"स्वनिम": अवतरणों में अंतर

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स्वनिम के स्वरूप के संदर्भ में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। विभिन्न विद्वानों ने इसे भिन्न-भिन्न विषयों से सम्बन्धित माना है। [[ब्लूमफील्ड]] और [[डैनियल जोन्स]]ने ने इसे भौतिक इकाई के रूप में स्वीकार किया है। [[एडवर्ड सापीर]] इसे मनोवैज्ञानिक इकाई मानते हैं। डब्ल्यू. एफ. ट्वोडल स्वनिम को अमूर्त काल्पनिक इकाई मानते हैं। स्वन या ध्वनि-परिवर्तन से सदा अर्थ-परिवर्तन नहीं होता है, जबकि स्वनिम-परिवर्तन से अर्थ-परिवर्तन निश्चित है।
 
स्वनिम उच्चारित भाषा की ऐसी लघुत्तम इकाई है, जिससे दो ध्वनियों का अन्तर स्पष्ट होता है। इस प्रकार यह भी स्पष्ट है कि स्वनिम का सम्बन्ध ध्वनि से है। ध्वनि का सम्बन्ध यदि [[उच्चारण]] से होता है, तो श्रवण से भी इसका अटूट सम्बन्ध होता है। यदि ध्वनि सुनी नहीं जाएगी तो उसका अस्तित्व भी संदिग्ध होगा। ध्वनि के उच्चारण तथा श्रवण-सम्बन्धों के ही कारण स्वनिम को [[शरीर-विज्ञान]] तथा [[भौतिक शास्त्र|भौतिक विज्ञान]] से सम्बन्धित कहा गया है, क्योंकि उच्चारण और श्रवण-प्रक्रिया यदि शरीर विज्ञान से सम्बन्धित होती है, तो संवहन-प्रक्रिया पूर्णतः भौतिक विज्ञान से।
 
किसी भी भाषा की मूलभूत ध्वनियाँ लगभग पन्द्रह से पचास तक होती हैं। इन्हीं ध्वनियों के निर्धारण पर स्वनिम का निर्धारण होता है। स्वनिम के ही माध्यम से ध्वनियों के मध्य अन्तर प्रदर्शित होता है। ज, न, प भिन्न-भिन्न स्वनिम हैं। इसलिए इनमें भिन्नता है। 'जान' तथा 'पान' का अन्तर स्वनिम की भिन्नता के ही आधार पर होता है। यहाँ ‘ज’ तथा ‘प’ दो भिन्न सार्थक ध्वनियाँ हैं। इन्हीं भिन्न सार्थक ध्वनियों के आधार पर ‘ज्ञान’ तथा ‘पान’ में अर्थ भिन्नता भी है। इन्हीं सार्थक ध्वनियां को ध्वनि विज्ञान में स्वनिम कहते हैं। उन दो शब्दो की 'न' ध्वनियों में सूक्ष्म अन्तर है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति यदि एक ध्वनि को दो बार उच्चारण करेगा, तो उनमें सूक्ष्म अन्तर होना स्वाभाविक है; यथा- पान, जान, पानी, मनु, मीनू, माने, मानो आदि शब्दों की विभिन्न ‘न’ ध्वनियों में सामान्य रूप से कोई अन्तर नहीं लगता है, किन्तु सूक्ष्म चिन्तन पर इन ध्वनियों में सूक्ष्म भिन्नता का ज्ञान होता है। स्वनिक रूप से यदि इनमें भिन्नता है, तो उच्चारण के स्थान, प्रयत्न तथा कारण आदि आधारों पर इनमें पर्याप्त समानता ही स्वनिम की अवधारणा का आधार है।<ref>{{cite book|title=Aadhunik Bhaska Vigyan|url=https://books.google.com/books?id=QPE2vO-th-EC&pg=PA223|publisher=Vani Prakashan|pages=223–}}</ref>