"महाराजा जसवंत सिंह (मारवाड़)": अवतरणों में अंतर
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[[जोधपुर]] के महाराज [[गजसिंह]] के तीन पुत्र थे- अमरसिंह, जसवंतसिंह और अचलसिंह। अचलसिंह का देहांत बचपन में ही हो गया। अमरसिंह वीर किंतु बहुत क्रोधी थे इसलिये गजसिंह ने अपने छोटे पुत्र जसवंतसिंह की ही गद्दी के उपयुक्त समझा। २५ मई १६३८ के दिन बारह बरस का जसवंत गद्दी पर बैठा।
प्राय: राज्य के आरंभ काल से ही जसवंतसिंह शाही सेना में रहा। सन् १६४२ में उसने शाही सेना के साथ [[ईरान]] के लिये प्रयाण किया। एक साल बाद वह वापस लौटा। सन् १६४८ में ईरान के शाह अब्बास ने ५०,००० सेना और तोपें लेकर [[कांधार|कंधार]] को घेर लिया। कुछ समय के बाद किला उसके हाथ आया। जसवंतसिंह किले पर घेरा डालनेवाली शाहजादे [[औरंगज़ेब|औरंगजेब]] की फौज में में संमिलित था। औरंगजेब किला लेने में असमर्थ रहा। इसी बीच जसवंतसिंह के मनसव में अनेक बार बृद्धि हुई और सन् १६५५ में उसे महाराजा की पदवी मिली।
सन् १६५७ में बादशाह [[शाह जहाँ|शाहजहाँ]] बीमार हुआ और उसके पुत्रों में राज्याधिकार के लिये युद्ध शुरू हो गया। [[दारा प्रथम|दारा]] ने बादशाह से कहकर जसंवतसिंह का मनसब ७,००० ज़ात और ७,००० सवार करवा दिया और उसे एक लाख रुपये और मालवे की सूबेदारी देकर औरंगजेब के विरुद्ध भेजा। दूसरी शाही सेना कासिमखाँ के सेनापतित्व में उससे आ मिली। इसी बीच औरंगजेब ने शाहजादा मुराद को अपनी ओर कर लिया। 'धर्मत' नाम के स्थान पर दोनों सेनाओं का सामना हुआ। [[कोटा]] का राव मुकुंदसिंह, उसके तीन भाई, शाहपुरा का सुजानसिंह सीसोदिया, अर्जुन गोड़, दयालदास झाला, मोहनसिंह हाड़ा आदि अनेक राजा और सरदार उसे साथ थे। हरावल का नायक कासिमखाँ था और जसवंतसिंह, स्वयं २,००० राजपूतों के बीच केंद्र में था। उनमें से कई राजपूत सरदार तो प्रारंभिक आक्रमण में ही काम आए। टोड़े का रायसिंह, बुंदेला सुजानसिंह आदि भाग निकले। जसवंतसिंह अवशिष्ट राजपूतों के साथ वीरता से लड़ता हुआ औरंगजेब के पास तक पहुँचा किंतु इसी बीच वह बुरी तरह घायल हुआ। युद्ध में पराजय को निश्चित समझ उसके साथ के राजपूत जसवंतसिंह को बलपूर्वक युद्ध से बाहर ले गए और उसे [[जोधपुर]] लौटना पड़ा।
धर्मत के बाद [[औरंगज़ेब|औरंगजेब]] ने दारा को [[सामूगढ़]] की लड़ाई में हराया और २२ जुलाई १६५८ को शाहजहाँ को नजरकैद कर औरंगजेब गद्दी पर बैठा। उसी साल जसवंतसिंह ने औरंगजेब की अधीनता स्वीकार की, किंतु मन से वह उसके विरुद्ध था। अत: कोड़े में जब [[शाहशुजा]] और औरंगजेब का युद्ध हुआ तो औरंगजेब की फौज का काफी नुकसान कर वह जोधपुर लौट गया। किंतु शाहशुजा युद्ध में हार गया। औरंगजेब को बहुत क्रोध आया, फिर भी [[मिर्जा राजा जयसिंह]] के बीच में पड़ने से और जसवंतसिंह से अच्छा संबंध बनाए रखने में ही अपना हित समझकर औरंगजेब ने महाराजा को क्षमा कर दिया।
१६५९ में जसवंतसिंह गुजरात का सूबेदार नियुक्त हुआ, किंतु कुछ समय के बाद औरंगजेब ने उस स्थान पर [[महावतखाँ]] की नियुक्ति की। [[शिवाजी]] की बढ़ती शक्ति को देखकर औरंगजेब ने [[शाइस्ताखाँ]] को उसके विरुद्ध भेजा। उसने [[पुणे|पूने]] में रहना शुरु किया और जसवंतसिंह [[सिंहगढ़]] के मार्ग में ठहरा। शाइस्ताखाँ पर रात्रि के समय शिवाजी के आक्रमण की कथा प्रसिद्ध है। शिवाजी के विरुद्ध जसवंतसिंह ने कोई विशेष सफलता प्राप्त न की। बादशाह ने उसे दिल्ली वापस बुला लिया और उसके स्थान पर दिलेरखाँ और मिर्जा राजा जयसिंह की नियुक्ति की। किंतु सन् १६७८ में फिर उसकी नियुक्ति दक्षिण में हुई और उसके उद्योग से मुगलों और मरहटों के बीच कुछ समय के लिये संधि हो गई। सन् १६७० में वह दुबारा गुजरात का सूबेदार नियुक्त हुआ और सन् १६७३ में बादशाही फरमान मिलने पर काबुल के लिये रवाना हुआ। २८ नवम्बर १७३८ को उसका देहांत जमुर्रद में हुआ।
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