में रचना की है जिनमें [[सरहपासरह]]पा, [[कन्हपा]] आदि के दोहाकोश महत्त्वपूर्ण हैं। अपभ्रंश गद्य के भी नमूने मिलते हैं। गद्य के टुकड़े [[उद्योतन सूरि]] (सातवीं शती) की 'कुवलयमाल कहा' में यत्रतत्र बिखरे हुए हैं।
 
नवीन खोजों से जो सामग्री सामने आ रही है, उससे पता चलता है कि अपभ्रंश का साहित्य अत्यंत समृद्ध है। डेढ़ सौ के आसपास अपभ्रंश ग्रंथ प्राप्त हो चुके हैं जिनमें से लगभग पचास प्रकाशित हैं।
पंक्ति 45:
== इन्हें भी देखें ==
* [[प्राकृत]]
* [[हिन्दवी (बहुविकल्पी)|हिन्दवी]]
* [[अर्धमागधी]]
* [[पालि भाषा|पालि]]
* [[पालि, प्राकृत और अपभ्रंश का कोश वाङ्मय]]